तंदूरी चाह
तंदूरी चाह
रास्ता लंबा था गोआ से पुणे के ११ घंटे का सफर आसान नहीं होता और वो भी तब जब बीवी-बच्चे साथ हो और गाड़ी केवल एक ही इंसान चला रहा हो, वो था मैं।
बीवी ने रास्ते में ग़ज़ल लगा दी। गाड़ी १०० की रफ्तार में मैं दौड़ा रहा था। ग़ज़ल की मोहक तान ने आँखों में नशा भर दिया और आंखे बेसुध हो झूमने लगी। अगर सरल भाषा में कहें तो नींद आने लग गयी थी मुझे।
मैंने गाड़ी रोकनी चाही, बीवी बोली-
"नहीं आगे बढ़ते चलो, रात होने से पहले पहले ये घुमावदार रास्तों से निकलना है।"
"मुझे इन ग़ज़लों से नींद आ रही है।" मैं हँस पड़ा था।
मैंने ही तो ज़िद की थी कारवां रेडिओ को घर से लाने की। मैं ही तो ग़ज़लों का दीवाना था। अब मैं ही ये सब...
बीवी ने उस वक्त कुछ बोला नहीं बस एक टेढ़ी नज़र मुझ पर डाली।
जब बीवी टेड़ी निगाहें घुमाये तो एक समझदार पति को समझ जाना चाहिए। कुछ गलत हो गया उससे।
६.०५ बज चुके थे दिन ७ बजे ढल जाता था। एक जगह मैंने एक बोर्ड पढ़ा और मैंने वहीं गाड़ी को रोक लिया
बीवी को अचरज हुआ, बोली-
"यहाँ क्यों रोक लिया ? अभी कुछ देर
पहले ही तो खाना खाया ! अब क्या !
मैंने बीवी की गर्दन को घुमाया और ऊपर लगा बोर्ड पढ़ने को इशारा किया।
वो खुश हो गयी थी और उसके चेहरे की चमक से मैं भी।
उसकी काफी अर्से की तमन्ना थी जो आज पूरी होने जा रही थी
बोर्ड पे तंदूरी चाह लिखा था।
बीवी खुश हो गयी थी।
मैंने चाय के लिए वेटर को बोल दिया।
चाय स्टाल के बाहर ही एक थर्मस, एक तंदूर, मिट्टी के छोटे-छोटे मटके सजा के रखे हुए थे।
वेटर ने तंदूर खोला उसके अंदर मटके पड़े थे। वेटर उसको तंदूरी मटका बोल रहा था। वेटर ने सांसी से तंदूरी मटका उठाया। उसे एक पैन के ऊपर रखा और थर्मस से तंदूरी मटके में चाय को डाला गया। उसमे चाय में एक अलग सा उबाल आने लगा।
ऐसे लग रहा था चाय में केमिकल रिएक्शन हो गया हो।
तंदूरी मटके में खुद ब खुद 2 बार उबाल आया। फिर उसे वहाँ रखे मिटी के मटको में पीरोसा गया।
स्वाद अलग न था। मगर बनाने का तरीका नायाब था।
बीवी ने वीडियो निकाल लिया था। उसका चेहरा उसकी खुशी बयान कर रहा थ।
और उसकी खुशी में मैं बहुत खुश था।