तारो की छाँव में
तारो की छाँव में
दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में जब खिड़कियाँ भी खोलने की हिम्मत नहीं होती है, मैं शॉल स्वेटर से लंदी फंदी बाहर का गेट बंद करने गई । मैं मन ही मन में बड़बड़ा रही थी, कितनी बार बोला है,शाम को ही गेट बंद कर दिया करो। कहाँ कोई रोज आता है ? कोई आएगा तो खोल देंगे । अब देखो ना इतनी ठंड में रात गए मुझे बाहर निकलना पड़ा। सामने नजर गई तो रोज की तरह वह बैठी तारों को देख रही थी। देख रही थी, कुछ ढूँढ रही थी, या बतिया रही थी । अभी कोहरा नहीं था तो तारों भरा आसमान साफ नीला था। शायद तारें भी अपनी सामर्थ्य भर गरमी उसे देना चाहते थे। गर्मियों की रातों में यही आकाश कितना लुभावना लगता है पर अभी तो देखने की हिम्मत भी नहीं पड़ती है। पर वह वही छत पर बैठी थी। शायद शॉल भी नहीं ओढ़ रखा था।
मैं उसकी हालत और हालात से वाकिफ हूँ। मुझे वह कालिदास की नायिका सी लगती है । वही जो मेघों को दूत बना कर अपने पति को प्रेम का संदेश भेजती है। वह भी शायद तारों के माध्यम से अपने पति से बात करती होगी। उसका पति सियाचिन में-50 डिग्री तापमान में पोस्टेड है । वह भी शायद बर्फ के बिछौने पर लेटा हुआ,आकाश की चादर ओढ़ कर टिमटिमाते तारों के द्वारा अपनी पत्नी को प्यार का संदेश भेज रहा होगा । हाँ वहाँ कहाँ मोबाइल? वह तो मातृभूमि की सेवा कर रहा है और यह उसकी तकलीफ में झुलस रही है। किसी से शिकायत भी नहीं कर सकती। माँ भारती की सेवा का संकल्प, वतन की रक्षा का प्रण तो उसका ही था ना |
वहाँ जहाँ ऑक्सीजन इतनी कम हो जाती है कि सोते वक्त कब किसकी जान चली जाए यह भी पता नहीं चलता । इसके लिए सैनिक एक दूसरे को हर कुछ घंटों में जगाते रहते हैं। जोकि वह बता रहा था कि वहाँ पर तो नींद भी नहीं आती है । पानी भी पीना हो तो वहीं आसपास फैली हुई बर्फ को पिघला कर बनाना पड़ता है। वह बर्फ दूषित भी हो सकती है । पर क्या कर सकते हैं। खाने पीने की वस्तुएं गर्म करने के साथ ही ठंडी होनी शुरू हो जाती है । यहाँ तक की नहाना तो दूर की बात है, उन्हें तो दाढ़ी भी बनाने की इजाजत नहीं है, कि अगर कट लग गया तो ? चमड़ी इतनी नाजुक हो जाती है कि फिर जल्दी ठीक भी नहीं हो पाती है । डब्बा बंद खाना खाना पड़ता है। पर क्या यह भी इतना आसान है ? कपड़ो से पूरी तरह ढ़की ऊगलियों से डब्बा आसानी से खुलता भी नहीं है।
दुश्मनों से ज्यादा खतरनाक तो सियाचीन की भौगोलिक परिस्थितियाँ हैं । ठण्डी हवा तीरों से भी ज्यादा घातक होती हैं। मैने देखा उसने अपनी साड़ी या दुप्पटे को कस कर लपेट लिया और खुद को ही बाँहो में भर लिया।शायद वह अपनी बाँहों की गरमी उस तक पहुँचा रहीं थी। शायद उसकी आँखों में आँसू डबडबा आयें है । वह तो रो भी नहीं पाता होगा, शायद आँखों के आँसू भी जम जाते होंगे ? या फिर शायद इसी लिए सैनिक इतने फौलादी होते हैं । वह लोग अपनी सारी यात्रा रात को करते हैं, क्योंकि सूर्य की किरणों से चमकती हुई बर्फ से उनकी आँखों की रोशनी भी जा सकती है । चोटी पर स्थित उनकी चौकी तक जाना भी आसान नहीं है। पच्चीस तीस किलो का पूरा सामान खुद उठाकर 20 22 घंटे पैदल चलना होता है । सारे जवानो का एक पैर रस्सी से बधां होता है कि अगर कहीं बर्फ कच्ची हुई और कोई गिर गया तो उसे बचाया जा सके ।
और यहाँ ऐसी में बैठकर बड़ी-बड़ी बातें करने वाले नेता कहते हैं, क्या खास करते हैं ? अपनी ड्यूटी ही तो कर रहे हैं । तनख्वाह तो ले ही रहे हैं ना । मैं सोच रही थी लोग मानवाधिकारों की, पशु पाक्षियों के अधिकारों की, नारी, किन्नर हर एक के अधिकारों की बात करते है । क्या सैनिकों के कोई अधिकार नहीं होते ? क्या वह इंसान नहीं होते ? क्या मानवता के नाते ऐसी जगह पर उनकी पोस्टिंग जायज है ? क्यों कोई मानवतावादी संगठन इस बारे में आवाज नहीं उठाता ? क्या ऐसी जगह पर ड्रोन से चौकसी संभव नहीं ? आज इक्सवीं सदी में भी क्या हमारे सिपाहियों की जान इतनी भी कीमती नहीं है ? काश कोई वैज्ञानिक ऐसा कुछ अविष्कार करता कि हमारे सैनिकों को धूप की रोशनी से चलने वाले आधुनिक टेंट मिल जाते,जो सामान्य तापमान तक अंदर गर्म होते । या किसी मशीन या ड्रोन से नीचे बैठे ही ऊपर होने वाली दुश्मन की किसी भी हलचल का जायजा ले सकते।
अगर यह सब संभव नहीं भी है तो काश कम से कम ऐसा तो होना ही चाहिए । हर नेता बनने वाले व्यक्ति या बड़ी पोस्ट पर भारत की सेवा करने वाले व्यक्ति के लिए कम से कम पाँच साल का सेना का अनुभव अनिवार्य होना चाहिए । शायद हर नौजवान के लिए भी, जिससे लोगों को हमारे वीर सिपाही किन हालातों में अपनी ड्यूटी करते है इसका अंदाजा हो सकें। वह बड़ी बड़ी बाते करना बंद करके सैनिकों एवं मातृभूमि की अहमियत समझ सकें। वैसे भी नेतागिरी के लिए योग्यता की कोई आवश्यकता नहीं होती है तो कम से कम एक योग्यता तो अनिवार्य होनी ही चाहिए । चुनाव लड़ने के लिए, आईएएस के लिए, या अन्य बड़े पदों के लिए पाँच साल या अधिक सेना में, वह भी सियाचीन ग्लेशियर पर ड्यूटी करना अनिवार्य होना चाहिए । जब तक ऐसा नहीं होगा एक सिपाही की पत्नी, माँ परिवार वालों का दुख कोई समझ ही नहीं पाएगा । इसलिए हर एक को यह अनुभव लेना अनिवार्य होना ही चाहिए।
तभी अंदर से पति की आवाज आयी, बाहर क्या कर रहीं हो ? जम जाओंगी ।
काश अपने अपने सुविधा सम्पन्न घरों में कंबल ओढ़ कर हीटर चला कर सोते समय हम यह याद रखा करें कि वो सिपाही जिन्हें हम नहीं जानते हैं ना ही वो हमें, वो हमारे लिए तारों के नीचे सरहद की रक्षा कर रहे हैं। मन तो उनका भी करता होगा कि माँ के आँचल के तले या पत्नी की बाँहों में घर के आरामदायक बिस्तर पर सो सकें। पर अगर उन्होंने बर्फ का बिछौना और आसमान की चादर चुना है तो हमें कम से कम सच्चे दिल से उनका सम्मान तो करना ही चाहिए ।
