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Lakshmi Mittal

Inspirational

4.7  

Lakshmi Mittal

Inspirational

गुलज़ार मन

गुलज़ार मन

2 mins
201


उदासीनता से भरे कमरे में, कदमों की चाप, सुनयना देवी के उदासीन पलों में उजाला सा भर देती। पूरे दिन में यह आहट उन्हें दो ही बार सुनाई पड़ती। सुबह ग्यारह बजे, जब उनका दलिया खाने का वक़्त होता और फिर शाम को डिनर के वक्त। उस समय भी उन्हें या तो दलिया या फिर खिचड़ी ही परोसी जाती .. और जिस दिन दो बार से ज़्यादा बार, क़दमों की चाप उनके कानों में पड़ती तो वह दिन उनके लिए अति अहम दिन होता। उस दिन, अधिकतर ऑफ़िस काम से बाहर रहने वाले उनका अतिव्यस्त पोता, घर पर होता मगर फिर भी घर के एक अलग से कोने में बने उनके कमरे में उसका आना – जाना नहीं होता था। 

“अरे अम्मा ! आपने खाना क्यों नहीं खाया ?” पिछली रात और सुबह दिए गए दलिए के कटोरे ज्यूँ के त्यूँ रखे देख, कमला ने सुनयना देवी से पूछा।

“मुझे भूख नहीं थी।” अम्मा ने रूखेपन से जवाब दिया।

“कोई बात नहीं...अब तो भूख लग गई होगी ... यह लो यह खा लो।” कमला चारपाई के बगल में रखी मेज़ पर दूध-खिचड़ी का कटोरा रखते हुए बोली।

“ना कमला ले जा ...मेरी इच्छा नहीं है।” अम्मा के स्वर में पहले के मुकाबले अधिक बेरुखी थी।

बैठक में कंप्यूटर पर नज़रें गड़ाए बैठे, पोते के कानों में कमला व दादी के मध्य चल रहा वार्तालाप सुनाई पड़ा।

“दादी, क्या बात है ...एक तो इस उम्र में तुम्हारी डाईट ही नहीं बची। फिर भी पेट में , जो दो-चार चम्मच दलिया , खिचड़ी के डालती हो, अगर वो भी नहीं डालोगी तो कैसे गुज़ारा होगा।” पोता, खिचड़ी से भरा चम्मच दादी के मुहँ की ओर ले जाते हुए बोला। 

दादी ने दूसरी ओर मुहँ फेर लिया। पोते ने चम्मच वापिस कटोरे में रख दिया और फिर दादी से मनुहार करते हुए कहने लगा , 

“निश्चय ही, कमला, अब खाना स्वादिष्ट नहीं बना रही है।” 

“ऐसी बात नहीं है .... उसके बनाए खाने में तो कोई अंतर न है लेकिन शायद मेरे ही मुँह का ज़ायका ख़राब हो गया है या फिर मेरी भूख ही.. मर गई है।” पोते के चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों में लेकर स्नेह लुटाती दादी ने भीगी पलकों से कहा।

पोता, कभी दादी की सूनी आंखें तो कभी कमरे का सूनापन निहार रहा था। 

अगले ही पल, दादी की चारपाई बैठक में थी। अब दोनों वक़्त दादी की खिचड़ी का कटोरा ख़ाली होता था।


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