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Lakshmi Mittal

Abstract

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Lakshmi Mittal

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सूखी तुलसी, तेरे आंगन की

सूखी तुलसी, तेरे आंगन की

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रोज़ भांति आज भी जब उसकी आँख खुली, उसने आकाश को आईने के सामने बाल संवारते पाया। स्याह पतलून, सफेद कमीज़ और कमीज़ पर टंगी रंगीन धारीदार टाई, उफ्फ!! सब कुछ कितना फब रहा था उस पर!

मन ही मन नज़र उतारती, वह मुस्कुराने को मजबूर हो उठी।

"गुड मॉर्निंग!! ...कैसा लग रहा है आज?"

आकाश के प्रश्न के उत्तर में वह केवल मुस्करा भर दी।

आकाश भी मुस्कुराता हुआ, टाई की नॉट ठीक करता, कमरे से बाहर आ गया।

हितेषा भी, एक हाथ कमर पर तो दूसरा, बिस्तर के बगल में रखे स्टूल पर टिकाते हुए उठ खड़ी हुई। दीवार का सहारा लेते हुए चार कदम आगे बढ़ी ही थी कि उसकी नजरें सामने लगे आईने से जा टकराई। 

रूखे-सूखे, यत्र-तत्र सफेदी झलकते लंबे केश, बेजान दिखता चेहरा, दिन-प्रतिदिन पांव पसारते आँखो के नीचे के काले घेरे...उदास मन ने उदासी की एक तह और ओढ़ ली।

शादी के वक्त वह, आकाश से सुंदरता में इक्कीस थी मगर बीते दो बरस में ही उन्नीस होकर रह गई है।

साल भर पहले तक भी उसकी तकलीफें काफी हद तक उसके नियंत्रण में थीं लेकिन जब से दर्द ने कमर के साथ घुटनों को भी अपना शिकार बनाना आरंभ किया है, अवसाद उसे जकड़ता ही जा रहा। 

स्टूल पर जची, दवाइयों का भंडार उसे दर्पण में देख, मुँह चिढ़ाता प्रतीत हुआ और वह नम आँखें लिए, दीवार के सहारे चलती, बैठक में आ बैठी।

"ऑफिस से जल्दी निकलकर, विनीता के यहाँ से होता हुआ आऊँगा...नताशा की बर्थडे पार्टी है...तुम अच्छे से आराम करना...केक कटिंग वक्त, वीडियो कॉलिंग कर लूँगा।" परांठे का आखिरी कोर मुँह में डाल, आकाश हॉल कमरे के कोने में बने शू रैक की ओर बढ़ चला।

"रामदीन मेरे ब्राउन जूते नहीं दिख रहे!"

"तला टूट गया है उनका साहब। अभी तो उन्हें मैंने बाहर बरामदे में रख दिया है, थोड़ी देर में जाकर गठवा लाऊँगा।"

"कुछ वक्त पहले ही तो गठवाया था इन्हें! अब फिर से!!"

 "साहब, तब केवल बाएं जूते का तलवा खुला था, मगर अब तो बाएं, दाएं दोनों का तलवा ढीला हो गया है।"

"खैर, अब जब वे बार-बार तंग कर रहे, तो उन पर और खर्चा करने का कोई तुक नहीं बनता...फैंक ही दो अब इन्हें। आखिरकार, हर चीज की एक्सपायरी डेट आती ही है, इनकी जल्दी आ गई तो क्या किया जाए...वैसे लिया तो इन्हें अपनी शादी में ही था।" आकाश, रामदीन की ओर मुखातिब होकर बोला।

हालांकि आकाश तो दूसरी जोड़ी पहनकर ऑफिस चला गया मगर हितेषा के जेहन में अभी भी उसके कहे शब्द, हथौड़े भांति बज रहे थे।

इससे पूर्व कि रामदीन, बाहर बरामदे में पहुँच, जूते कूड़ेदान के हवाले करता, वॉकर का सहारा लिए हितेषा, लगभग हांफती सी, वहाँ पहुँच गई। उसने, आव देखा न ताव, जूते अपनी छाती से सटाए और उन्हें घर के भीतर ले आई।


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