संस्कारी क्यारियां
संस्कारी क्यारियां
आज की इस वीरानी रात की कालिमा इतनी गहरी होगी यह मैंने कभी सोचा भी नहीं था। वह कालिमा मेरे मन के साथ-साथ आत्मा को भी लीलती जा रही थी। एक बहेलिए के बिछाए जाल में चिड़िया कब फँस गई ? न चिड़िया को अंदेशा था न मुझे। वह मेरी पालतू चिड़िया थी जिसे मैंने कभी भी मेरी आँखों से ओझल नहीं करना चाहा था।
मेरे द्वारा धोकर साफ किए दाने ही वह खाती थी और जहां मैं जाता वह पिंजरे में बन्द रहती या मेरी कड़ी निगरानी उस पर हमेशा रहती।
क्या मज़ाल कि वह कभी अपनी मर्ज़ी से फुदक कर पड़ोस की मुंडेर पर भी चली जाए ?
कई बार उस चिड़िया ने चोंच खोल कर चूं- चूं करने की कोशिश की, शायद कहना चाह रही होगी," मुझे मेरी पसन्द की उड़ान भरने दो व खुली हवा में सांस लेने दो जिससे इस संसार की सर्दी-गर्मी, बरसात-सूखे को झेलने की मेरी क्षमता बढ़े।"
लेकिन मेरा हमेशा यही जवाब होता," तुम्हें क्या कमी है जो इस सोने के पिंजरे को छोड़कर बाहर जाना चाहती हो?"
उन भोली आँखों का सपने देखना मुझे कतई गंवारा नहीं था। क्योंकि मेरा मानना था कि जो अनुशासन सिखा सकता है वह कोई अन्य नहीं।
एक ऐसी ही बारिश भरी रात में खिड़की खुली रह गई और एक बहेलिए ने उन झांकती, सूनी व भोली आँखों को पहचान कर जाल बिछा दिया था।
बाहर की चकाचौंध व लालच उस चिड़िया को ऐसा मोहित कर गया कि वह इस घुटन व सीलन भरे पिंजरे को छोड़ कर बाहर जाने को बेचैन हो उठी।
दुनिया के अंधड़ से अनजान वह उस जाल में फँस चुकी थी और मैं बेबस देखता रह गया। अब मुझे समझ में आया ,
" काश! मैंने मेरी बेटी के लिए बन्दिशों के कांटे न बिछाकर, संस्कारों की क्यारियाँ लगाई होती।"