STORYMIRROR

कुसुम पारीक

Others

2  

कुसुम पारीक

Others

परजीवी

परजीवी

2 mins
624

तेज़ गति से बहता हुआ उज्ज्वल झरना सा था वह शुरुआती दौर में, रास्ते में जो कुछ आता गया, सब उसकी धारा में मिलता गया और अंत में एक बहती नाली का हिस्सा बन गया। नाली भी साफ पानी की नहीं ,गन्दे पानी की गन्दी नाली जहाँ ऐसे-ऐसे कीड़े भी थे जो वहीं पैदा होते और वहीं पलते हुए विलीन हो जाते। इन परजीवियों ने कभी खुद का अस्तित्व तलाशने की आवश्यकता भी नहीं समझी।


मैं भी उस कलकल बहते झरने को देखता था लेकिन कोई कोशिश नहीं की कि यह बहाव नाली में न जाकर नदी में मिले। 

मैंने कभी भी मेरे शरीर को मेहनत की भट्टी की आग में नहीं झोंका और उसी का परिणाम रहा कि अभावों ने मेरी झोंपड़ी को आरामगाह में तब्दील कर दिया था। पत्नी की जली-कटी अक्सर सुनने को मिलती ," ज़िंदगी नरक बन गई, इस करम जले, नासपीटे के मत्थे जो मढ़ गई, मेरा नहीं तो इस फूल से बच्चे का ख़याल करके ही कुछ काम-धाम कर लो।" 


दाँतों को एक तिनके से कुरचता हुआ मैं कहता," देखना, एक दिन मेरा बेटा बहुत बड़ा आदमी बनेगा।"

समय की धारा के साथ चारों ओर वातावरण में भी धीरे-धीरे मेरी उत्कट चाहत घुल गई थी और मुझे भान भी न हुआ कि मेरा बहता हुआ झरना कब उस नाले की तरफ मुड़ गया था।

एक दिन फिर पत्नी ने शिकायत की थी," बढ़ते जवान बेटे की कुछ तो खोज खबर लो, ऐसा न हो कि फिर पछताना पड़े।"

मेरा दाँत कुरचना अनवरत चालू था। क्योंकि मैं देख रहा था कि बेटा आजकल बड़ी हवेली वाले साहबजादे के साथ ही ज्यादा समय बिताने लगा था ।

अब मुझे बेटे के सुनहरे भविष्य के सपने गाहे- बगाहे दिन में भी आने लगे थे। नाले की दुर्गंध अब कुछ-कुछ मेरी झोंपड़ी में भी आने लगी थी।


अचानक आज पुलिस की जीप सायरन बजाती हुई आई और बड़ी हवेली वाले साहबज़ादे के साथ मेरे बेटे को भी पकड़ कर ले गई।

मैं काफी देर तक यही सोचता रहा, " गेहूँ के साथ परजीवी घुन को भी पिसना ही पड़ता है।"



Rate this content
Log in