तमाचे का पावर
तमाचे का पावर
जब कोई न सुने तो एक तमाचा जड़ दिया, ऐसे किस्से और घटनाओं से हम रोज दो चार होते हैं, यह समझ से परे है कि यह तमाचे के पावर के अंतर्गत है या पावर वाला तमाचा है। वैसे सबने मां की कन मुर्री से लेकर गांव में चपत तो खाई होगी। यह नहीं खाया तो घूंसे थप्पड़, कनपटी पर बजा देना, कान के नीचे झनझनाहट महसूस किया होगा। तमाचे पर बचपन से ही महतारी बाप से लेकर मास्टर साहब का हक रहा, समय गुजरते रहे हक दोस्तों से दुश्मनों तक पहुंच गया। समाज में देखा तो पुलिस गुंडे मवालियों से सभ्य इंसानों को भी तमाचे और तमंचे का शौक आ गया।
मास्टरी से यह गुण धीरे धीरे स्थानांतरण हुआ और ब्यूरोक्रेसी तथा पुलिस महकमे में विस्तार पा रहा है।
चुनाव के मंचों में राजनेताओं को तमाचा थमाकर खुद को कैमरे के सामने फोकस करने वाला सीन भी तो न भूलना चाहिए। दिल्ली के चुनावों में यह तो आम घटनाओं में गिना जाता रहा है। बच्चों के लिए तमाचा का लेना अमृत के समान हुआ करता था। इससे प्रेम और ज्ञान का वृद्धिदायक माना जाने लगा था। थप्पड़ और तमाचा संस्कृति फल फूल ही रही थी। कि फिल्मों में इसका उपयोग सीन के साथ साथ संवादों में भी खूब किया गया। इस वजह से थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब जैसे संवादों ने फिल्मों को हिट कर दिया। फिल्मों में तो तमाचा और थप्पड़ कम पड़ गया सीधे फोहाका पड़ जाता है बाकी और आधुनिक मार धाड़ तो चलती रहती है।
पिछले साल से जब कोरोना काल कहर बरपा रहा है तब से लोक सेवा आयोग के कर्मठ अधिकारी, लाल बत्ती वाले अधिकारियों में यह तमाचे का पावर नियम कानून के पावर से कहीं ज्यादा असरकारी लगने लगा है। एक बार प्यार से समझाओ, नहीं तो तमाचे की मार से समझाओ, पर समझाओ किसी भी तरह तरह समझाओ, सामने वाले को तमाचे की झनझनाहट और बेइज्जती का दर्द महसूस कराओ। जब भी इन समाचारों से रूबरू होता हूं कि अमुक कलेक्टर एसडीएम तहसीलदार आदि आदि लाल बत्ती वाले अधिकारियों ने राह चल
ते किसी के कान के नीचे बनाकर धर दिए तो सोचता हूं कि, सरकार ने वैसे ही कितने अधिकार दिए हैं, लिखिए रूप से उनका प्रयोग करिए ना। खामखां क्यों हाथों को कष्ट देते हैं।
वैसे मास्टरों से तमाचा जड़ने का अधिकार तो शिक्षा विभाग ने पहले ही छीन चुका है। वरना मास्टरों को कारपोरल पनिशमेंट के नाम पर जेल, पुलिस और पेनाल्टी ठोक देते हैं, तो क्या अधिकारीगणों पर यह नियम लागू नहीं होता है क्या। यदि यह नियम ही है कि जब शांति व्यवस्था स्थापित करने की बात हो तो तमाचे का पावर दिखाना संविधान के अनुच्छेद से मिला है। तो इसे लिखित रूप से सार्वजनिक करना चाहिए, ताकि तमाचे खाने वाले को भी सजा का विधान पता रहे। वैसे बच्चों के मामले में, नेताओं के मामले में तो मानवाधिकार संगठन और राजनैतिक दलों का मुंह खुल जाता है। तो फिर बेचारी जनता जब कनपटी के नीचे खाती है तो इन मामलों में संगठनों को सांप सूंघ जाता है क्या। या फिर ब्यूरोक्रेसी का अधिकार समझ कर हनन करना उचित नहीं समझा जाता।
तमाचा मारने से पहले भी गुनाह और बेगुनाह के बीच का अंतर तो अधिकारियों को करना चाहिए, अब बताओ बाइक में तीन तीन बैठकर हार्न बजाने वाले को भी उतने ही पड़ते हैं जितना कि वैक्सीन लगवाने जाने वाले को। यह तो बहुत ही अत्याचार है जनता पर, तमाचा भी खाए, गाली भी खाए, बेइज्जती भी सहे और फिर पैसे देकर रसीद भी कटवाए। चोट लगने पर दवा भी करवाए। अरे भाई अर्थदंड दे दो नियम के अनुसार कार्यवाही कर दो। तो उसमें भी सामनेवाले को संतोष हो जाएगा। पर सरे आम तमाचा तो मत जड़ो। खैर मैं तो तमाचे की मार से डंडे की मार झेलने वाले बेचारे जनमानस की पीड़ा के बारे में सोचता हूं, कि वो बचपन से कूटा गया, पहले महतारी बाप से, फिर मास्टरों से, फिर दोस्तों से, और अब पुलिस और अधिकारियों से। आव देखा न ताव मार खा गया।। वैसे तमाचे के पावर से पावर का तमाचा ज्यादा लगता है साहब, डर भी उसी से ही लगता है।