चीम्पू
चीम्पू


प्रो रविंद्र, एक ऐसा नाम जो जीव विज्ञान के क्षेत्र में अपने अद्भुत योगदान के लिए पूरे विश्व में चर्चा में थे। तिरुर्वनंतपुरम में स्थित अपने लैब में वो कई प्रयोग किया करते थे जिसकी जानकारी सिमित लोगों को ही होती थी। ज़ोया, प्रो की लाडली बेटी थी। उसको जानवरों से अत्यन्त मोह था और अपने छोटे से फार्महाउस में चिंपैंज़ी, हिरण, बिल्ली जैसे कुछ जीवों को पालतू बना कर उनके साथ खेला करती थी। उनमे से जोया को सबसे ज्यादा चिम्पू नाम का चिंपैंजी पसंद था। विज्ञान के अनुसार बंदर प्रजाति से ही कही न कही मनुष्यों का भी उत्सृजन हुआ है और हममें अनेकों समानताएं भी होती हैं।
उधर प्रो रविंद्र दिन रात की मेहनत से अपनी प्रयोगशाला में एक ऐसी दवा बना कर तैयार कर चुके थे जिसके इस्तेमाल से इंसान का कोई भी अंग पुनः जीवित किया जा सकता था मगर इसका इस्तेमाल करने से शरीर पर होने वाले दुष्प्रभाव का भी सटीक अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल था। बहुत देर तक सोच विचार के पश्चात् प्रो. ने ये फैसला लिया की दवा का प्रशिक्षण वो पहले चिंपू के शरीर पर करेंगे क्यूंकि सीधे तौर पर किसी मानव को इस काम हेतु ढूंढना और राज़ी करना लगभग नामुमकिन था। उसी रात चिम्पू के खाने में बेहोशी की दवा मिलाकर प्रो. इंतजार करने लगे, चिम्पू के बेहोश होते ही इंजेक्शन में दवा भर कर चिम्पू के छोटी सी पूँछ पर लगा दिया।
अब बस अपनी दवा के असर को देखने के लिए प्रो. पूरी रात जागते रहे। सुबह हो गयी थी मगर चिम्पू पर कोई सीधा असर नहीं दिख रहा था और तब तक प्रो. रविंद्र की आँख लग चुकी थी। मगर अचानक ही लोहे
का पिंजरा टूटा और चिम्पू अगले ही पल बाहर था, चिम्पू का पूरा शरीर अपने औसतन लंबाई से दस गुना ज्यादा बड़ा हो चुका था। प्रो को अपनी आँखों के आगे जो दिख रहा था उसपर यकीन करना असंभव था। तभी चिम्पू ने प्रो. को अपने दैत्याकार हाथों में उठा लिया मानो वो अपने हालात के लिए उसी को जिम्मेदार मान रहा हो।
शोर सुन कर ज़ोया भी अपने कमरे से भागी भागी आयी और सबकुछ देख कर उसके भी पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई।बड़ी मुश्किल से खुद को संभालते हुए ज़ोया पूरी ताकत से चिम्पू का नाम पुकारने लगी। चिम्पू ने ज़ोया की तरफ देखा और बड़े ही शालीन भाव से प्रो. को जमीन पर वापस रख दिया। ज़ोया का डर थोड़ा कम हुआ और चिम्पू के पास जा के वो उसके पैरों को सहलाने लगी ठीक वैसे ही जैसे पिछले 10 सालों से कर रही थी। चिम्पू अब शांत हो कर बैठ चुका था। ज़ोया ने इशारे में अपने पापा से इसकी वजह पूछी। प्रो. ने किसी तरह उसे समझाया कि हाँ उनसे गलती हुई है। ज़ोया बिलख पड़ी, इससे पहले की कोई विध्वंसकारी बदलाव आये ज़ोया ने प्रो. से हाथ जोड़ कर वापस से उसी दवाई का एंटीसीरम बनाने को कहा। इसमें थोड़ा वक़्त लगता मगर नामुमकिन भी नहीं था। अब ज़ोया अपना पूरा वक़्त बड़े से चिम्पू के साथ बिताने लगी थी। चिम्पू को भी ज़ोया का साथ अब भी उतना ही खुशगवार लगता था जितना की पहले। बीतते वक़्त के साथ ज़ोया ये समझ चुकी थी की चिंपू बस शरीर से बड़ा हुआ था उसका दिल अभी भी छोटा सा ही था और वी अब भी उतना ही उदार और प्यारा था। 10 दिनों की कड़ी मेहनत के बाद आखिरकार प्रो ने एंटीसीरम बना ही लिया और चिम्पू को इंजेक्शन लगा दिया।