soch
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रचना के कमरे के समीप से गुजरते हुए,अचानक मेरी नजर उस पर पड़ी।वह बच्चो को पढ़ाते हुए।एक हाँथ बार बार अपने सर पर फेर रही थी।मैंने सोचा शायद बेचारी पढ़ाते पढ़ाते थक गई है।सो झटपट चाय बना उसके समीप जा बोली, "लो रचना ये सब छोड़ो ओर चाय पी लो।" चाय लेकर वो मुझे धन्यवाद देते हुए बोली "नही दीदी ये प्रतिस्पर्धा का युग है।यहाँ वही सफल होगा जो काबिल होगा।इसलिए हमें सौम्य ओर स्नेहा की शिक्षा दीक्षा में कोई कसर नही रखना है।" उसकी बात सुन,आज अनायास ही मेरे मन मे विचार आया कि आज वही रचना मेरे बच्चों को काबिल बनाने में कितनी तन्मयता से जुटी है जिसका रिश्ता देवरजी के लिए आने पर मैने यह सोच,इस रिश्ते के लिये अपनी असहमति जताई थी कि कहीं उस ,एम.एस.सी पढ़ी लड़की के यहाँ आ जाने से, मुझ अनपढ़ की अहमियत, परीवार में कही कम ना पड़ जाए।