कुसुम पारीक

Inspirational

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कुसुम पारीक

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हलाहल बनाम अमृत

हलाहल बनाम अमृत

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चार महीनों के निलंबन के पश्चात इंस्पेक्टर सौरभ ने पिछले महीने ही ड्यूटी जॉइन की थीऔर उसके कुछ दिनों बाद ही देश मे हालात बिगड़ने लगे थे ।

इसको जानने वाले फब्तियां कसने लगे थे," जो इतने सालों से कामचोरी कर रहा है अब इसके पास और सुनहरा मौका है"; अपनी नौकरी न करने के हजारों बहानों के साथ यह एक और बहाना जुड़ गया था । लेकिन इंस्पेक्टर सौरभ ने आज तक किसी की परवाह की हो तो अब करेगा ।


आज सुबह हवा में एक अलग सी तरुणाई थी जिसकी सरसराहट इंस्पेक्टर सौरभ को साफ-साफ सुनाई दे रही थी क्योंकि वह भी निर्मल व स्वच्छ होकर बह रही थी और ऐसा लग रहा था मानो हर तरफ की कालिमा छंट कर वातावरण के साथ-साथ सौरभ के मन को भी प्रफुल्लित कर रही थी।


पिछले चार दिनों से इंस्पेक्टर सौरभ घर नहीं जा पाया था क्योंकि काफी लोग मुसीबत में थे और उन्हें उनको सुरक्षित घर पहुंचाना था। इस राष्ट्रीय आपदा में देश एक तरह की आपातकाल की स्थिति से जूझ रहा था, सरकारी आदेश मिलने के बाद सभी लोग मुस्तैदी से जुट गए थे। ऐसा नहीं है कि सभी वहाँ जी जान से लगे हुए थे उनमें कुछ ऐसे थे जिनको मेहनत की धूप झुलसा रही थी और वे अपने अपने बिलों में जाकर छुप गए थे। लेकिन इंस्पेक्टर सौरभ को तो मन मांगी मुराद मिल गई थी ।उसने इन विषम परिस्थितियों से लड़ने में कोई कसर न छोड़ी।


आज मिशन पूरा हो गया था और हर अखबार इंस्पेक्टर सौरभ के साहस और कर्मठता से पटा पड़ा था।थोड़ा सुस्ताने के लिए चलते हुए वह पास के पार्क की बेंच पर बैठ गया।भूख व प्यास के मारे वह बेहाल था ।पास ही लगे नगरपालिका के नल से अपनी भूख व प्यास दोनों को मिटाने की कोशिश की क्योंकि इस संकट के समय घर जाने का मतलब, स्वयं अपने आप से पलायन करना था जो उसकी आत्मा को कभी गंवारा नहीं था।


पाँच वर्ष पहले जब उसने पुलिस की वर्दी पहनी थी तब एक अलग तरह का जोश रग-रग में समाया हुआ था लेकिन कुछ समय मे ही उसे महसूस होने लगा था कि उसकी कर्तव्यनिष्ठा गलत लोगों के प्रति है।जिलों की कानून व्यवस्था कई बार बिगड़ी,कर्फ्यू लगा , जान माल की हानि भी हुई लेकिन उन जोंकों पर किसी की भी हाथ डालने की हिम्मत न हुई,ऊपर से कृपा बनी रही ।


आम जनता को कई तरह से लूटा जाता रहा और विभागीय संलिप्तता से गरीबो का खून चूस कर माफियाओं को पनपाया गया ।वह स्वयं एक ऐसी कुल्हाड़ी बनता जा रहा है जो उसकी ईमानदारी व कर्तव्य की जड़ें काटने की तैयारी कर चुका था ।उसकी आत्मा उसे धिक्कारने लगी थी लेकिन जो प्रहार जड़ों में कर चुका था वे गाहे बगाहे बदला लेने लगी और बिना गलती के भी उच्चाधिकारियों से शिकायत करके उसका स्थान्तरण करवाया जाने लगा लेकिन उसने इस दलदल में फंसने की बजाय बिना अपराध दी जा रही सजा मंजूर की थी।


सब तरफ प्रलोभन बिखरे रहते ,"तुम हमारे साथ रहो, तमगे तुम्हारे वर्दी को सुशोभित करेंगे।"

लेकिन इंस्पेक्टर सौरभ ने उस जहरीले पानी से खुद को हमेशा बचाये रखा।और उसके बाद शुरू हो गया था स्थानांतरण का दौर।वह भी उसने स्वीकार कर लिया लेकिन अपनी आत्मा से समझौता करना उसे कतई मंजूर नहीं था। इंस्पेक्टर सौरभ को लगता था जैसे बेईमानी के तूणीर में भी असंख्य बाण होते होंगे जिनका मुकाबला ईमानदारी का तूणीर नहीं कर सकता था । 

फिर उसे किसी न किसी गलती में फंसा कर निलंबन करवाया जाने लगा।उसने निलंबन का हलाहल पी लिया लेकिन अपने देश व वर्दी के प्रति गद्दारी नहीं की।


वह पिछले तीन वर्षों में दो तीन बार कामचोरी व अनियमितता के झूठे आरोप लगाकर निलंबित किया जा चुका था ।वह नौकरी उसके लिए सम्मान नही दे रहा थी बल्कि आत्मा तक को अपमानित कर रही थी।लेकिन शीघ्र ही उसकी चेतना के द्वारपालों का चैतन्यकरण हो चुका था।

और अचानक आई इस आपदा ने उसे खुद को साबित करने का मौका दे दिया था।



अब कई चूहे बिलो में घुसे बिलबिला रहे थे क्योंकि जो आग उन्होंने समाज में लगा रखी थी वह अब उन्हें ही झुलसाने लगी थी इसलिए बिलों में छुपने के अलावा कोई चारा भी नही था उनके पास।आश्चर्य में वे लोग थे जिन्होंने इंस्पेक्टर सौरभ को "कामचोर और निकम्मा जो सरकार की मुफ्त की रोटी तोड़ रहा है," विभूषणों से नवाजते रहे हैं,अब उनकी परिभाषाएं भी बदलने लगी थीं।


वह तरस जाता था इस मातृभूमि की सेवा के लिए लेकिन जब कभी भी उसने कुछ करने के लिए हाथ डालना चाहा।ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में धंसी व्यवस्था में उसे उसकी ईमानदारी ढलती धूप के अंधेरे सा निगल जाती।वह खुद को तरह-तरह के शूल चुभाता रहा ,जब कभी अपनी सफाई देनी चाही पूरा महकमा उसके पीछे लग गया ।उसके मन मे धूप ही धूप छाई हुई थी। जिसकी छांव के लिए कोई ठौर नही दिखता था।


आज पूरा पुलिस महकमा और समाज के वे सब लोग उसके साहस व कर्तव्यनिष्ठा को दांतों तले ऊँगली दबा कर देख रहे थे जिन्होंने कभी उसकी कर्तव्यनिष्ठा पर उंगली उठाई थी।इस विपदा में जब कर्तव्य की गोद उसे थपथपा रही थी । तब उसे लगा जैसे प्रकृति की गोद मे सिर रखकर सुकून की सांस ले रहा था।आज उसे लग रहा था कि जीवन का शून्य खत्म हो गया है।आज उसके दुश्मन सब चूहे बने अपने अपने घरों में कैद थे ।जिन्होंने केवल सरकारी खजाने औऱ आम जनता को कुतरा था । लेकिन पिछले पंद्रह दिनों से व्यवस्था की फ़िज़ा बदली बदली सी लगने लगी थी। 

सब लोग एक दूसरे के साथ श्रृंखला बनाकर इस आपातकाल से जूझ रहे थे।इन दिनों में वह कर्तव्य की गंगा में स्नान करके वह धन्य हो गया ।


अचानक तेज पड़ती धूप से आये पसीने ने उसे फिर से याद दिला दिया कि उसकी जिम्मेदारी अभी समाप्त नहीं हुई है ।उसे समझ थी कि जिस दिन उसने अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ लिया, हवा व धूप पहले जैसे ही काली पड़ जाएगी।

आज इंस्पेक्टर सौरभ को लग रहा था कि जिस ईमानदारी के कवच के सहारे उसने हलाहल पिया वह इस समाज के लिए अमृत बन गया था।














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