अनुभूति गुप्ता

Romance

1.0  

अनुभूति गुप्ता

Romance

सफर

सफर

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एक्सक्युज मी, ये जगह मेरी है। यहां मेरा हैंडबैग भी रखा था, आप उसे वहां से हटाकर बैठ गए हैं’ निशा ने ट्रेन में जरनल डब्बे में अपनी सीट पर बैठे अभय से कहा। जी माफी चाहता हूं, गर्मी बहुत है इसीलिए यहां आकर बैठ गया। वैसे जा कहां रही है आप, हाय मेरा नाम अभय है और आपका क्या नाम है मोहतरमा...! इतनी जल्दी क्या है मेरे बारे में जानने की, सफर काफी लम्बा है जान-पहचान भी हो जायेगी। इतना कहकर निशा अपनी विंडो वाली सीट पर बैठ गयी। 

अजीब लड़की है मैंने बस नाम ही तो पूछा था, कौन सा उसका घर का पता मांगा था। कितनी घमंडी है सीधे मुंह बात भी नहीं करती है, अभय मन ही मन इस बात से कुड़ रहा था। उफफ......उपर से ये गर्मी विंडो वाली सीट भी गयी। अरे भाईसाहब ! अखबार के दो पन्ने तो देना जो आप पढ़ न रहे हो, कम से कम उसी का पंखा बनाकर हवा खा लूं। हां हां... क्यों नहीं, ये लीजिए दो पन्ने अभय ने दोनों पन्ने मोड़े और हवा करने लगा। 

इतने में स्टेशन पर रुकी ट्रेन भी चल पड़ी, बाजू में निशा के हवा से उड़ते बालों पर अभय की नजर गयी। कितनी खूबसूरत लग रही है मंद बयार का बहना और इसके चहरे पर लटों का बिखरना। तिरछी नजरों से बार-बार अभय निशा को देख रहा था, और निशा तो नाॅवल के मुलायम पन्नों को अपनी नर्म उंगलियों से पलट रही थी। 

निशा ने खुद को सम्भालते हुए अभय से कहा-हाय, आई एम निशा और आप...! जी, मैं अभय मध्यप्रदेश से, फिलहाल दिल्ली से लखनउ कुछ काम से जा रहा हूं....। एक हल्की मुस्कुराहट से एक सुन्दर से सफर की शुरूवात हुई। ट्रेन स्टेशन पर आकर रुकी, आप कुछ लेगी मैं बोतल में पानी भरने के लिए जा रहा हूं! निशा ने अपने पर्स से 20 रुपये का नोट अभय को थमाते हुए बोला-जी दो चाय और एक बिस्कुट का पेकट।

अभय ट्रेन से उतरकर पानी भरने को गया, उसकी नजरे विंडो सीट पर बैठी निशा पर ही टिकी हुई थी। ’’अरे देखकर भाईसाहब ! मेरी बोतल लगी हुई है और बीच में आप अपनी बोतल लगा रहे हैं, ये क्या तरीका है ? अभय भनभनाता हुआ दूसरे आदमी से बोला।’’ 

भाईसाहब ! ट्रेन में गर्मी से मेरी गर्भवती पत्नी बेहोश हो गयी है, इसीलिए जल्दी से पानी भरने को आया था। ’ओह ! ये तो बहुत दुखद है, ठीक है पहले आप पानी भर लो अपनी बोतल हटाते हुए अभय ने कहा।’ धन्यवाद भाईसाहब, इतना कहते ही वो आदमी अपनी बोतल भरकर वहां से चला गया।

वहीं दूर खड़ी निशा सब कुछ देख रही थी, उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान बिखरी और वो चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ गयी ! शायद इस खूबसूरत सफर का होना लिखा था, दो अजनबी एक दूसरे को न जानते हुए भी जानने लगे थे। 

इतनी देर में अभय निशा से बोला, ’ये लीजिए मैडम आपकी दो चाय और एक बिस्कुट का पेकट।’ एक चाय का कुलहड़ अभय के हाथों में निशा ने थमा दिया, ये दूसरी चाय आपके लिए ही थी! सफर थकावट भरा होते हुए भी थकावट नहीं दे रहा था,। 

’’वैसे आप इंसान अच्छे हो, इतने बुरे भी नहीं हो’’-निशा ने कुलहड़ के उपरी भाग पर हल्की उंगलियां फेरते हुए अभय से कहा। ’हा हा! अच्छा मैडम जैसा आप कहे, वैसे आपने अब तक नहीं बताया कि आप जा कहां रही हैै’ अभय ने हंसते हुए कहा। ’’जी, मैं लखनउ की रहने वाली हूं, किसी काम से दिल्ली गयी थी वहीं से घर वापसी कर रही हूं वैसे आप क्या करते हैै’’, निशा ने पूछा। 

अभय ने शायद निशा के सवाल को अनसुना सा कर दिया था, निशा ने गंभीरता भरे स्वर मंे अभय से कहा-’’किस सोच में पड़ गये आप, कोई बात नहीं अगर आप नहीं बताना चाहते हो।’’

’’नहीं नहीं मैडम ! ऐसी कोई बात नहीं है, बस सोच में पड़ गया था कि कहां से बताना शुरू करुं- अभय ने उलझनभरे मन से कहा। मैं स्क्रिप्ट राइटर हूं, फिल्मों और थियेएटर के लिए स्क्रिप्ट लिखता हूं, दो बार मेरी स्क्रिप्ट का चयन भी हुआ पर....। अभय के इतना कहते ही खामोशी की लहर सी बिखर गयी थी, शायद निशा अभय की उलझन को समझ रही थी। इसीलिए बात का रूख दूजी ओर मोड़ते हुए निशा बोली-’वैसे मौसम अब ठीक-ठाक हो गया है, हल्की-हल्की बूंदा बादी भी होने लगी है!’ 

हां, मैडम...! वरना गर्मी से तन निढाल सा हो गया था, क्या आपको भी लिखना पसंद है? अभय ने नाॅवल की ओर इशारा करते हुए बोला। 

’’सच तो ये है कि बचपन से है, मगर अच्छा लिखना नहीं आता, हां डायरी लिखती हंू.......,मैं डायरी को अच्छे लम्हों और कड़वे अनुभवांे का संवेदनशील दस्तावेज मानती हूं।’ ’डायरी’ बचपन की सहेली हमजोली मेरी प्रिय सखी रही, एक वही तो है जिससे जितनी मन चाहे उतनी बातें करो, शिकायतंे करो वो सबकुछ अपने दामन में सहेजती है! निशा ने बड़ी सहजता से जवाब दिया’’।

अभय निशा की हर बात को बहुत ध्यान से सुन रहा था, जिस लड़की को वो शुरूवात में ’एक घमंड़ी लड़की’ होने का टाइटल दे चुका था। निशा की वही बातें अभय को उसकी ओर आकर्षित कर रही थी, यह कैसा अहसास था जो अभय के विचलित मन को अजीब सी ठंडक दे रहा था। आसपास मौन सा पसर गया, दोनों की आंखों-आंखों में बातें होने लगी थी....!

तभी स्टेशन पर गाड़ी रूकी, एक बुजुर्ग दपंती उसी डब्बे में चढ़ा जिसमंे निशा और अभय सफर कर रहे थेे। अरे सुनते हो जी, गर्मी से मेरा तो जी सा घबरा रहा हैै....और कोई विंडो वाली सीट भी खाली नहीं। श्रीमती जी, क्यों परेशान होती हो लो पानी पी लो। 

’तुम बूढ़ी हो चली हो और मैं आज भी जवान हूं। अरे, कुछ तो शर्म करो, बाल पक गए है पोता-पोती भी बड़े हो गए हैं और आप आज भी बालों में डाई लगाकर खुद को जवान बताते हो।’ निशा और अभय उन बुजुर्ग दपंती की प्यारी सी नोक-झोंक को देखकर मंद मंद मुस्कुरा रहे थे, ये सफर रोमांचक बन गया था। 

अचानक से बुजुर्ग निशा और अभय के पास आकर बोले-’आप लोगोेें को कोई दिक्कत न हो तो, हमारी सीट पर जाकर बैठ जायंे। मेरी बुढ़िया गर्मी से कूड़ रही है, इकलौती बीवी है मेरी कही मर मरा न जाये....।’ सुनते हो, बुढ़िया किसे कह रहे हो, मैं आज भी आपके सामने बच्ची लगती हूं।’ 

बुजुर्ग दपंती को अपनी सीट देकर निशा और अभय उनकी सीट पर जाकर बैठ गए। क्या जी, आप भी न? सच श्रीमती जी, आज भी आप मीना कुमारी से कम नहीं लगती हो.....। ’हां आंटी जी, आप तो नई नवेली दुल्हन सी प्यारी लगती हो पर अंकल जी, भी कुछ कम हैड़सम नहीं’ निशा उन्हें छेड़ते हुए बोली। उन मियां-बीवी की बातें सुनकर सब ठहाके मारकर हंसने लगे !

’’कितना प्यार है अंकल-आंटी में, वरना आजकल तो रिश्ते पलभर में टूट जाते हैं’’ निशा ने मायूसी से कहा। अभय को निशा की बातों से ऐसा महसूस हुआ जैसे वो जीवन में गहरे सूनेपन से गुजर रही हैै। इसीलिए उसने बात को दूसरी ओर मोड़ दिया। 

’आप लिखना क्यों नहीं शुरू करती, कविताएं, गजल, कहानी, उपन्यास जो आपको पसन्द हो’ अभय ने निशा के सामने अपना सुझाव रखते हुए कहा.। नहीं नहीं अभय, मुझे कहा लिखना आता है मैं जीवन के उतार-चढ़ाव को बस अपनी ’डायरी’ में ही दर्ज करती आई हूूं। निशा जीवन में बहुत कुछ पहली बार होता है, माना आपको लिखने का अनुभव नहीं मगर ऐसा भी नही कि आप लिख ही नहीं सकते। 

’’लो ’नावाबों का शहर’ लखनउ भी आ गया, ये सफर इतने आराम से कट गया पता ही नहीं चला। ’कभी मेरी सहायता की जरूरत हो तो मुझे’- अभय ने अपना कार्ड थमाते हुए निशा से बोला! कार्ड निशा ने अपने पर्स में रख लिया। अभय, आपसे मिलकर अच्छा लगा, यह नाॅवल मैं पढ़ चुकी हूं, आप इसे रख लो आपको बहुत अच्छी लगेगी। अपना बैग उठाकर दोनांे ही चुपचाप स्टेशन पर उतरकर अपनी-अपनी मंजिल की ओर चल पड़े। 

अभय ने जब नाॅवल के पहले पन्ने को खोलकर देखा तो उसपर निशा ने कुछ यूं लिखा था-’’आपसे मिलना किस्मत की बात थी, काश मेरी किस्मत एक बार फिर मेहरबान हो, किस्मत भर सके मेरी अपेक्षाओं की अलमारी, काश मेरी किस्मत में फिर ये दिलचस्प सफर हो।’’ 

शायद इन कुछ घंटों की मुलाकात ने उन दोनों को अपनेपन का एहसास करा दिया था। एक दूसरे से बहुत कुछ कहने को भी था, और कुछ नहीं भी! यह अजीब सा अहसास प्यार नहीं ंतो और क्या था। 

एक साल बीत गया, अभय ने निशा की दी हुई नाॅवल को बहुत सहेजकर रखा, इस उम्मीद में कि एक बार फिर उसकी मुलाकत निशा से होगी और इस बार वो अपनी दिल की बात उससे कह पायेगा। 

एक सवेरे अभय के घर की डाॅरबैल बजी। अभय ने दरवाजा खोला-’हां भाई, बोलो।’ सर आप अभय सिंह है, हां भाई मैं ही अभय सिंह हूं, आपके नाम का पार्सल आया है, कहां से आया है-सर लखनउ से.....! लखनउ का नाम सुनकर अभय के पैरों तले जमीन खिसक गयी, उसे लगा शायद निशा ने उसे खत लिखा होगा। किसने भेजा है,-अभय ने हड़बड़ाहट से कोरियर बाॅय से पूछा! 

सर, कोई निशा गुप्ता है’-निशा का नाम सुनकर अभय की खुशी का ठिकाना न रहा। उसने झट से पार्सल अपने हाथों में थामते हुए उसे खोला ! उसमें से एक किताब के साथ एक चिट्ठी निकली जिसमें कुछ यूं लिखा था-

’’प्रिय अभय, पूरा एक साल बीत गया हमारी उस ट्रेन यात्रा को, लोग कहते हैं कि समय के साथ हर कोई बीती बातों को भूल जाता है। मगर मुझे आज भी उस दिन की हर एक बात याद है, तुमसे मिलना और इतनी सारी बातें करना...

’’मेरी ’डायरी’ के कुछ सूने पन्नों ने एक खूबसूरत किताब का रूप ले लिया है जिसकी प्ररेणा तुम हो। मेरा यह प्रथम उपन्यास ’अभ्यंतर निशा’ तुम्हीं को समर्पित है। जानती हूं तुम्हें जरूर पसंद आयेगा।’’ 

अभय की आंखों में खुशी के आंसू थे, वो खुद को सम्भाल ही रहा था कि अचानक से उसके घर के फोन की घंटी बजी...! 

जैसे ही उसने फोन उठाया-एक गीली आवाज आयी ‘एक्सक्युज मी, ये जगह मेरी है‘। दूसरी ओर फोन पर और कोई नहीं बल्कि निशा थी, दोनों की आंखों में तो आंसू थे मगर चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ पड़ी।


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