त्राहि माम!
त्राहि माम!
"नहीं ! मत करो ऐसा। रुक जाओ। मत काटो पेड़, नदी में कूड़ा मत डालो, नहीं मचाओ कूड़ा चारो तरफ। और भी बच्चे है मेरे तुम्हारे सिवा - वो परेशान हो रहे हैं। मेरा दम घुट रहा है। रुक जाओ" धरती मां गुहार लगाती रही पर उनका ज़िद्दी बच्चा मानव नहीं माना।
"ये कैसा वायरस है? ये तो सबकी जान लेकर छोड़ेगा। त्राहि माम! त्राहि माम! मां हम सबकी रक्षा करो। हमें बचा लो मां। थक गए अब डर के साए में जी कर। घुटन होने लगी है घरों में बन्द होकर, मां। अब और ऐसे नहीं जीता जाता मां। हमें माफ कर दो मां, हमें माफ कर दो।"
ना पहले हमने अपनी मां की सुनी और ना अब मां हमारी सुन रही है। वो तो मां है - आज नहीं तो कल सुन ही लेगी पर क्या हम सुधरेंगे?? जिन नदियों को हमने दूषित किया था, जिस वातावरण को हमने ज़हरीला बनाया था - उसे धरती मां मुश्किल से संभाल पाई हैं अब। वो तो मां हैं। शायद है माफ़ कर दे और मान जाए, पर क्या हम अब आगे के लिए सुधरेंगे ? अब अपने पर आई तो समझ आया। पर असली प्रश्न है कि कब जाकर समझ आया। कहीं ऐसा ना हो कि हमें अगली बार समझने का मौका ही ना मिले।