दोस्ती प्रकृति से
दोस्ती प्रकृति से


हर साल की गर्मी छुट्टी की तरह इस साल भी मैं अपने गाँव जा रहा था। एक महीने की वो छुट्टी, मुझे साल भर के लिए तरोताज़ा कर देती थी। जाते वक़्त ट्रैन की बोगी की एक खिड़की से लहलहाते खेतों को देखना और हवाओं का मेरे गालों पर थपथपाना ऐसा एहसास होता जैसे मेरे पहुँचने से पहले सारी प्रकृति मेरे स्वागत में जुट गई हो। वहाँ न टीवी थी, न कोई वीडियो गेम, न आइसक्रीम, न पार्क और न सिनेमाघर, फिर भी वहाँ जाने की बहुत उत्सुकता होती थी।
मेरे दिल की हलचल, पहुँचने से पहले, चलती ट्रैन जैसी होती थी। मैं लोगों से बार बार स्टेशन का नाम नहीं पूछा करता था। वहाँ पहुँचने का अंदेशा तो मुझे गांव के प्राथमिक विद्यालय को ट्रैन की खिड़की से देख लेने से ही हो जाता था। स्टेशन पर काका गाड़ी लेकर आ जाया करते और फिर पन्द्रह मिनट का घर तक का सफर शायद पूरे बारह घंटे के सफर से अधिक लंबा लगता था। थकान, भूख और काकी के हाथ के खाने के इंतज़ार में मेरे भूखे पेट का संयम खो देना, इस सफर को शायद और लंबा कर देता था।
गांव में, रात के खाने के बाद मेरे बिना किसी शिकायत के दूध पी लेना मेरी माँ को हर बार हैरत में डाल देता। सोने से पहले हम उस खूबसूरती को देखते जिसे मैंने शहर में कभी नहीं देखा। मानव निर्मित तारामंडल में ये बात तो नही थी और उसको देखने के पैसे भी लगते जितने में दो सॉफ्टी आ जाती थी। हर रात हम खाट पर लेटे सितारों के सफर पर निकल पड़ते और यहाँ मुझे नींद बिना मोबाइल के इस्तेमाल के ही आ जाया करती थी।
अगली सुबह काका हमें सूरज की पहली किरण के साथ नींद से जगा दिया करते थे। फिर मैं उसके साथ गांव की सैर पर निकल पड़ता। हम शिव मंदिर में घंटी बजा, पुराने महल और हलकू की गौशाला होते हुए तालाब पर पहुँचते थे। यहाँ तालाब की जिस तरफ हम बैठते थे वहाँ बैठने के
लिए बाँस का छोटा मचान था। दूसरी तरफ दो बड़े पेड़ और तालाब चारों ओर से छोटे पेड़ों से घिरा हुआ था। ऐसा लगता जैसे सूरज उन्ही दोनों पेड़ों से निकल रहा होता था और दोनों के बीच में देखो तो क्षितिज तक दिखाई पड़ता। हवा और पंछियों से मधुर संगीत सुनाई दे रही होती और सूरज की लालिमा से आकाश और तालाब में सुंदर कलाकृति बन रही होती थी।
"आप रोज़ यहाँ आते हैं न ?" मैंने यूँ ही काका से पूछा।
उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "हाँ अपने दोस्त से तो रोज़ मिलने आना ही होता है।"
मैंने अचरज से पूछा, "कौन दोस्त ? मैं समझा नहीं काका ! "
काका ने खड़े होते हुए कहा, "ये पेड़, तालाब, हवाएं, सूरज, आकाश, पंछी, हरी घास और एक शब्द में बोलूँ तो प्रकृति है मेरी दोस्त। और ये मेरी सबसे अच्छी दोस्त है।"
मैंने पूछा, "वो कैसे ?"
उन्होंने कहा, "हम एक दूसरे से ऊबते नहीं हैं, वो अंग्रेज़ी में कहते हैं ना कभी बोरियत नहीं होती।"
मैंने उत्सुकता वश उनके मित्र से उन्ही की तरह मिलने की ज़िद मचाई तो वो मेरे पास आकर बैठ गए और फिर उन्होंने बाईं हथेली को नीचे, बीच में थोड़ी सी जगह और दाहिने हथेली को उस जगह के ऊपर रखा और फिर उन्होंने मुझे इस बीच वाली जगह से देखने को कहा। मुझे पेड़, तालाब, सूरज, आकाश, क्षितिज, पंछी सब दिख रहे थे। मैं खुश हो गया।
मैंने झट से हाँ बोल दिया जब उन्होंने पूछा, "इससे दोस्ती करोगे।"
फिर उन्होंने कहा, "ये दोस्त बिना शर्त के तुमसे बेपनाह प्यार करेगा, बिना मांगे तुम्हे अपना सब कुछ देगा। बस तुम कभी स्वार्थी मत हो जाना, नही तो ये धीरे धीरे मरता जाएगा तुम्हारे लिए भी और दुनिया के लिए भी। हम अगर इसे बचाएंगे तो ये हमें बचाएगा।"
मैंने हथेलियों के बीच फिर से देखते हुए कहा, "काका मैं वादा करता हूँ।"