सन्नाटा – जंगल के उस पार क्या था?
सन्नाटा – जंगल के उस पार क्या था?
सूरज जैसे ही पहाड़ियों के पीछे छिपा, आसमान पर गहरा नीला रंग चढ़ गया।
जंगल की पेड़ों की लकीरें काली छायाओं में बदलने लगीं।
यह वही वक्त था जब दिन और रात के बीच की सीमाएँ धुँधली हो जाती हैं —
जब हवा में एक अजीब ठंडक उतरती है, और हर पत्ता, हर शाख़ जैसे सांस रोके खड़ी रहती है।
राघव — जंगल विभाग का रेंजर, उस वक़्त अपनी जीप में बैठा हुआ था।
वह लगभग पाँच साल से इस इलाके में काम कर रहा था।
मजबूत काया, साँवला चेहरा, और आँखों में एक भरोसा जो रात की ड्यूटी करने वाले को चाहिए होता है।
लेकिन आज की हवा अलग थी — भारी और बेचैन।
पोस्ट पर उसे सूचना मिली थी —
“जंगल के पश्चिमी हिस्से से रात में अजीब चीखें सुनाई दे रही हैं। जानवरों की नहीं लगतीं।”
पहले तो सबने हँसकर टाल दिया था,
पर आज तीसरी रात थी — और गाँव के कुछ लोगों ने उस दिशा में रोशनी और परछाईयाँ देखने की बात कही थी।
राघव ने बत्ती बंद की और जीप स्टार्ट की।
रात अब पूरी तरह उतर चुकी थी।
जंगल की सड़क पर टायरों की आवाज़ दूर तक गूंज रही थी।
सामने केवल हेडलाइट की दो पीली किरणें थीं,
बाकी सब निगल लिया था अँधेरे ने।
हर कुछ मिनट में झींगुरों की आवाज़ टूटती, और फिर सन्नाटा लौट आता।
लेकिन इस बार वह सन्नाटा कुछ ज़्यादा गहरा था —
जैसे जंगल ने साँस रोक ली हो।
राघव ने जीप को धीरे-धीरे आगे बढ़ाया।
हेडलाइट की रोशनी अब बस कुछ ही मीटर तक पहुँच रही थी,
उसके आगे बस घुप अँधेरा था —
इतना गहरा कि लगता था मानो रोशनी उसमें डूब जाएगी।
पेड़ों की ऊँचाई बढ़ती जा रही थी।
उनकी शाखाएँ ऊपर जाकर एक-दूसरे से जुड़तीं,
और उनके नीचे का रास्ता एक बंद सुरंग जैसा लगने लगा।
हवा अब भी थी, लेकिन उसमें कोई जान नहीं थी —
बस एक ठंडी, गीली सी घुटन।
राघव ने स्टीयरिंग पर पकड़ मजबूत की।
पसीना उसकी हथेलियों से रिसने लगा था।
यह वही आदमी था जो जंगलों में रातें अकेले काट चुका था,
लेकिन आज उसे अपने दिल की धड़कन सुनाई दे रही थी।
अचानक जीप का टायर किसी गड्ढे में धँस गया —
एक झटका लगा और इंजन थोड़ा झटका खाकर शांत हो गया।
सन्नाटा अब और भी गाढ़ा हो गया था।
राघव ने हेडलाइट बंद कर दी ताकि वह चारों तरफ़ देख सके।
बस उसकी टॉर्च की हल्की सी सफ़ेद किरण,
और उसके नीचे तैरती हुई धूल की कणिकाएँ।
वह धीरे-धीरे जीप से बाहर उतरा।
चारों तरफ़ पेड़ों की कतारें खड़ी थीं —
हर पेड़ जैसे उसकी ओर झुका हुआ,
हर शाख जैसे उसके कदमों की गिनती कर रही हो।
उसने अपने कानों को थोड़ा ताना —
कुछ नहीं।
ना हवा का झोंका,
ना पत्तियों की सरसराहट।
बस… भारी खामोशी।
एक पल को उसे लगा,
जैसे कोई उसकी गर्दन के पीछे ठंडी सांस छोड़ गया हो।
उसका दिल उछलकर गले तक आ गया।
वह पलटा —
पर वहाँ बस धुंध थी, और धुंध के पार काली परछाइयाँ।
“कौन है वहाँ?” उसकी आवाज़ थोड़ी काँप गई थी,
पर जंगल ने कोई जवाब नहीं दिया।
बस कहीं दूर कोई टूटी डाल चरमरा उठी —
धीरे, बहुत धीरे,
जैसे कोई जानबूझकर उसे सुनाना चाहता हो कि
“मैं यहीं हूँ…”
उसने टॉर्च की रोशनी उस दिशा में डाली।
पेड़ों की जड़ों के पास कुछ हलचल हुई —
टॉर्च की किरणें काँपीं,
और उसे लगा जैसे किसी ने वहाँ से
काले साये की तरह फिसलकर दूर हटने की कोशिश की।
राघव की साँसें तेज़ हो गईं।
वह जानता था कि वह डर को खुद पर हावी नहीं होने दे सकता —
पर इस वक़्त डर किसी और चीज़ का नाम था।
यह वह डर नहीं था जो किसी जंगली जानवर से होता है —
यह वह था जो बिना चेहरा दिखाए भी आँखों में उतर जाता है।
उसने कदम बढ़ाए —
नीचे मिट्टी में उसके बूट की आवाज़ गूँजी,
और फिर उस आवाज़ को भी जंगल ने निगल लिया।
झाड़ियों के बीच कुछ चमका —
राघव झुका और देखा —
मिट्टी पर लंबे खरोंचों के निशान,
जैसे कोई भारी चीज़ ज़मीन पर घसीटी गई हो।
और थोड़ी दूर पर,
अजीब से पदचिह्न —
मानव जैसे, पर आकार कुछ बड़ा,
और उंगलियों की दिशा उलटी।
उसने अपनी टॉर्च और नीचे की ओर झुकाई —
पैरों के निशान गहरे होते जा रहे थे,
जैसे कोई भारी शरीर रेंगता हुआ गया हो।
राघव ने गहरी सांस ली —
और पहली बार उसे एहसास हुआ कि
वह इस जंगल के उस हिस्से में आ चुका है
जहाँ वह कभी पहले नहीं आया था।
हवा में अब भी वो अजीब सी ठंडक थी,
पर उसके साथ एक और चीज़ घुल गई थी —
एक डर की गंध,
जैसे मिट्टी में सड़ी हुई सांस मिली हो।
राघव ने धीरे-धीरे जीप के पास लौटना शुरू किया।
उसने पीछे मुड़कर देखा — कुछ नहीं।
बस उसकी परछाई और मिट्टी पर उसके कदमों की ध्वनि।
और फिर —
एक भारी गुर्राहट उसके पीछे से आई।
इतनी गहरी कि उसकी रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।
उसने पलटकर टॉर्च फेंकी —
एक पल को लगा, जैसे उसने किसी काले, विशाल आकार को देखा,
जिसकी आँखें अँधेरे में जल रही थीं।
उससे पहले कि वह कुछ कर पाता,
वो चीज़ झपट पड़ी।
जीप का दरवाज़ा खुला, राघव भागा, इंजन स्टार्ट किया —
पर तभी कुछ जीप के पिछले हिस्से पर धमाके की तरह गिरा।
जीप का संतुलन बिगड़ा —
और अगले ही पल, वह पलट गई।
एक पल के लिए सब ख़ामोश हो गया।
सिर्फ़ इंजन की फुसफुसाती आवाज़ और टूटे शीशे की झंकार।
राघव उल्टा पड़ा था, हड्डी में दर्द की लहर दौड़ रही थी।
उसने सांस लेने की कोशिश की — पर धूल और मिट्टी फेफड़ों में घुस गई।
और फिर उसने महसूस किया —
किसी ने उसका पैर पकड़ा है।
धीरे-धीरे, ज़मीन पर घसीटने की कोशिश…
राघव चीखा — “छोड़ो!”
उसने पूरी ताकत से पैर मारा, पर पकड़ और कस गई।
टॉर्च पलटकर उसके चेहरे पर पड़ी —
नीचे दो लंबी, सड़ी हुई हथेलियाँ उसके टखनों को पकड़ रही थीं।
उनकी त्वचा जली हुई राख जैसी थी,
और उंगलियाँ… हड्डियों जैसी पतली।
जीप का लोहे का दरवाज़ा उसके ऊपर दबा था —
वह हिल नहीं पा रहा था।
वो चीज़ नीचे से उसे खींच रही थी।
हड्डी के जोड़ चरमरा रहे थे।
दर्द उसके पूरे शरीर में दौड़ गया।
“हे भगवान…” उसने बुदबुदाया।
तभी, दूसरी तरफ़ से,
वह साया रेंगता हुआ ऊपर आया।
राघव की आँखों के सामने —
एक भयानक चेहरा, जो आधा जला हुआ था,
आँखें गहरे छेदों जैसी,
और उसके मुँह से गहरी घरघराहट निकल रही थी।
वो चेहरा उसके बिल्कुल करीब आया —
इतना कि राघव उसकी सांस महसूस कर सकता था,
जो सड़ी हुई मिट्टी जैसी थी।
राघव ने मिट्टी की एक मुट्ठी उठाई —
और सीधा उसके चेहरे पर फेंक दी।
एक कर्णभेदी चीख़ फूटी।
इतनी तेज़ कि पेड़ों की पत्तियाँ काँप उठीं।
वो साया पीछे हटा — और फिर अंधेरे में गायब हो गया।
राघव कुछ क्षणों तक वहीं पड़ा रहा,
धड़कनें उसके कानों में हथौड़े की तरह बज रही थीं।
फिर सब कुछ धुंधला हो गया।
पहली किरण जंगल के ऊपर फैली तो दृश्य भयानक था।
उलटी जीप, टूटी टॉर्च, और पास में मिट्टी से सना रेंजर —
राघव।
गश्ती टीम ने उसे उसी हालत में पाया।
पैर सूजा हुआ था, हाथ में fracture था,
और चेहरा… जैसे डर के परे किसी चीज़ को देख चुका हो।
“क्या हुआ राघव?”
“किसने हमला किया?”
वह बस चुप था।
उसकी आँखें किसी एक दिशा में टिकी थीं —
उसी पेड़ों की ओर, जहाँ रात में वो साया गायब हुआ था।
कई दिन गुजर गए।
राघव अब गाँव में था, इलाज चल रहा था।
पर रात को अब भी उसे वो आवाज़ें सुनाई देती थीं —
कभी गुर्राहट, कभी फुसफुसाहट।
वो अपने कमरे में बैठा खिड़की से बाहर देखता —
जंगल वहाँ भी था,
बस थोड़ा दूर।
एक दिन उसने देखा —
खिड़की के बाहर, धूप में मिट्टी पर दो पुराने पदचिह्न बने हुए थे।
वो ताज़े नहीं लग रहे थे…
पर कुछ तो था उनमें, जो उसे ठिठका गया।
वो दरवाज़े तक गया —
पर बाहर अब कोई नहीं था।
बस हवा चली…
और हवा में वही गंध थी —
सड़ी हुई मिट्टी की।
समापन – “सन्नाटा”
कहते हैं, उस जंगल के उस हिस्से में अब कोई गश्त नहीं लगाता।
जो भी रात में जाता है, लौटने पर कुछ न कुछ बदल जाता है।
राघव अब भी ज़िंदा है,
पर रात को जब हवा चलती है,
वह अपने कानों पर हाथ रख लेता है…
क्योंकि कभी-कभी —
सन्नाटे के बीच भी
कोई फुसफुसाता है।

