सर्दियाँ और जलते अलाव
सर्दियाँ और जलते अलाव
लगभग तीस सालों बाद दादाजी की ज़िद्द पर हम लोग इन सर्दियों में 4-5 दिनों के लिये एक बार फिर अपने पैतृक गाँव आ गये थे। यहाँ आकर तो दादाजी की सारी बीमारियाँ ही खत्म हो गईं थीं। दादाजी के शरीर में एक नई स्फूर्ति आ गई थी, चाल में तेजी, आँखों में खुशी की चमक और चेहरे पर सुकून साफ झलक रहा था। पूरा गाँव हमारा परिवार जैसा महसूस हो रहा था। सबके लिये दादाजी शहर वाले चाचा, पापा नौकरी वाले भईया और मैं सबका लाड़ला लल्ला। यहाँ आकर समझ आया कि शहर में रहते हुये हमने ऐशो आराम की चीज़ें और पैसे तो खूब कमा लिये थे, पर मानसिक शांति, अपनों का प्रेम और साम्प्रदायिक सद्भावना जैसे गुणों से अंजान रह गये थे।
पूरा दिन गाँव वालों को अपनी कुशल-क्षेम बताने में ही बीत गया। शाम ढलते ही पड़ोस के ताऊजी ने घर के बाहर अलाव जला दिया और लगभग पूरा गाँव ही बरसों के बाद गाँव लौटे दादाजी से बतियाने और अलाव तापने आ बैठा। कुछ औपचारिक बातों के बाद गाँववालों ने अपने बारे में बताना शुरू किया। फिर पुराने दिनों को याद करते हुये बातों का सिलसिला शुरू हुआ।
- "पहले मोबाइल टीवी नहीं था, तब इन अलावों के आसपास खूब भीड़ रहती थी, अब तो सब रजाई में बैठकर फोन चलाते रहते हैं, किसको फुर्सत है कहानी सुनने की।" अलाव ताप रहे गाँव में रहने वाले दादाजी के बड़े भाई ने कहा। "आज से पांच छह साल पहले जब तक मोबाइल जैसे उपकरणों की भरमार नहीं थी तब ग्रामीण क्षेत्रों में सर्दी के मौसम में ये अलाव ही मनोरंजन का माध्यम होते थे। इन अलाव पर ठंड से बचने के साथ-साथ कभी किस्से-कहानियां तो कभी लोक संगीत और आल्हा होते। लड़ाई-झगड़े भी यहीं निपटते और एक दूसरे की मदद भी होती। ग्रामीण फसलों की चर्चा के साथ भुने आलू और शकरकंद का लुत्फ भी उठाते। छह सात साल से अलाव पर किस्से कहने का सिलसिला न के बराबर बचा है। अलाव सिर्फ ठंड से नहीं बचाता था, ये मनोरंजन का भी एक माध्यम था। यहां पूरे मोहल्ले की ख़बरें मिल जाती थीं। अब तो ये नजारा कभी-कभार ही देखने को मिलता है।" इतना कहते कहते उनकी आवाज में आई उदासी साफ महसूस की जा सकती थी।
- "इस ठंड में यह आग ही बुढ़ापे का सहारा है, अलाव पहले भी जलते थे और अब भी, फर्क केवल इतना बचा है कि अब गाँव के नुक्कड़ पर नहीं, अपने दरवाजे पर आग जलाकर ताप लेते हैं।"- दादाजी के एक और दोस्त ये कहते हुए अपनी हथेलियों को आग सेंकने में मग्न थे।
मैनें उनसे पूछा कि क्या पहले भी ऐसे ही अलाव जलते थे? इस पर वो बोले, "अब गाँव में पहले जैसी बात कहाँ बची है? पहले तो रात-रात भर जगकर लोग किस्से-कहानियां सुनते थे। मोहल्ले में एक जगह शाम को सूरज ढलते ही आग जलने लगती थी, धीरे-धीरे लोगों जमावड़ा होने लगता था। लल्ला, भारत के गांव में अलाव वो ठिकाना होता है जहाँ लोग सर्दी के मौसम में इकट्ठे होकर आग जलाते हैं। सीमित संसाधनों के बीच जीवन गुजार रहे लोगों के लिए ठंड से बचने का अलाव ही एक जरिया होता है। पर पिछले कुछ सालों में बढ़ते आधुनिकीकरण की वजह से नुक्कड़ पर जलने वाले अलाव अब दरवाजों तक सीमित हो गये हैं। अगर किसी के घर में फसल आने से पहले अनाज खत्म हो गया तो उसे खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती, अलाव पर ही बातचीत में कोई न कोई उनकी मदद के लिए तैयार हो जाता था। लेकिन लल्ला अब गांवों में भी पहले जैसा भाईचारा नहीं बचा है।"
- जी दादाजी, मैंने किताबों में पढ़ा था, हमारे देश में अलाव की धार्मिक मान्यताएं भी हैं। जैसे ओडिशा में अलाव जलाकर अग्नि पूर्णिमा त्योहार मनाया जाता है जो माघ पूर्णिमा के दौरान फरवरी महीने के बीच में पड़ती है। मकर संक्रान्ति से एक दिन पहले सिख समुदाय के लोग लोहड़ी मनाते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे प्रदेश में यह पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है, इसमें भी अलाव ही जलाये जाते हैं। लोग सूखी लकड़ियों को इकट्ठा करके पिरामिड तैयार करते हैं फिर इसकी पूजा होती है। इस अलाव में तिल के दाने के साथ मिठाई, गन्ना, चावल और फल भी डाले जाते हैं। इसके बाद लोग ढोल की थाप पर भांगड़ा और गिद्दा करते हैं।" - मैंने चहकते हुये कहा।
- "अरे वाह! लल्ला, तुम तो हमारी ग्रामीण परंपराओं और संस्कृति के बारे में बहुत कुछ जानते हो।" - अलाव तापते एक चाचा ने शाबाशी देते हुये कहा।
- "आज से पांच साल पहले तक जब मैं कहानियां सुनाने बैठता तो आस-पड़ोस के बच्चे मुझे घेर कर बैठ जाते थे और घंटों कहानियां सुनते थे। जबसे ये मोबाइल आया है तब से बच्चे पूरे समय मोबाइल में किट-पिट करते रहते हैं। बच्चों को गेम से फुर्सत नहीं मिलती और बड़ों को व्हाट्सएप और यूट्यूब चलाने से फुर्सत नहीं। अब कहानी सुनने का किसी के पास वक़्त ही नहीं बचा है।" - एक और ग्रामीण ताऊजी ने इस बदलाव के लिये मोबाइल को दोषी ठहराते हुये शिकायती लहजे में नई पीढ़ी को ताना देते हुये कहा।
- "सही कहा भैया, लोकगीत और आल्हा गाने वाले पहले हर गाँव में ढेर सारे लोग होते थे। सर्दियों में ऐसे लोगों की बड़ी पूछ रहती थी। हर कोई इन लोगों को अपने मोहल्ले में जल रहे अलाव पर लेकर जाता था। गाँव में ऐसे लोग हैं तो अभी भी लेकिन अब सुनने वालों की संख्या कम हो गयी है जिसकी मुख्य वजह ग्रामीणों को मोबाईल और टीबी लगती है।" - हाथों पर तम्बाकू रगड़ते सफेद दाढ़ी वाले एक और बुजुर्ग ने कहा। उनकी बातों में मोबाईल से चिढ़ साफ-साफ महसूस की जा सकती थी।
मेरे दादाजी ने भी इनकी बात का समर्थन करते हुये कहा, - "इन उपकरणों से जितनी हमारी जिन्दगी आसान हुई है उतना ही भाई-चारा कम हुआ है। अब एक साथ लोग अलाव पर देर तक बैठते ही नहीं हैं। पहले कहानी के शौकीन लोग अपने दरवाजे पर लकड़ी का इंतजाम करके अलाव लगवाते थे। इन कहानियों में आल्हा, राजा-रानियों की कहानियां, परियों की कहानियां, राजा विक्रमादित्य, पंच तंत्र, चार पाई के चार पाँव जैसी तमाम कहानियां रहती थीं। पहले गाँव के नुक्कड़ों पर आग जलाना चलन में था। सर्दी का मौसम शुरू नहीं हुआ अलाव जलने शुरू हो जताए और दो तीन महीने तक जलते रहते। एक अलाव पर तापने वाले हर व्यक्ति की ये जिम्मेदारी रहती वो हर दिन लकड़ियों का इंतजाम करने में सहयोग करे। सभी की मदद से लकड़ी का इंतजाम होता और वो कभी खत्म नहीं होती थी।" - पुराने दिन याद करते ही वहाँ बैठे सभी लोगों की आँखों में हल्की नमी छा गई।
मैं उठकर अंदर आँगन में आ गया। वहाँ भी घर की औरतें अलाव ताप रहीं थीं।
- "हमारे जमाने में रात से ही चकिया पीसने लगते। कटिया मशीन से चारा काटते, देर रात खेतों में पानी लगाते। हर आदमी मेहनत का इतना काम करता था कि सर्दी ज्यादा लगती ही नहीं थी। अब तो चाहें जितने कपड़े पहनो चाहें जितना आग तापो पर ठिठुरन नहीं जाती।" - दरवाजे पर बैठी बूढ़ी दादी ने कहा।
चूल्हे पर रोटी सेंकतीं छोटी काकी ने आग से निकल रहे धुएं से आँख में निकले आंसू पोछते हुए कहा, "बाजरा, ज्वार, तिल और अलसी के लड्डू, सौंठ का गुड़ जैसी कई गर्म चीजें लोग सर्दी के मौसम बनाते थे। मोटा खाते थे, मोटा पहनते थे तभी सर्दी लगती नहीं थी अब वो बात कहाँ बची।"
दूसरे चूल्हे पर सब्जी छौंकती ताईजी बोलीं, - "सर्दियों भर पहले बथुआ के पराठे, सरसों का साग, मक्का और बाजरा की रोटी यही सब बनता था। तब गरीबी थी तो लोग मन से खाते थे अब के बच्चे तो ये सब खाना पसंद ही नहीं करते।"
खाना बनने में अभी समय था तो मैनें फिर से बाहर आकर मेरे दादाजी से पूछा, - "अगर सब सर्दियों में जलने वाले अलाव को इतना याद करते हैं, तो अब लोगों ने इसे जलाना क्यों छोड़ दिया?"
"अब लोग लकड़ी जुटाने में मदद ही नहीं करते, पेड़ कम हुए और लकड़ी महंगी हो गयी इसलिए खरीदकर कोई जला नहीं पाता। सब लोग अपने दरवाजे ही लकड़ी का थोड़ा बहुत जुगाड़ कर लेते हैं। और सबसे मुख्य वजह आज की पीढ़ी में बर्दाश्त करने की क्षमता ही नहीं बची है। अब अगर अलाव पर कुछ लोग इकट्ठा भी हों तो छोटी-छोटी बातों में लड़ाई-झगड़े होने लगते।" - दादाजी ने मुझे समझाते हुये कहा।
तभी एक और शिकायती स्वर हवा में गूँजा, - "जबसे गाँव के लोग शहर जाने लगे, तब से उनका स्वभाव भी शहरी लोगों जैसा रूखा हो गया है। अब वो अपने से ही मतलब रखने लगे हैं। पहले तो पड़ोसी की तकलीफ अपनी होती थी लेकिन अब लोगों को मतलब ही नहीं। अलाव भी आपस में भाईचारा बढ़ाते थे लेकिन अब वो सब भी भुलाये जा रहे हैं।"
मैनें मन ही मन सोचा, "सही तो कह रहे हैं ये लोग। जिन लोगों ने मुझे आज से पहले देखा भी नहीं था, सिर्फ इसलिये कि मेरे दादाजी इस गाँव के हैं, जितना प्यार और परवाह मुझे इन अंजान लोगों से मिला, उतना तो शहर में सालों की जान पहचान और करीबी दोस्तों से भी नहीं मिली। पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में पगलाये हम नई पीढ़ी के शहरी लोग हमारी जड़ों से, हमारे गाँवों से ही कटते जा रहे हैं।"
"असली भावनाओं से ओतप्रोत, अपनत्व से भरे ग्रामीण जीवन से मेरा परिचय कराने के लिये धन्यवाद दादाजी। यहाँ से जाने के बाद भी इस साल की सर्दियाँ और अलाव के किस्से हमेशा मेरे मन को महकाते रहेंगे। इस अलाव की गरमाहट उम्रभर मेरी जिन्दगी पर छाई मायूसी की बर्फ पिघलाती रहेगी।" - कहकर मैंने मेरे दादाजी को गले से लगा लिया।
"लल्ला, सवेरे जल्दी उठ जाना, हमारे खेतों की रौनक देखने चलना। खेतों में सरसों के पीले फूलों की चादर छाई है, तुम शहरी बच्चों को बड़ी अच्छी लगती है। सुना है, सरसों के खेतों में फोटो अच्छे आते हैं।" - एक आवाज आई और हवा में ठहाके गूँज गये।
