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sakhi Mitra

Romance Fantasy

4  

sakhi Mitra

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सप्तरंगी सावन - 2

सप्तरंगी सावन - 2

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नया मौसम :

मौसम बदलने लगे थे। छोटी सी पहचान ने अपने एक ख़ास रिश्ते में अपने आपको ढालना शुरू कर दिया था। 

अब बहती हवाएं मन को बहाने लगी थी। फिर से बहारों में दिल झूमने लगा था। 

दिल से बीती ज़िन्दगी का दर्द कम होते होते जैसे नहीं सा रह गया था अब. उसकी जगह नए साथी ने ले ली थी.

उसका अपनापन और उसका मेरे दिल की प्यार से हिफाज़त करना -इस बात ने मेरे दिन रात ही बदल डाले थे.

एक पेड़ की शाख़ पर एक छोटा सा घोंसला था,

जिसमे चिड़िया कोई अपने बच्चों को पंखों में छुपा कर दुलार कर रही थी. 

उनकी चोंच में प्यार से दाने दे रही थी. कितनी ममता , प्यार, दुलार दिखाई दे रहा था ?

कहीं किसी और शाख पर दो परिंदे एक साथ बैठे हुए थे ,

मानो के दुनिया से परे हो कर एक दूसरे को अपने ही गीतों से लुभा रहे थे और दिलोँ का हाल बता रहे थे , 

जैसे अपने प्रेम का इज़हार कर रहे थे .

ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर ये अनुभव इतना गहरायी और सच्चाई से न हुआ था। 

इस बार मेरे दिल ने कोई ख़ास श्रृंगार किया था , जैसे उसे किसीने बड़े भाव से सजाया था और नए रंगों से सवारा था .

अब दिन रात गुज़रते थे एक नयी आशा के साथ। 

मेरे दिल को उसकी कवितायेँ सुनने और परखने वाला जो मिल चूका था, 

उसके ख्वाब समझने वाला उन्हें पूरा करने की चाहत रखने वाला जो मिल गया था.

मेरे सुर में सुर मिला कर जीने वाला मेरी हँसी के साथ हंसने वाला और मेरे गमो को बाँटने वाला मिल चूका था. 

अब होता था इंतज़ार- उसके आने का, उस से मुलाकातें होने का, और उसकी याद में होंठ सिर्फ मुस्कुराते रहते थे. 

रातें आँखों आँखों में ही गुज़र जाती, पता ही नहीं चलता था कब सूरज निकल आया.

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);"> मेरा मन रोज़ नए नग़मे गुनगुनाने लगा था रोज़ नयी कवितायेँ लिखता और फिर पढ़के सुनाता.

मेरी सतरंगी कवितायेँ सुनकर मेरा सावन भी उनमे अपने बोल भर देता और उन्हें और रूहानी बना देता.

अब कुछ लब्ज़ जो ज़िन्दगी के मुकाम तक पहुंचने का जरिया बन गए वो थे,

" इंतज़ार, दीदार, मिलन और फिर मिलने की उमीदे "वो ही ज़िन्दगी और वो ही जीने का जूनून। 

एक रात मैंने अपना एहसास कुछ यूँ बयां करने की कोशिश की चाहती हूँ

दूर बहुत ही दूर हैं वो बादल पानी भरे ,उन बादलों की बरसातों में भीग जाना चाहती हूँ. 

वो जिनमे बूंदें नहीं प्रेम के हैं मोती भरे,उन मोतियों के हार से खुद को सजाना चाहती हूँ.

दूर हैं वो गुलशन जिसमे हैं गुल खिले ,उस गुलशन की महक में,खुद बहक जाना चाहती हूँ.

दिल ने चाहे जो सितारे जा बसे थे बादलों में ,उन सितारों से अपना आँचल सजाना चाहती हूँ .

पलकों को मूंद प्यारे ख्वाब देखना चाहती हूँ .आज चाँद को मैं ज़मीं पर बुलाना चाहती हूँ .

सुन ज़रा ओ साथी मेरे थाम ले ये हाथ तू, आज हाथों की लकीरों को बदलना चाहती हूँ.

वो समंदर नज़र न आये साहिल जिसका ,उस समंदर की मौजों में भीग जाना चाहती हूँ.

लहराती हवाओं में, बरसते सावन में आज सतरंगी बन बिखर जाना चाहती हूँ। :

पागल मन प्रेम के समंदर में अपनी कश्ती बहाने बेताब था। 

लगने लगा था जैसे मेरे ख्वाबों को ज़िन्दगी मिल गई हों।

ये जो नया मौसम आया था बहोत ही खूबसूरत समां बाँध रहा था ज़िन्दगी में। 

महसूस होता था कोई पंछी मुक्त गगन में अपनी मस्ती में बस उड़ते ही जा रहा है , 

बादलों से बाते करते हुए, किरणों से खेलते हुए , सितारों को छूने की ख्वाहिशें मन में लिए ,

बस उड़ते ही जा रहा है..............बस उड़ते ही जा रहा है..............


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