परिचय
परिचय
{टिंग टोंग}
घंटी बजी...
घर के दो दरवाज़े थे।
एक लकड़ी का और दूसरा जाली लिये हुये था। डर तो लगा ही रहता बच्चों के घर में।
मुख्य दरवाज़ा देख परख कर ही खोला जाता था।
हरी रेशमी सुंदर साड़ी में लिपटी एक युवती बाहर खड़ी थी। ऐसा प्रतीत होता था कि बहुत जल्दी में थी। ३२ वर्ष की रही होगी।
साँवला रंग,
पतली काया,
हाथों पायों में अलता,
माथे पर सिंदूर और माँगटीका….।
आधुनिकता के युग में पारंपरिकता से परिचय।
आज घर मे वास्तु की पूजा रखी है ज़रूर आइयेगा भाभी...
हाँजी पक्का...
मैंने हाँ में सिर हिलाया और दरवाज़ा बन्द कर दिया।
मैं पहली बार मे घुल मिल नहीं पाती। वो बात अलग है जब एक बार घुल जाती हूँ तो फिर नमक-शक्कर की भांति घुल जाती पानी रूपी दोस्ती में।
रसोई की बालकनी से उसका घर साफ दिखाई देता था… मैं खाना बनाने रसोई में घुसी, हवन चल रहा प्रतीत हो रहा था। हवन की महक और मंत्रोच्चारण की ध्वनि से मेरी देह, मेरी रूह जैसे मग्न हो गयी…
खाना बनाना सब भूल चुकी थी मैं। बस उस पवित्रता को अपने अंदर पीरो लेना चाहती थी।
मेरी आँखें बंद थी हाथ मंत्रो संग ताल दे रहे थे।
{टिंग टोंग}
मेरा ध्यान टूटा…
आँखें खुली। बाहर दरवाज़े पर कोई था।
अब कौन आया होगा ?
दोबारा कहीं वो भाभी तो नहीं आ गयी बुलाने !
इन्हीं सोचों मे डूबी मैंने दरवाज़ा खोला-
श्रीतु थी बाहर…
नये नये मौहल्ले में शुरुआती जानने वालों में नाम
था इनका
सब दुख-सुख की बातें कर लेते थे हम दोनों घंटों बैठ कर।
“ये पूजा कहाँ चल रही है” श्रीतु ने पूछा
“वो आयी थी एक भाभी। नए आए हैं आज ही रहने। वास्तु की पूजा रखी उन्होंने। मन है पर जान पहचान बिल्कुल नहीं। क्या मतलब ऐसे जाने का ?”
मैंने श्रीतु से अपने मन की बात कही।
एकाएक मन में पता नहीं क्या आया…
कंघा बालों में घुमाते हुए एकदम से सोफे से उठ गई…
श्रीतु चलें ?
मुझे तो बुलाया नहीं ! श्रीतु बोली
बात भी सही थी। यहाँ बुलाया है तो एक मन बोल रहा जाऊँ, दूसरा ना जाऊँ…
जिसको बुलाया नहीं उसके मन मे आये विचार सामान्य थे।
यार ! फिर क्या हुआ नहीं बुलाया तो, तुम चलो मेरे साथ।
पूजा तो खत्म होने वाली होगी और कुछ नहीं तो समोसे खा के आ जाएंगे।
{हम दोनों खिलखिला पड़ीं…}
पूजा स्थल पर पहुँचे तो आखरी आहुति चल रही थी। सब नीचे विराजमान थे बस एक औरत रॉब लिए उपर कुर्सी पे बैठी थी। मानो पूजा देखने नहीं निरीक्षण करने आयी हो।
बहुत अटपटा सा लग रहा था। पूजा में ऐसे भाव लिए कोई बैठा हो तो किसको अजीब नहीं लगेगा ?
मुझसे रहा नहीं गया। बिल्कुल नज़दीक बैठी थी उनके मैं। मानो चरणों में उनके ( ही ही) बस स्पर्श करना बाकी रह गया था। उनका परिचय मिलते ही वो भी कर लिए थे। (ही ही)
मैंने पूछ ही लिया-
नमस्ते आंटी जी
आप !
उनका जवाब-
मैं ! सास हूँ।
समझ तो गए होंगे आप...
हमने फटाफट समोसे प्रसाद लिया और झटपट निकल गए वहाँ से।