थोड़ा थोड़ा हम दोनों बदलते हैं
थोड़ा थोड़ा हम दोनों बदलते हैं
राधिका जी झट-पट रसोई में हाथ चला बेटे के पसंद का सब कुछ बना रही थी। मन में सोचते हुए कि वो ऑफिस से आता ही होगा, खाना तैयार रहेगा तो झटपट खाने को दे दूंगी। सुबह भी नाश्ता करके नहीं गया भूख लगी होगी। तभी घंटी बजी दरवाजा खोला तो सामने बेटा रोहित ही था।
" बेटा तू बैठ, मैं तेरे लिए चाय बना दूं।"
"नहीं मां, चाय पीने का मन नहीं।" बोल बैग सोफा पर रख अपने कमरे में चला गया। फिर भी मां एक कप चाय बना बेटे को देने चली। "क्या हुआ बेटा? तबीयत ठीक नहीं?"
"नहीं मां कुछ नहीं हुआ? आप चिंता मत करिए।"
बोल चाय की कप उठा लिया। रात में डिनर भी सब कुछ पसंद का होने के बावजूद ढंग से नहीं खाया।
अब राधिका जी को थोड़ी चिंता होने लगी।
"क्या बात है राधिका? क्या सोच रही हो?" रात को सोते समय पति ने पूछा।
"रोहित के बारे में सोच रही हूं। जबसे बहू गई है, ढंग से खा पी नहीं रहा, ना ही ढंग से बात कर रहा, हर समय उखड़ा उखड़ा सा रहता है। मुझे उसकी चिंता हो रही है।"
"अरे! इसमें चिंता की क्या बात है? तुम्हें तो खुश होना चाहिए आखिर तुम यही चाहती थी ना कि बहू घर छोड़कर चली जाए, बेटे की गृहस्थी उजड़ जाए तो लो उजड़ गई।"
"आप कैसी बातें कर रहे हैं? ऐसी कौन मां होगी जो अपने बेटे की गृहस्थी उजाड़ना चाहेगी और क्या मैंने बेटे की गृहस्थी उजाड़ दी?"
"और नहीं तो क्या! पिछले 1 साल में कभी आप दोनों सास बहू प्रेम से रही? अक्सर किसी न किसी बात को लेकर खटपट होती रही। आखिर कब तक कोई बर्दाश्त करेगा? अरे, जब आपको बहु पसंद नहीं थी तो रोहित को क्यों कहा, बेटा, तुम्हारी पसंद ही मेरी पसंद है, तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है। तुम शादी कर लो। तभी मना कर देती तो कुछ देर के लिए उसे बुरा लगता लेकिन ये रोज की खटपट तो नहीं होती। आपने एक बार भी नहीं सोचा, जब छोटी छोटी बातों और अपने नियम कायदों के लिए बहू को सुनाती हैं तो उसके साथ बेटा भी परेशान होता है, उसे भी बुरा लगता है, तकलीफ होती है। पता है वो सब कुछ जानते हुए भी कुछ नहीं बोला क्योंकि आप मां हैं। इसलिए वह हमेशा अपनी पत्नी को ही समझाता रहा। लेकिन किसी भी चीज की हद होती है। उसे सहन नहीं हुआ तो चली गई। अब खुश रहो अपने बेटे के साथ।"
"आप क्या कह रहे हैं? फिर मैं बहू से नहीं उसकी आदतों से परेशान थी। आपने देखा नहीं शादी होते ही कैसे अपने मन की चलाने लगी, कुछ कहूं तो मुझे समझाने लगती थी, मुझ पर तो हावी होती जा रही थी दिन पर दिन। वह ज्यादा पढ़ी लिखी है तो क्या वही एक समझदार है और अच्छे से घर चलाना जानती है मैं नहीं? मैं तो बस यही चाहती थी कि सिर्फ अपनी ही ना करें जरा मेरी भी सुने और मेरे अनुसार भी चले।"
"मुझे ये समझ नहीं आता, आप हर चीज अपने अनुसार क्यों करना चाहती हैं? अरे, बहू आज के जमाने की है तो उसी अनुसार जीएगी, रहेगी। माना कि आपका कहना सही है फिजूलखर्ची मत करो लेकिन जब आमदनी अच्छी हो जाती है तो थोड़ी बहुत ऐशो आराम जीवन में आ ही जाती है। मैं ये जानता हूं, आपने बड़ी मुश्किल से, काफी कटौती और बचत करके गृहस्थी जमाई है लेकिन तब मैं अकेला कमाने वाला था, बड़ा परिवार, आमदनी कम इसीलिए मुश्किलों का सामना किया। पर अब हमारे बेटे बहू दोनों कमा रहे हैं, परिवार में उतनी परेशानी नहीं है तो अब जरूरी नहीं कि जैसा आपने घर परिवार चलाया वैसे बहू भी करें। वे आसानी से हमारी और अपनी सारी जरूरतें पूरी कर लेता है। आपको तो खुश होना चाहिए, जो परेशानी हम दोनों ने झेला हमारे बच्चे नहीं झेल रहे।"
"आपकी बातों से सहमत हूं लेकिन..!"
"लेकिन ये कि आपको अपनी नजर और नजरिए को बदलने की जरूरत है। अपने जीवन के साथ बेटे बहू के जीवन और घर में शांति के लिए। अगर बहू को सिर्फ अपनी ही चलानी होती तो वो आपके साथ नहीं रहती पति के साथ अपनी अलग गृहस्थी बसाती। देखिए मेरी बात सही लगे और अगर आपको सच में बेटे की फिक्र हो रही है तो एक बार ठंडे दिमाग से सोच बहू को वापस बुला लीजिए। कोई भी नियम कायदे अपने परिवार की खुशी से बढ़कर नहीं होती।" बोल करवट बदल कर सो गए।
राधिका जी को रात भर नींद नहीं आई, पति की कही बातें दिमाग में घूमने लगी। सही तो कह रहे हैं जो तकलीफ मैंने झेला वह बहू क्यों झेलें। मैं क्यों जिद कर रही हूं हर चीज अपने अनुसार करवाने की? जरूरी नहीं कि जैसे मैंने सब किया वैसे वो भी करें। जबसे बहू आई है रोज छोटी-छोटी बातों और अपने बनाए नियमों को पालन करवाने के लिए खटपट होती आ रही है। घर और जीवन में शांति और सुकून नहीं रहा। बहू के जाने से बेटा भी उदास है। मुझे भी कहां अच्छा लग रहा है यह खाली घर। ये सही कह रहे हैं मुझे अपना नजरिया बदलने की जरूरत है। मैं कल ही बहू को बुला लेती हूं।
अगली सुबह जब बेटा ऑफिस जाने लगे तो राधिका जी ने कहा। 'बेटा, बहू को ले आओ। उसके बिना कुछ अच्छा नहीं लग रहा।"
"लेकिन मां, वो आएगी तो फिर आपके साथ बहस करेगी, अपने मन की चलाएगी और आप दोनों में फिर खटपट होगी।"
"नहीं बेटा, अब कोई खटपट नहीं होगी। तू बहू को लेकर आजा।"
शाम को रोहित अपनी पत्नी को समझा-बुझाकर घर ले आया।
बेटे बहू को साथ देख राधिका जी को बहुत खुशी हुई, शांति और सुकून मिला।
अगले दिन रोहित ऑफिस जाने के लिए तैयार हो रहा था तभी पापा को बैग पैक करते देख चौंक गया। " पापा, आप पैकिंग क्यों कर रहे हैं? कहीं जा रहे हैं?"
"हां बेटा, मैं और तुम्हारी मां गांव जा रहे हैं। अब हम दोनों वहीं रहेंगे।"
"लेकिन क्यों पापा?"
"बेटा, हम दोनों ने तय किया है कि हम गांव में रहेंगे और तुम दोनों यहां खुशी खुशी अपनी गृहस्थी चलाओ। फिर हम ज्यादा दूर कहां जा रहे हैं? तो तुम परेशान मत हो।"
"नहीं पापा, आप दोनों कहीं नहीं जा रहे।"
"लेकिन मैंने तो टिकट करा ली है बेटा।"
" टिकट कैंसिल भी तो हो सकती है। मां, पापा को समझाओ ना कि वे नहीं जाए। हम सब फिर से एक साथ रहते हैं ना।"
"हां मां, रोहित सही कह रहे हैं। आप दोनों कहीं मत जाइए यही रहिए। मुझसे गलती हो गई। मैं गुस्से में मायके तो चली गई लेकिन वहां जाकर जब मैंने अपनी मां और भाभी के बीच आपसी प्रेम और सामंजस्य देखा तो समझ आया कि परिवार कभी भी किसी एक के नियम, सोच और समझ से नहीं बल्कि सबके मिलजुल कर और आपसी समझ से चलता है। मां अब यह गलती नहीं होगी। मुझे माफ करिए और यहीं रहिए।"
"हां तुमने सही कहा बहू और गलती सिर्फ तुम्हारी नहीं मेरी भी है। मैं भी जबरदस्ती तुम पर अपने नियम कायदे थोप रही थी।"
फिर पति की ओर देखते हुए बोली।
"एजी.! दोनों का कहना सही है तो हम कहीं नहीं जाएंगे। यहीं अपने बेटे बहू के पास रहेंगे। देखो बहू, थोड़ा तुम बदलो थोड़ा हम बदलते हैं और हम सब एक साथ मिलकर रहते हैं।"
