संतान न होने व होने का दुःख
संतान न होने व होने का दुःख
बात औलाद की है तो औलाद अर्थात बच्चे तो सभी के होते हैं चाहे वो इंसान हो, जानवर हो या फिर पक्षी लेकिन इस संसार में इंसान अर्थात मानव जीवन में यदि किसी के बच्चे न हों तो उसे क्या-क्या यातनाएं सुननी पड़ती हैं खासकर महिलाओं को और उनकी आलोचना करने वाली भी महिलाएं ही होती हैं अर्थात महिला ही महिला की दुश्मन.......
और गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते ही महिला-पुरूष की जिज्ञासा होती है उसकी एक औलाद होना लेकिन पुरुष की अपेक्षा महिलाओं में ज्यादा ही उत्सुकता होती है जिससे कि उन्हें उन तानों की तानाकशी न सुनना पड़े और आलोचनाओं से बची रहें क्योंकि कुछ उम्रदराज महिलाएं तो इन मामलों में पी.एच.डी. कर रखी होतीं हैं ।और ये उस क्षण की प्रतीक्षा में होती हैं कि यदि १-२ वर्षों में कोई संतान प्राप्ति नहीं हुई तो उन सभी की अपनी-अपनी किताबें खुलने लगती है...जबकि संतान न होने की चिंता उनके साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्यों को भी होती है क्योंकि किसी को दादा-दादी,नाना-नानी, चाचा-चाची इत्यादि बनने की प्रतीक्षा में होते हैं यदि समयानुसार नहीं होता तो न जाने कहाँ-कहाँ इलाज कराते हैं तो आइए पढ़ते हैं इसी प्रकार की एक व्यक्ति की कहानी और जो शायद समाज में ऐसा ही कई व्यक्तियों के साथ घटित हुआ हो....
एक दंपति जिनको अपना वैवाहिक जीवन व्यतीत करते हुए कई वर्ष बीत गए परन्तु इतने वर्षों में अभी तक संतान सुख की प्राप्ति न होने के कारण दुःखी सा महसूस करते व दंपति के माता-पिता भी चिंतित रहते कि अभी तक हम दादा-दादी, नाना-नानी इत्यादि नहीं बन पाए फिर सोचते कि प्रभु से पार्थना के सिवाय हम क्या ही कर सकते हैं?
इंसान चाहे जितने जतन कर ले कुछ पा नहीं सकता,
जब तक ईश्वर न चाहे तब तक कुछ हो नहीं सकता।
(देने वाला तो ईश्वर है हम इंसान व कार्य तो जरिया है।)
अंततः कुछ वर्ष और बीतने के पश्चात एक सुपुत्री को जन्म दिया जिसके बाद घर में खुशियों का माहौल छा गया परन्तु वो ख़ुशी भी कुछ क्षणों की रही अर्थात वो पुत्री कुछ क्षण की ही मेहमान रही इस प्रकार उसने दुनियां को अलविदा कहा और अब पहले से अधिक घर में दुःखों का पहाड़ टूट गया परन्तु ईश्वर के निर्णय पर किसी का जोर नहीं इसलिए धैर्य रखने के अलावा कोई चारा नहीं।
निराशा भरे जीवन में दंपती को एक विकल्प सूझा कि क्यों न हम किसी रिश्तेदारों के बच्चे को ही गोद ले लिया जाए जिसकी सारी जिम्मेदारी अब हमारी होगी परन्तु अब प्रकरण यह फंस रहा था कि पत्नी चाहती थी कि बच्चा अपने मायके वालों से ले व पति चाहता कि वो अपने परिवार वालों से कहे इस प्रकार फिलहाल पत्नी अपनी चचेरी बहन को रख लेती है और कुछ वर्षों बाद उनकी चाची किसी बहाने अपनी बच्ची को नहीं भेजती तब अब वो पति अपने बड़े भाई की बच्ची को ले लेते हैं परंतु यहाँ भी कुछ वर्षों बाद वही मामला दोहराया जाता है और उनकी भाभी कहती हैं कि तुम्हारे बच्चे नहीं हैं तो हम क्या करें किसी ने ठेका ले रखा है क्या?
ये शब्द सुनते ही पत्नी की आँखों में आँसू आ गए और रोते हुए निराशाजनक स्थिति में पहुँची तो पति ने घटित हुए प्रकरण को पूँछा तो पति को तनिक भी विश्वास नहीं हुआ और कहा कि मेरी भाभी ऐसा नहीं कह सकती तो दुबारा में पति अपनी भाभी के पास जा पहुंचा तब उन्हें भी उन्हीं शब्दों को सुनना पड़ा तब विश्वास हुआ और वो भी रोते हुए उल्टे पाँव लौट पड़े तथा दंपति रोजी-रोटी की तलाश में निराशाजनक स्थिति में ही अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान कर चुके थे। समय का चक्र है जो चलता रहा और वो अपने गृहस्थ जीवन को चलाते रहे इसी क्रम में ईश्वर की कृपा से 8-9 वर्षों बाद फिर ख़ुशख़बरी मिली और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई व दंपति के माता-पिता को बहुत खुशी मिली व ईश्वर की कृपा से उनकी ये संतान दुनिया में सही-सलामत रही और अब जब इनका संतान बड़ा हो गया तथा दंपति के आँखों का तारा उनकी नज़र में है तब जिन-जिन के संतानों को लेना चाह रहे थे अब वो ही अपनी संतान को देना चाह रहे थे कि अरे तुम्हारी ही लड़की या बहन या भाई इत्यादि है इसलिए तुम इनको ले लो और आराम से इनकी शादी-ब्याह करो आख़िर किस बात की फ़िक्र है तुम्हें हम सब तुम्हारे ही तो हैं अर्थात अब शब्दों में परिवर्तन आने लगा अब दंपति की संतान होने बाद न जाने कितने लोग अपने-अपने संतान को सौंपने की जिम्मेदारी देने को तैयार हो गए।
जो कल तक अपनी-अपनी संतान देने से परहेज करते थे,
जब ईश्वर ने इनको संतान दिया तो देने वाले हजार बैठे थे।
तो जरा गौर से सोचिए कि एक संतान के लिए दंपति को क्या-क्या सहना पड़ा और जब यही संतान बड़ी हो जाती है और अपने माता-पिता की परवाह नहीं करते तो फिर उन पर क्या बीतती होगी और उन्हें फिर वही दिन याद आते होंगे इसलिए अपने माता-पिता का पूर्ण रूप से देखभाल करें क्योंकि उन्होंने आपकी परवरिश के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी।
जब तक आल न थी तो आल होने का मलाल था,
अब आल है तो बची जिंदगी बिताने का ख़्याल है।
इसलिए जब तक वालिदैन का साया कायम है तब तक हर रोज फादर्स डे या मदर्स डे मना सकते हैं और उनकी अहमियत को बढ़ा सकते हैं । कोई एक दिन की अहमियत बढ़ाने का दिन नहीं है कि एक दिन तवज्जो और बाकी दिन
