सुख
सुख
मही, कन्याकुमारी में, समंदर के किनारे बैठी थी। समंदर की लहरें, पूरे वेग से उछलती और नन्ही नन्ही बूंदें चेहरे को भिगो जाती---तेज चलने वाली वायु चेहरे पर बालों की लटें बिखरा देतीं।
सुरम्य वातावरण में खोने के बावजूद, मन मे उठ रही ज्वार-भाटे सम लहरें, उसे कभी पीछे खींच अतीत की ओर ले जाती तो कभी विचारों की कोई वेगवान लहर, वर्तमान से लेकर भविष्य की सैर करा देती।
पति के गुजर जाने के बाद, पहली बार वो घूमने निकली थी।
इकलौता पुत्र विदेश में था। बेहद प्रतिभाशाली---
और उसकी प्रतिभा को, देशकाल की सीमा में, जंजीरों में जकड़ने का कोई अर्थ ही नहीं था।
कभी-कभी उसे स्वयं पर भी आश्चर्य होता। अकेले रहना, अकेले के दम पर सब कुछ मैनेज करना, खुश रहना--- शायद उसके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन चुके थे।
शुरू से ही कुशाग्र बुद्धि थी मही, छोटे क्लास से लेकर विश्वविद्यालय तक में टॉप करते रहना, कर्म के साथ साथ भाग्य में भी लिखा कर लाई थी।
आई. आई. टी टॉपर, अच्छा प्लेसमेंट, बस आगे और आगे---
शादी भी समकक्ष पढ़ाई में अद्वितीय, कुशाग्र से हुई। शादी के बाद 2 वर्ष जैसे पंख लगा कर उड़ गए, फिर पता चला वो मां बनने वाली है।
परिवार तो बनना ही था, पर एक मिनट अवाक सी रह गई मही।, समझ में नहीं आ रहा था कि खुश हो कि नहीं--
वो शुरू से ही कैरियर माइंडेड लड़की रही थी।
सोचकर देखा तो लगा 7-8 महीने तो ऑफिस जा ही सकती है।
फिर सबैटिकल लीव ले लेगी। बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाएगा तो फिर जॉइन कर लेगी।
माँ जी! तुम्हारे बच्चे जीयें--- की आवाज़ ने उसे पुनः सोच की अवस्था से वर्तमान में ला पटका।
सामने एक दिन हीन महिला, कटोरा हाथ में, गोद मे बच्चा उठाये खड़ी थी। यूं तो वो इस तरह भिक्षा देने वालों के सख्त खिलाफ थी, पर उस की गोद के बच्चे पर नज़र डाल, उसका हाथ पर्स पर पहुँच गया, हाथ में 50 का नोट आया, वो उसके कटोरे में डाल, उसके द्वारा दी गई आशीष को सुन पुनः सोच के बिखर गए सूत्र को संभाल विचारों में गोता लगा गई। हल्का अंधेरा घिरने लगा था।
बेटा हुआ था उसे, प्यारा सा--- पर फिर कब जॉइन कर पाई?
बच्चे के प्रबल आकर्षण में बंधी वो उसको क्रैश में रखने के ख्याल मात्र से कांप जाती।
कितना भोला था उसका विवेक--
एक दिन कंपनी से फ़ोन भी आया था, कब जॉइन कर रही हैं?
साथ में सिंगापुर डेपुटेशन का ऑफर भी। कुशाग्र ने कहा भी तुम जॉइन कर लो सब कुछ मैनेज हो जाएगा, पर मही की
अंतरात्मा ने मानो गवाही ही न दी।
अब विवेक ही उसका जीवन था, भोला भला विवेक--- मही
और कुशाग्र तीक्ष्ण बुद्धि थे, विवेक भी अपवाद न था।
क्लास दर क्लास टॉप करता गया, और मही और कुशाग्र गर्व से भरते गए।
अब मही को भी अपनी नौकरी छोड़ देने का जरा भी अफसोस न होता।
अपने नाम के अनुरूप ही वो धरती थी, सहनशील, जीवनदायनी,
मां बनते ही अपने में सृष्टि समेटे मही --- कुशाग्र की असामयिक मृत्यु को भी झेल लेती मही।
विवेक को इंजीनियरिंग में कोई रुचि न थी, उसे वैज्ञानिक बनना था। शोध के सिलसिले में अक्सर विदेश ही रहता।
कल उसका फ़ोन आया था। तब वो मुन्नार में थी। विवेक की सरप्राइज विज़िट--- वो चौंक उठी। फिर बताया मुन्नार आई हुई हूँ
कल कन्याकुमारी----
कोई बात नहीं माँ मैं वहीं आ जाता हूँ, और फ़ोन कट--
अब मही की नज़र फिर विवेकानंद रॉक मेमोरियल पर पड़ी
विवेकानंद का इतिहास नजर के सामने था। नरेंद्र नाथ दत्त से एक कुशाग्र बुद्धि बालक के विवेकानंद बनने की कहानी--
पर्स से दूरबीन निकाल उसने मूर्ति पर फोकस किया।
विद्वता, संस्कार, आध्यात्मिकता शांत चेहरा पर मही को उस मूर्ति में कुछ और भी दिख रहा था। मूर्ति के शिल्पकार----
एक मूर्ति में तीन चेहरे, नरेंद्र की मां ,वकील पिता और स्वयं नरेंद्र---,
अद्भुत आभा से दैदीप्यमान चेहरा, फिर मही की नज़र समंदर पर गई ,वो भी कहाँ अकेला था? तीन समंदर का मेल---
बेहद खूबसूरत दृश्य---
फ़ोन बज रहा था। माँ कहाँ हैं आप? उत्तर सुनते ही 15 मिनट के अंदर विवेक हाजिर था।
आते ही चरण स्पर्श कर गले लग गया। उसके हाथ में रोल की हुई एक मैगजीन थी, जिसे उसने माँ के आगे खोल दिया। ओह! मुखपृष्ठ पर विवेक!!!
सर्वोच्च वैज्ञानिक सम्मान से पुरस्कृत -----
वो एक बार पुनः गले लग गया। झिलमिलाती आंखें लिए मही को विवेक के चेहरे में भी, उसके मैगजीन में छपे चेहरे पर भी
तीन चेहरे दिख रहे थे----
विवेक, कुशाग्र, और मही।
जड़ बनने का, पृथ्वी बनने का, अभूतपूर्व सुख-----
क्या कोई अन्य सुख इसका मुकाबला कर सकता था??
