चीत्कार

चीत्कार

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आशिमा के घर के बाये वाले मकान की ’कपूर फैमली’ में एक नयी सदस्या ’मनोरमा’ का आगमान हुआ। मनोरमा ने जैसा नाम वैसी छवि पायी थी, सूरत से भोली और हृदय से बेहद कोमल स्वभाव की। कपूर फैमली ने बड़ी बहू ’मनोरमा’ को वेलकम करने के लिए एक समारोह आयोजित करने की सोची, जिसमें महुल्ले के सभी परिवारों को सहृदय आमंत्रित किया गया। करीबन 6 बजे सांझ से ही समारोह की जोरों-शोरों से तैयारी होनी शुरू हो गई। कपूर बाबू का झालरों से सजा घर दूर से सजा हुआ मनमोहक महल मालूम पड़ रहा था। आशिमा का छोटा भाई देवांग झट से अपने घर की छत से सज-सजावट का मुआइना लेने गया, तो उसने किसी के सिसक सिसक के रोने की आवाजें सुनी।  इधर-उघर देखने पर उसे वहाँ कोई नजर न आया। भय से देवांग के पैर थर-थर काँपने लगे, वो झट से सीढ़ियों से नीचे की ओर भागा। 

 ’’दीदी, छत पर भूत है जो जोर-जोर से रोये जा रहा है’’, देवांग आशिमा को पुकारते हुए बोला। देवांग को ऐसे सहमे देख, आशिमा को लगा कि देवांग छत पर ज्यादा अंधेरा होने से डर गया होगा। आशिमा ने अपने भाई को समझने का बहुत प्रयास किया, मगर देवांग के कानों में उन सिसकियों की गुंज बरकरार थी। थक हार कर, वो देवांग को साथ लेकर सीढ़ियों की ओर बढ़ी।  जैसे ही, उसने पहला कदम सीढ़ी पर रखा....’’अरे रूको कहाँ जा रहे हो तुम दोनों, चलो जल्दी से तैयार हो जाओ। पड़ोस में समारोह में जाना है’’, मालती दोनो बच्चों को टोकते हुए बोली। हम भी देखे कैसी है, शैलजा की बहू ’मनोरमा’। आसपास के लोग कह रहे थे कि अपसरा लगती है’’, मालती इतराते हुए अपने पति ’विकल’ से बोली। पूरा परिवार समारोह में जाने के लिए तैयार हो गया, सब बेहद उत्सुकता से मनोरमा को देखने ’कपूर फैमली’ के कार्यक्रम में पहुँचे। पूरी काॅलोनी दुल्हन सी सजी-धजी लग रही थी। हर किसी की नज़र नई बहू को ढूंढ रही थी।कुछ ही मिनटों बाद, शैलजा सभी के अनुरोध पर सबसे मिलवाने अपनी नई नवेली बहू को बाहर लेकर आयी। मरून साड़ी, गहनों से जड़ा बदन, लम्बे केश, पायल की रूनझुन, चेहरे पर उज्जवल मुस्कान और माथे पर लाल बिंदी जो तारों की झिलमिलाहट लिए हुए। ऐसा लगा मानो किसी सरोवर में उतरी अपसरा हो। 

’वाकई, ये तो हूर है शर्मा जी, मगर...मुझसे बड़ी नहीं’’, मालती अपने पति को छेड़ते हुए बोली।

’’हा हा हा हा, हा वो तो है मालती, तुमसे सुन्दर कोई बना ही नहीं’’, शर्मा जी मुस्कुराते हुए बोले।

समारोह बहुत बढ़िया चल रहा था, सब अपने पसंद के स्टाॅल पर खाने पीने में मशगूल हो गए। एक आशिमा ही थी, जो कोने वाली कुर्सी पर अकेली चुपचाप बैठी हुई थी। तभी मनोरमा, आशिमा के सिरहाने आकर बोली- ’’आप कुछ खा नहीं रहे हो बेटा, मैं आपके लिए खाने को कुछ ले आऊँँ?’’ आशिमा की उम्र लगभग 16 वर्ष रही होगी, जब उसने पहली बार मनोरमा को देखा। समोराह में सबकी नज़रें मनोरमा पर टिकी हुई थी, हर कोई उसकी खूबसूरती का कायल हो गया था। आखिर, वो जितनी सुन्दर थी, उतनी गुणी भी। मनोरमा के पूछने पर आशिमा सन सी रह गई थी, उसका मन लालित्य हो उठा मनोरमा को करीब से जानने के लिए। मनोरमा के चेहरे से झलकता ममत्व, सादगी से भरे शब्द आाशिमा के हृदय को सुकून दे रहे थे।   

’वो, मैं......आप’, आशिमा हड़बड़ाहट से बोली।

आशिमा कुछ और कह पाती उससे पहले ही मनोरमा की सास ’शैलजा’ उसे और लोगो से भेंट कराने ले गई। आशिमा को बार-बार ऐसा महसूस हो रहा था कि खुश दिखने वाली मनोरमा सच में खुश नहीं बल्कि खुश होने का ढोंग कर रही है। बहुत कुछ रहस्यमयी था मनोरमा की आँखों में, जो आशिमा को बेचैन कर रही थीं। पर मन ही मन उसे यह भी लग रहा था कि वो इस बारे में जरूरत से ज्यादा सोच रही है। समारोह खत्म हुआ। सबकुछ बहुत अच्छे से निपट गया। सभी अपने-अपने घर की ओर चल पड़े। आशिमा का विचिलत अंर्तमन कई सवालों से घिरा हुआ था। वो बार-बार मुड़ मुड़कर ’कपूर हाउस’ के गेट को टकटकी लगाए देख रही थी।


आठ महीने बीत गए।

आशिमा भी धीरे-धीरे उन सभी बातों को भूल गई जो उसे परेशान करती थीं। रोज की वहीं दिनचर्या, सुबह जल्दी उठना, नहा-धोकर तैयार होना, स्कूल जाने के लिए बस्ता तैयार करना और टीफिन पैक करके स्कूल जाना और थक कर स्कूल से वापस आना। दुपहरी को आशिमा स्कूल से आकर खाना खाकर सो गई। करीबन शाम के 6 बजे उसकी आँख खुली। उतने वक्त शाम को देवांग छत पर खेल रहा था। आशिमा हाथ मुंह घुलकर अपने कमरे में पढ़ाई करने लगी। तभी मालती ने आशिमा को छत से देवांग को बुलाने भेजा। आशिमा, जब देवांग को बुला कर नीचे ला रही थीं तभी उसकी नजर ’कपूर फैमली’ की छत पर पड़ी। मनोरमा तार से सूखे कपड़े उतार रही थीं, दीपक की ज्योति-सा झिलमिलाता चेहरा अब तलक मुरझाया हुआ था।

बड़ी हैरानी से वो मनोरमा को देख रही थी। वो हँसता खिलखिलाता चेहरा, गंभीरता के तत्व लिए मायूसी और बदसूरती से भरा हुआ था। भारी चेहरा, बदरंग आँखें, मैले-कुचेले उधड़े कपड़ों में बदहवास हालत में मनोरमा को देखकर आशिमा की आँखें भर आयी। वो दौड़ी-दौड़ी तिमंजले पर गई। "मनोरमा दीदी, दीदी रूकिए तो मेरी बात...."आशिमा मनोरमा को पुकार देती रही पर मनोरमा, आशिमा से नज़रे चुराकर हाथ में कपड़ों को समेटे नीचे की ओर दौड़ पड़ी। मनोरमा का ऐसा बर्ताव आशिमा को अटपटा सा लगा। उसने मनोरमा के इस व्यवहार की वजह जानने की बहुत कोशिश की। मगर जाने किस कारण मनोरमा, आशिमा से बात करने से बचती रही। शनिवार की वो रात आशिमा कभी भूल नहीं पायी। रात का वो सन्नाटा और उस रात के सन्नाटे की दर्द भरी चीत्कार, सर्द हवाओं के झोंकों को चिरकर गुजरती हुई एक अधमरी पुकार। रात के करीबन 12 बजे, गहरी खामोशी के बीच एक चीत्कार ने आशिमा के हृदय को भीतर तक झंझोर डाला था। 

’’आशिमा, आशिमा.......प्लीज, तुम छत पर आओ। मुझे तुमसे बात करनी है’’- मनोरमा कौतुक स्वर में बोली। आशिमा, हड़बड़ाहट के साथ अपने कमरे से बाहर आयी, तो उसने पाया कि मनोरमा उसकी छत पर है। बाल बिखरे हुए, कपड़े अव्यवस्थित थे जिसे देखकर वो एक पल को तो घबरा सी गई। आशिमा से मनोरमा की ऐसी दशा देखी न गई, बिना कुछ सोचे समझे वो छत की सीढ़ियों की ओर बढ़ी। छत के दरवाज़े की कुण्डी जैसे ही खोली, मनोरमा उसके सीने से लिपट गई। उसकी छाती से लिपटी मनोरमा बिलख बिलखकर रोने लगी। इस पीड़ा की कोई सीमा न थी, जो आशिमा को मनोरमा के रूदन ने महसूस हुई। वो अथाह तड़पन कब नम सिसकियों में बदल गई पता ही नहीं चला। जीवन के प्रति सदा सकारात्मक और ऊजा से भरी मनोरमा का रूआंसा चेहरा, आशिमा के मन में अनेको सवाल छोड़ रहा था। आशा भरी निगाहों से मनोरमा, आशिमा को देख रही थीं। खुद को सम्भालते हुए आशिमा ने मनोरमा का हाथ अपने हाथों में जैसे ही लिया, मनोरमा के हाथों की कम्पन ने उसे असहाय सा कर दिया। 

’’दीदी, क्या हुआ? कुछ तो बताओ, आप इतना क्यों रोये जा रही हो’’, आशिमा ने मासूमियत से पूछा।

 ’’अ...आ...आशिमा, समझ नहीं आता मुझे कि कहां... से शुरू करूँ बताना। तुम बहुत छोटी हो आशिमा, मेरे हालात नहीं समझ पाओगी’’, मनोरमा भारी आवाज़ से बोली।

’दीदी, प्लीज बताओ। मैं तो आपकी छोटी बहन जैसी हूँ’, आशिमा ने आस भरी नज़रों से देखते हुए कहा। मनोरमा के गले में शब्द अटक गए थे। उसका दर्द उसके हृदय को बिंधकर बाहर आया तो, आशिमा के पैरो तले ज़मीन खिसक गई। मेरा आंठवा महीना चल रहा था, जब मुझे रात को ही अस्पताल ले जाया गया। मुझे प्रसव पीड़ा के कारण कोई सुध न थी। हल्की बेहोशी की हालत में मुझे कुछ बातें सुनाई पड़ीं। मेरी सास से डाॅक्टर कह रही थी कि "साधारण डीलिवरी नहीं हो सकती, आपॅरेशन को तनिक भी देरी की तो माँ की जान को खतरा हो सकता है। मेरी सास ने आपॅरेशन को पैसे देने को मना कर दिया। डाॅक्टर ने बहुत समझाने की कोशिश की, मगर उन्होने एक न सुनी। मजबूरन डाॅक्टर ने नाॅमल डीलिवरी करने को कहा।

’’आगे क्या हुआ दीदी’’, आशिमा ने बेचैनी से पूछा। 

मेरे बच्चे ने दुनिया में आने से पहले ही मेरी कोख में दम तोड़ दिया। इतना कहते ही मनोरमा की आँखों से सावन बहने लगा। आशिमा सोच में पड़ गई कि कैसे कोई इतना निर्दयी हो सकता है? क्या पैसा किसी मासूम के जीवन से बढ़कर होता है? कैसे कोई इतना दरिद्र हो सकता है?

मनोरमा ने हाथ जोड़कर आशिमा से विनती की, ’’क्या तुम मेरे माता-पिता को यहाँ बुला सकती हो, आशिमा इन लोगो ने मेरा फोन तक छीन लिया है?’’ मनोरमा ने आस बांधते हुए कहा। 

’’हाँ दीदी, मैं कल ही आपके माता-पिता को फोन करूँगी’’, आशिमा ने मनोरमा को भरोसा दिलाते हुए कहा।

इतना कहते ही आशिमा ने मनोरमा को अपने कमरे में वापस जाने को कहा। मनोरमा खामोशी के साथ उठी, और अपनी मुट्ठी में दबाई पर्ची को आशिमा को थमाकर छत से नीचे उतरकर अपने कमरे में सोने चली गई। उस रात, आशिमा को पल भर के लिए भी नींद नहीं आई। सुबह हुई। आशिमा ने अपने घर के फोन से मनोरमा के माता-पिता को उनकी बेटी की हालात से रूबरू कराया। अगले ही दिन मनोरमा के माता-पिता उसे उसकी ससुराल से हमेशा के लिए विदा कर ले गए। अक्सर विदाई के भावुक पलों में बेटी के माता-पिता रोते हैं, पर मनोरमा की पीहर से नहीं ससुराल से सुखद विदाई हुई। आशिमा जब भी मनोरमा को याद करती थी, उसकी आँखों में इत्मिनान के आँसू रहते थे कि वो मनोरमा का जीवन बचा सकी।


   




   
























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