Aditi Rai

Abstract

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Aditi Rai

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सूरज का इंतज़ार

सूरज का इंतज़ार

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आज अपने बच्चे को खेलता देख अचानक से मुझे गुज़रे कल के वो लम्हे याद आ गए जो कहीं किसी कोने में सहेज के रखे थे। बेटे के गिरने से उसे जो चोट लगी वो बस एक माँ ही महसूस कर सकती है।यही सोच के मुझे महसूस हुआ के हम माँ -बाप के बिना बचपन को महसूस भी नहीं कर सकते।फिर वो बच्चे जिनके माँ -बाप बचपन में ही उन्हें अकेला छोड़ देते हैं या किसी कारण वश बच्चे अनाथ हो जाते हैं ,कैसे जीते होंगे।ये सोचते सोचते मेरी आँखों में सूरज का चेहरा एक छवि की तरह सामने आ गया और आँखों में आँसू अपने आप आ गए।मैं जब भी सूरज के बारे में सोचती हूँ तो आज भी मेरी आँखे आंसुओं से भर जाती हैं ,वो दिन, वो पल याद आ जाता है जब मैं उससे मिली थी।

23 जनवरी 2009 की बात है, मैं बहुत ज्यादा खुश और उत्साहित थी , होना ही था पहली बार ऐसा लगा जैसे कुछ बहुत ही अच्छा काम करने का मौका मिला है। मुझे और बाकि सब ऑफिस वालों को ये बोला गया था कि, आपके पास आपके जितने भी पुराने ऐसे कपड़े हों जो आप नहीं पहनते हैं किसी भी वज़ह से ,वो सभी कपड़े अच्छे से धोकर रख लेना|हम एक अनाथालय जायेंगे और वहां इन कपड़ो को डोनेट मतलब दांन करेंगे।सुनकर अच्छा लगा की ये तो सच में बहुत अच्छा होगा,लेकिन साथ ही साथ ये भी महसूस हुआ के हमारा ये योगदान उन बच्चो के लिए जो अनाथालय में रहते हैं बहुत् ही तुच्छ है| 

खैर ये सब सोचते सोचते मेरा ग़ाज़ियाबाद से दिल्ली मेरे ऑफिस तक का सफर कब ख़त्म हो गया पता ही नहीं चला।


ऑफिस पहुँच कर देखा तो पता चला मेरी ही तरह और सभी लोग भी बहुत उत्साहित थे,अच्छा लगा देख के सबकी एक्ससाइटमेंट को। 

अभी हम सब एक दूसरे से बातें करने की सोच ही रहे थे के सर की आवाज़ आई - "आल सेट", चले। हमने भी सिर हिला के अपना जवाब हाँ में दे दिया और निकल पड़े हम सब एक साथ कैब में बैठ के "दीपाल्या" के लिए ,ये उसी अनाथालय का नाम था, जिसकी तैयारी हम सब काफी दिनों से कर रहे थे।

हमारी कैब जैसे जैसे दीपाल्या के लिए आगे बढ़ रही थी उसी तेज़ी से मेरे मन में ख़यालों के परदे ना जाने किस उधेड़बुन में थे, हर पल बस एक ही सवाल था मन में- कैसे रह लेते हैं बच्चे बिना माँ -बाप के,कैसा होता होगा इन बच्चों का जीवन,कैसा गुजरता होगा इनका बचपन,कौन सोचता होगा इन बच्चों के भविष्य के बारे में।

भगवान ऐसा कैसे कर सकते हैं मासूम से बच्चों के साथ, मैं तो कभी सपने में भी नहीं सोच सकती की मैं कभी अकेले रह पाऊँगी बिना माँ -बाप के। अभी ये सारे ख़याल मन में चल ही रहे थे की, बानी ने मुझे हिला के पूछा ,ओये सजल कहाँ बिजी हैं, चल, नीचे उतरना हैं हम आ गए।

हम सब नीचे उतरे और अभी हम "दीपाल्या" के गेट तक पहुँचे ही थे के हमने देखा एक छोटा बच्चा हम सभी लोगों को देख कर भागता हुआ अंदर गया ,और साथ ही चिल्लाया भी - " बरखा दीदी देखो कौन आया है ,बहुत सारे लोग आये हैं क्या ये सब लोग मुझसे मिलने आये हैं ", उसकी इतनी प्यारी आवाज़ थी के मैं आज तक नहीं भूल पाइ।

हम सभी लोग अंदर पहुंचे तो देखा दरवाज़े पर अनुज सर की उम्र का एक बंदा २ मैडम लोगों के साथ खड़ा था, शायद हमारे इंतज़ार में .. जब हम सब एक साथ दरवाज़े तक पहुंचे तो हमारे बॉस अनुज सर ने हमें "दीपाल्या" के ओनर /मालिक विजय सर और दोनों मैडम से मिलवाया।

विजय सर ने अपनी टीम के साथ हमारा बहुत अच्छा स्वागत किया, ऐसे लगा जैसे हम सब वहाँ के "गेस्ट ऑफ़ हॉनर" हैं, मैंने ये बात हंसी हंसी में बोल भी दी तो एक मैम ने ज़वाब दिया के हमारे लिए हर वो इंसान जो अपना कीमती समय निकाल कर हमारे बच्चों से मिलने और उनका हौसला बढ़ाने आता है वो "गेस्ट ऑफ़ हॉनर" ही है।

सुनकर लगा के हमारा यहाँ आना इन बच्चों के लिए इतना ख़ास है, थोड़ा अच्छा लगा के चलो ऑफिस के साथ से ही सही कुछ तो अच्छा किया पहली बार, पर फिर सोचकर बुरा भी लगा के सच ही तो कह रहीं हैं ये किसके पास टाइम होता है, कौन देता है अपना टाइम, मैं खुद के बारे में सोचूं अगर तो मैं भी कितनी बार आई हूँ यहाँ ,जो किसी और को ये बोलू कि लोगों को एक बार ऐसे भी किसी को अपना समय देना चाहिए।


ये सब सोचते सोचते मैंने अपने कदम धीरे धीरे दीपाल्या के अंदर बढ़ाये और कोशिश की, कि अब बिना ज्यादा सोचे मैं बस इन बच्चों को देखूं और इन्हे समझूँ , हर तरफ घूम कर देखा काफी अच्छा बनाया था इन लोगों ने दीपाल्या को, काफी सारे कमरे थे । बहुत अच्छे तरीके से बच्चों के बिस्तर और पढाई के लिए मेज़ कुर्सियाँ लगी हुई थीं, यही नहीं विजय सर ने बताया के कई बच्चे हैं जो कंप्यूटर में बहुत अच्छी रूचि रखते हैं, इसलिए उनके लिए एक बहुत ही अच्छा सा कंप्यूटर लैब भी बना था। हमने पूछा के बच्चे कंप्यूटर पे कैसे सीख रहें हैं कौन पढ़ाता है उन्हें, इस पर विजय सर ने अनुज सर की तरफ इशारा करते हुए वो बात बताई, जो हमें अपने खड़ूस अनुज सर के बारे में मालूम ही नहीं थी , जी हाँ पहली बार पता चला के अनुज सर का कंप्यूटर लैब बनाने में बहुत बड़ा कॉन्ट्रिब्यूशन था, अनुज सर खुद और अपने कुछ दोस्तों की सहायता से इन बच्चों को यहाँ कंप्यूटर पढ़ाने आते हैं और जब इन्हे टाइम नहीं मिलता तो ये किसी ना किसी को भेजकर ये काम करते हैं। 

इसके लिए कई बार कुछ टीचर पैसे भी लेते हैं और कुछ बिना पैसे के ही पढ़ाते हैं। हम सब ने अनुज सर का ये रूप पहली बार देखा और जाना था, तो थोड़ा सदमे में होना तो जायज़ था, पर इसी के साथ हम कई लोगों ने ये भी तय किया के अब इस मिशन में हम भी सहयोग करेंग., जैसा हो सकेगा, जितना हो सकेगा, सब करेंगे।

आज का दिन मेरे लिए धीरे धीरे एक ऐसे डिब्बे सा हो गया था, जिसमे से हर पल कुछ नया निकल कर आ रहा था,अच्छा अनुभव मिलने वाला था । विजय सर ने फिर से एक झटका दिया- अनुज सर के बारे में फिर से एक बात पता चली , वो ये की अनुज सर का एक बचपन का दोस्त था जो इनके पड़ोस में रहता था, उसके पेरेंट्स के गुजरने के बाद वो जब अनाथ हो गया तो उसकी मदद किसी ने नहीं की। यहाँ तक के अनुज सर के पेरेंट्स ने 12 वीं तक उनके दोस्त की पढाई का खर्च तो उठाया लेकिन उनके दोस्त को अपने घर में जगह नहीं दे पाए, इसकी क्या वजह थी ये अनुज सर को भी पता नहीं थी, इसलिए उनके दोस्त एक अनथालय में रहकर पढ़े और बड़े हुए।

लेकिन अनुज सर ने बताया के उनके उस दोस्त को अनुज के माता- पिता का पढाई के लिए खर्च उठाना ही एक बहुत बड़ा उपकार लगता है । अनुज सर और उनके दोस्त ने मिलकर ये निर्णय लिया के जब वो लोग अपने पैरों पे खड़े होंगे, तो वो एक अनाथालय खोलेंगे और उसमें रहने वाले हर बच्चे को एक अच्छा भविष्य देंगे।

ये अनाथालय उनके दोस्त और विजय सर ने मिलकर खोला हैं और यही नहीं अनुज सर और उनके कुछ 5 दोस्त हैं जो सिर्फ दीपाल्या के लिए ही नहीं बल्कि और भी कई अनाथालय को सपोर्ट करते हैं। ये सब सुनकर हम सबने आश्चर्य चकित होकर अनुज सर की तरफ देखा तो अनुज सर थोड़ा असहज़ महसूस करते हुए दिखाई दिए । शायद अनुज सर को आदत नहीं है, अपने बारे में ज्यादा अच्छा सुनने की।

इतने में विजय सर ने हमसे कहा के हम सबको चल कर हॉल में बैठना चाहिए , बच्चों ने बड़े मन से हमारे लिए कुछ खास तैयारियां की हैं, कुछ प्रोग्राम्स रखा है, जैसे के एक नाटक जो की आज़ादी की कहानी पे आधारित है और डांस , लोक गीत और भी बहुत कुछ।

हम सब हॉल की तरफ बढे, जिसे जहाँ जगह मिली वो वहीँ बैठ गया। मुझे हॉल के दरवाज़े के पास जगह मिली तो मैं भी वहीँ बैठ गई ,वहां से बाहर की तरफ का रास्ता भी दिख रहा था सो मैं खुश थी के मुझे सबसे सही जगह मिल गई है, मैं यहाँ से पूरा दीपाल्या एक नज़र घुमा कर देख सकती थी और साथ में ही बच्चों का प्रोग्राम स्टेज भी अच्छे से दिख रहा था। दरअसल मेरी नज़रें अभी भी किसी को खोज़ रहीं थी, ये कोई और नहीं वही छोटा बच्चा था जिसे मैंने गेट से अंदर की तरफ भागते हुए देखा था।

विजय सर ने अपने अनाथालय के सभी बच्चों और सदस्यों से मिलवाया था, पर कुछ बच्चे अभी भी शर्मा कर कहीँ छुप कर हमें देख रहे थे पर सामने नहीं आ रहे थे। ऐसा इसलिए था के बच्चों से मिलने जो लोग आते भी थे वो अक्सर या तो बहुत दिनों के अंतराल पर आते या फिर बहुत कम संख्या में आते।

फिर भी इन सबसे मिलकर भी मैंने इनमे उस बच्चे को नहीं देखा था जो हमे गेट से अंदर की तरफ जाता हुआ दिखा था। इस सब के बीच बच्चों ने अपने अपने तैयार किये हुए कार्यक्रम दिखाए ,देखकर लगा के ये बच्चे कितने प्रतिभाशाली हैं । अभी बच्चों का कार्यक्रम चल ही रहा था के इतने में मेरे कानों में एक आवाज़ आई - "दीदी जाने दो ना प्लीज, एक बार देख के आ जाऊं", मैंने देखा के ये वही बच्चा था, जो बाहर था जब हम आये थे।

फिर मेरी नज़र उस लड़की पर गयी जिसने उस बच्चे का हाथ कसके पकड़ा हुआ था , मानों जैसे वो बच्चा किसी गलत बात की ज़िद में हो। मैं उस लड़की के पास गई तो मुझे देख कर वो बच्चा उस लड़की के पीछे छिप गया ,जैसे उसने मुझे नहीं किसी डरावनी चीज़ को देख लिया हो।

मैंने अपना परिचय देते हुए उस लड़के और लड़की से बात करना शुरू की, उनकी बातों से पता चला के लड़के का नाम सूरज और लड़की का नाम बरखा है। बरखा ने जैसे ही मुझे नमस्ते करने के लिए हाथ बढ़ाया, सूरज अपना हाथ छुड़ाकर बाहर गेट की तरफ भाग गया , बरखा ने ज़ोर से चिल्लाते हुए कहा - "गेट खोल कर बाहर मत जाना , सूरज की आवाज़ आई नहीं जाऊंगा दीदी"।

मैंने बरखा से बात करना शुरू की तो पता चला के बरखा देख नहीं सकती। थोड़ी ही देर में हमारे बीच अच्छी बातें शुरू हो गईं, फिर मैंने बरखा से सूरज के बारे में पूछा तो उसने जो मुझे बताया वो सुनकर मानों मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गयी हो।

बरखा ने बताया - "दीदी सूरज जब यहाँ आया था तो सिर्फ ३.५ साल का था, वो भी उसे यहाँ उसके किसी पड़ोसी ने पहुँचाया था, उसके माँ -बाप एक कार एक्सीडेंट में गुजर गए थे। दीदी आपको पता है, शुरू शुरू में वो अक्सर गेट के बाहर भाग जाता था। जब ये यहाँ आया था तो ये बेहोश था और इसे काफी जग़ह पर चोटें लगीं थीं, जो इंसान इसे लेके आया था उसने हमें बताया की सूरज भी उसी कार में था जिसमे उसके माता- पिता का एक्सीडेंट हुआ, लेकिन ये सूरज का दुर्भाग्य था कि वो ज़िंदा बच गया और उसके माता- पिता नहीं बचे, उन्होंने ये भी बताया के सूरज एक बहुत ही बड़े घर/ खानदान का लड़का है, काफी अमीर लोग थे, पर उसके माँ- बाप के जाते ही सबने इसे दरकिनार कर दिया और हर रिश्तेदार को सिर्फ सूरज के पापा की प्रॉपर्टी चाहिए, लेकिन सूरज नहीं चाहिए।

इसीलिए सभी रिश्तेदारों ने ना जाने क्या जतन किया के सूरज को भी मरा हुआ घोषित करवा दिया और उसकी प्रॉपर्टी पे हक़ जता रहे हैं। ये बात हमें उसी पडोसी से पता चली,जो सूरज को यहाँ छोड़ने आया था।

सूरज के पापा उस बन्दे के अच्छे दोस्त थे, इसलिए उसने सोचा की सूरज के लिए यही ठीक है के वो किसी अनजान जगह रहे। इसलिए उन्होंने इसे ,अनाथआश्रम में भेजना ठीक समझा क्यूँकि शायद वो किसी और के साथ रहता तो उसकी ज़िंदगी खतरे में ही रहती.. सुनकर लगा के पैसा प्रॉपर्टी कितनी बड़ी चीज़ हो जाती है, के ये इंसानियत को भी बिकाऊ बना देती है,खैर नया क्या है रिश्तेदार भी कभी किसी के सगे होते हैं भला जो सूरज के सगे होते। 

बरखा ने बताया, दी ये इतना कमज़ोर और बीमार था जब आया था, फिर भी जब भी उठता तो अपने माँ- पापा को ही याद करता ,हर पल उन्ही को खोजता, उनके पास जाने के लिए रोता रहता था। जब कोई उसे समझाने की कोशिश करता कि अभी आराम करो या सो जाओ, कल चलेंगे आपके माँ के पास तो वो ज़ोर ज़ोर से रोता और रोते रोते ही सो जाता।

फिर जब भी उठता तो फिर से वही सब शुरू कर देता। धीरे धीरे जब इसकी तबियत ठीक होने लगी तो इसने यहाँ आश्रम से भागना शुरू कर दिया ,रोज़ ये गेट के पास जाकर बैठ जाता और जैसे ही कोई आता या जाता, ये फ़ौरन गेट के बाहर भागने की कोशिश करता और आपको पता है दीदी विजय सर बताते हैं के ये कोशिश इसने लगातार 17 दिनों तक की।

फिर विजय सर ने थक हार कर इसको एक झूठ बोल दिया, ये सोचकर कि शायद इस झूठ के सहारे धीरे धीरे हम इसे ये समझा पाएंगे कि इसके माँ- पापा अब कभी लौट कर नहीं आएंगे।

क्यूंकि हम सब में से कोई भी उस वक़्त तक सूरज को ये नहीं समझा सकता था कि मरना क्या होता है, किसे कहते हैं और उसके माँ पापा कहाँ हैं उन्हें क्या हुआ है,वो कहाँ चले गए, जहाँ से वो अब कभी भी वापस नहीं आएंगे, जब भी किसी ने उसे ये समझाने की कोशिश की तो वो सूरज के सवालों से इस क़दर घिर गया कि जिसका कोई जवाब ही नहीं था उसके पास।

जानती हैं दीदी उस वक़्त तो विजय सर को भी नहीं मालूम रहा होगा के उनका बोला हुआ वो झूठ सूरज के लिए कभी ना ख़त्म होने वाला एक इंतज़ार बन जाएगा..

मैंने बरखा को बीच में ही टोक दिया- ऐसा क्या झूठ बोल दिया विजय सर ने? बरखा ने जवाब दिया के विजय सर ने सूरज को कह दिया - उसके माँ पापा ने उनसे कहा है कि वो जल्दी ही अपने बेटे सूरज को लेने आएंगे, इसलिए सूरज को कहियेगा कि वो यहीं हमारा इंतज़ार करे और तब से लेके आज तक सूरज हर रोज़ सुबह उठने के बाद से रात के सोने तक गेट पे खड़ा रहता है अपने माँ पापा के इंतज़ार में, दीदी कई बार तो ऐसा भी हो चूका है के इस इंतज़ार के चक्कर में वो बीमार पड़ गया है। 

मुझे याद है के सभी उसी की बातें करते थे , क्योंकि वो हर किसी से यही पूछता था- उसके पापा उसे यहाँ अकेले छोड़ कर क्यों चले गए, शुरू शुरू में तो वो अंदर कुछ खाने भी नहीं आता था,कहता था के अगर मैं अंदर गया और उस बीच में कहीं मम्मी- पापा आ गए और मुझे नहीं देख पाए गेट पर तो वो मुझे ढूढेंगे और वापस ना चले जाये बिना मुझे अपने साथ लिए। 

इस चक्कर में वो काफी कमज़ोर हो गया था, फिर विजय सर मोरी भइया (नौकर) को लेके आये और सूरज को कहा के जब भी तुम अंदर खाना खाने या किसी भी काम से जाओगे तो , ये मोरी भैया ध्यान रखेंगे के गेट पे कौन आया और जो भी आएगा उसे रोक के रखेंगे तुम्हारे वापस आने तक...दीदी आपको पता है, सूरज ने हर मौसम में बस इंतज़ार ही किया है ,चाहे कितनी बारिश हो, धुप हो, ठण्ड हो. . उसने कभी भी इंतज़ार करना बंद नहीं किया. .

इस इंतज़ार ने उसे बहुत बार बहुत ज्यादा बीमार भी कर दिया ,तेज़ बारिश में उसने बिना छतरी के भीगते भीगते इंतज़ार किया है, फिर जब बीमार पड़ा तो छतरी लेकर बैठने लग गया गेट के पास। लेकिन उसने कभी इंतज़ार करना नहीं छोड़ा। तेज़ ठण्ड और कड़ी धुप में वो कितनी बार वहीँ बाहर गेट के पास ही इंतज़ार करते करते सो जाता और कोई ना कोई उसे अक्सर अपनी गोद में लेके अंदर आता।

बस तब और अब में एक ही फर्क पड़ा है, वो ये कि अब ये रात में 9 बजे तक खुद ही अंदर आ जाता है। किसी को इसे गोद में उठाकर लाना नहीं पड़ता। पता है दी, विजय सर कई बार ये कहते हैंकि सूरज को देख के बहुत रोना आता है, बहुत तरस आता है उसपे, कि भगवान् ने इतने छोटे से बच्चे के साथ ऐसा ज़ुल्म क्यों किया, अगर इसके माँ पापा को इससे हमेशा के लिए अलग करना था, बहुत पहले कर देते ताकि इसे उनसे जुड़ना और उनके बारे में कुछ भी याद ना होता और ये उनका इस क़दर इंतज़ार ना करता, हम तो इसके लिए किसी नए को लाकर ये भी नहीं कह सकते की बेटा ये तुम्हारे मम्मी- पापा हैं, क्यूंकि इसे अपने माँ- पापा बहुत अच्छे से याद हैं।

पता नहीं इसका ये इंतज़ार कब ख़त्म होगा और कैसे ख़त्म होगा?

दीदी मुझे पहले भगवान पे बहुत गुस्सा आता था कि उन्होंने मुझे आँखे तो दी पर इनमे रौशनी नहीं दी, मगर अब मैं उसी भगवान का शुक्रिया करती हूँ के मैं अंधी हूँ, कम से कम मुझे सूरज को इस तरह नहीं देखना पड़ रहा ,आज मैं उसका इंतज़ार सिर्फ महसूस कर सकती हूँ, लेकिन बाकि सब के लिए उसे इस तरह इंतज़ार करते देखना सभी को बहुत दुखी कर देता है। अच्छी बात ये है के सूरज अब मेरी बातें ज्यादा ही मानता है और अच्छे से मानता है इसलिए मुझे ये लगता है कि अब धीरे धीरे मेरे और बाकि सब के लिए उसे कुछ भी समझाना इतना मुश्किल नहीं होगा और शायद जल्दी ही वो दिन भी आ जाये, जब सूरज का इंतज़ार ख़त्म हो जाये। 

मैं बस बरखा की बातें सुनती रही और कुछ भी कह ना पाई ,बस ये सब सुनकर लगा के क्या ऐसा भी हो सकता है, किसी का इंतज़ार कभी ख़त्म ना होने वाला।

इतने में पीछे से मुझे अनुज सर ने आवाज़ दी -"सजल कहाँ बिजी हो और बरखा से क्या बातें हो रही हैं, बरखा बेटा कैसी हो आप?" मैंने उनकी तरफ देख कर कहा -कुछ नहीं सर, बरखा मुझे सूरज के बारे में बता रही थी। सर ने मेरी तरफ देखा और कहा - "सूरज बच्चा ही ऐसा है के, जब भी कोई उसके बारे में सुनता है तो उसकी भी वही प्रतिक्रिया होती है जो तुम्हारी है ",

ये कहकर उन्होंने बरखा को अंदर भेज दिया,और मुझसे पूछा- कहाँ है सूरज?

मैंने कहा वहीँ गेट पे, उन्होंने कहा - फिर से।

मैंने भी हाँ में सिर हिला दिया। अनुज सर ने बताया कि पहली बार जब विजय ने मुझे उसके बारे में बताया था, तब मैं और विजय दोनों ही रो पड़े थे ,बहुत दर्द है इस बच्चे के इस इंतज़ार में, ये बस इस मासूम को नहीं पता कि ये जिनका इंतज़ार कर रहा है, वो कभी लौट कर नहीं आने वाले।


ये कहकर वो सूरज से बातें करने गेट पे चले गए ,मैंने सूरज और अनुज सर को एक साथ देखा और मुझे महसूस हुआ के आज का ये दिन मेरे लिए एक ऐसा अनुभव लेकर आया है, जो मुझे बहुत बड़ी सीख दे रहा है। साथ ही मुझे ये महसूस हो गया कि ये आज का दिन मुझे कभी भूलेगा भी नहीं और ना ही भूलेगा सूरज का कभी ना ख़त्म होने वाला इंतज़ार।

पहला अनुभव जिसने मुझे ये सिखाया- आपके सामने जो भी है, जैसा भी है, उसके बारे में बिना पूरी तरह जाने एक तरफा निर्णय कभी मत लीजिये, क्यूँकि इस अनुभव से मुझे एह्सास हुआ कि हर सिक्के के दो पहलु हैं, एक जो आपको दिखता है आपके सामने है और दूसरा जो आपके सामने नहीं है या जो आपको दिखता नहीं है।

आज मैंने अनुज सर का एक अलग व्यक्तित्व देखा, जिसके बारे में मैं क्या पुरे ऑफिस में शायद ही कोई जानता रहा होगा यहाँ आने से पहले, नहीं तो अब तक हम सब एक ही अनुज को जानते थे जो कि बहुत ही खड़ूस इंसान थे।

दूसरा अनुभव इस बात का, कि हमारे लिए कोई भी बात छोटी सी क्यों ना हो, हम उसे बहुत बड़ा मान लेते हैं। मगर क्या इस दुःख से बड़ा कोई दुःख , कोई दर्द हो सकता है, जो सूरज का था ,क्या कर सकता है कोई इस क़दर इंतज़ार किसी का? वो भी उनका जो कभी लौट कर नहीं आने वाले।

आज सच में महसूस हुआ कि "दुनिया में कितना ग़म है,अपना ग़म फिर भी कम है"। सच कहूं तो सूरज को देखकर मैंने महसूस किया कि मेरे पास भगवान् से शिकायत करने के लिए कुछ भी नहीं है। मैं आज दिल से भगवान की शुक्र गुज़ार थी के मुझे उसने एक बहुत ही खूबसूरत जीवन दिया है ।

आज फिर एक बार सूरज की कहानी याद करते हुए मैं भगवान् को दिल से शुक्रिया कर रही थी और फिर से एक बार मैंने यही प्रार्थना की के किसी भी बच्चे को भगवान् ऐसा बचपन मत देना जो आपने सूरज को दिया। 


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