जिंदगी धुआँ धुआँ
जिंदगी धुआँ धुआँ
होलिका दहन हो चुका था। थोड़े-थोड़े अंतराल में उठती अग्नि लगभग शांत होने के कगार पर थी, मगर, उसका हृद्ध्य अभी भी बेटे द्वारा सुलगाई अग्नि में धू-धू करके जल रहा था।
चंद कागज़ के पन्नों पर बेटे के अधजले फेफड़ों के लेखे-जोखे ने उसे बुरी तरह से झकझोर दिया था।
"आ गए आप पिताजी... देर कै..से हो.. गई?" जवान बेटे ने खांसते हुए पूछा।
बेटे की बात अनसुनी कर उसने, होलिका दहन में सेककर लाई गेहूं की बालियों को सामने मेज पर रखा और पानी का गिलास उठाकर बेटे के हाथ में थमा दिया।
घूंट-घूंट भरते हुए बेटा, बालियों का अवलोकन करने में व्यस्त था।
"ये क्या पिताजी! ये तो... सारी ज..ल..!!" उसकी कही बात पूरी होती, इससे पूर्व ही खांसी पुनः उसे दोहरा करने पर उतारू थी।
"न रे..!! जिस हिसाब की अग्नि भड़की थी, उस हिसाब से तो बहुत कुछ बचा रह गया।" दराज में से सिरप निकालते हुए उसने अपनी बात जारी रखी।
"..यह तो भला हो उन नौजवानों का, जिन्होंने कुछ लकड़ियां समय रहते परे सरका दी। ताप कम हुआ तो कुछ बालियां राख होने से बच पाई वरना..।"
"मगर राख हुई बालियों ने अपनी महक तो छोड़ ही दी.." सिरप गटकते हुए बेटा बोला।
"महक है, वक्त के साथ चली जाएगी..!"कहते हुए उसने जली बालियों को साफ बालियों से अलग करके रख दिया।
फल व दवाई, बेटे के सम्मुख कर, वह दरवाजे की ओर बढ़ चला।
बाहर होलिका दहन की बुझी अग्नि धुएं में तब्दील हो चुकी थी।
पिता को किवाड़ बंद करते देख बेटा एकाएक बोल उठा,
"दरवाजा खुला ही रहने दें पिताजी...भीतर आता धुआँ सुखद लग रहा.."
बेटे की बात के जबाव में उसने तेज़ी से किवाड़ बंद किए और मन ही मन बुदबुदाया,
"बहुत भर लिया धुआँ भीतर...अब भीतर, और धुआँ भरता देखने की मुझमें गुंजाइश नहीं बची।"