पुरानी हवेली का अंतिम दरवाज़ा —और एक रात
पुरानी हवेली का अंतिम दरवाज़ा —और एक रात
हेल्लो दोस्तो,
मेरा नाम विकास सिंग है।
मैं वाराणसी, उत्तर प्रदेश से हूँ।
ये घटना 2013 की है, और सच्चाई ये है कि—
इस रात को मैं अपनी पूरी ज़िन्दगी में कभी नहीं भूल सकता।
उस समय मैं 23 साल का था और BHU में पढ़ाई कर रहा था।
Hostel में जगह नहीं मिली थी, इसलिए मुझे अपने कुछ दोस्तों के साथ
लंका से थोड़ा अंदर एक पुरानी सी कोठी में कमरा किराए पर लेना पड़ा।
उस कोठी को हम लोग मज़ाक में “हरिहर पैलेस” कहते थे,
क्योंकि वो बाहर से जितनी बड़ी लगती थी,
अंदर से उतनी ही खामोश और सुनसान।
उस रात तक मुझे कभी भी इस कोठी से डर नहीं लगा था।
लेकिन उस एक रात में—
मैंने वो चीज़ देखी, सुनी और महसूस की
जिसके बारे में आज भी सोचता हूँ तो
गला सूख जाता है।
हमें जो कमरा मिला था, वो कोठी की पहली मंज़िल पर था।
नीचे एक बूढ़े दादा रहते थे जिन्हें सब “हरिहर काका” कहते थे।
काका बोलते कम थे, बस इतना कहते थे—
“रात में छत पर मत जाना… पुराना घर है।”
हमने सोचा कि छत कमजोर होगी, इसलिए बोलते होंगे।
उस समय किसी को शक नहीं हुआ।
पहले कुछ हफ्तों में सब ठीक ही था।
रात में थोड़ी सी सीलन की बदबू आती थी
और कभी-कभी सीढ़ियों पर हल्की खट-खट सुनाई दे जाती थी—
पर पुरानी कोठी में ये चीजें सामान्य थीं।
लेकिन एक बात हमेशा अजीब लगती थी:
कमरे में एक बड़ा सा लकड़ी का दरवाज़ा,
जिसके बाहर ताला लगा था।
काका ने साफ कहा था—
“बेटा, ये कमरा कभी मत खोलना.”
हमने पूछा क्या है अंदर?
काका बस बोले,
“खाली है पर खोलना मत.”
खाली कमरे को बंद रखने का मतलब समझ में नहीं आता था।
पर हम पढ़ाई में व्यस्त रहते थे,
इसलिए हमने उस बंद कमरे पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
17 नवंबर 2013 — वो रात...
रात करीब 1:20 का समय था।
मेरा दोस्त अजय अपने घर गया हुआ था,
और मेरा दूसरा दोस्त मोहित छत पर फोन पर बात कर रहा था।
कमरे में सिर्फ मैं था।
खिड़की से हल्की ठंडी हवा आ रही थी।
मैं headphones लगाकर assignment बना रहा था।
अचानक—
headphones के अंदर से ही मुझे लगा कि
किसी ने मेरा नाम बहुत धीरे से पुकारा।
“विकास…”
मैंने headphones उतारकर सुना।
कमरा बिल्कुल खामोश था।
मैं सोचा शायद नींद आ रही होगी।
लेकिन तभी—
किसी ने फिर वही आवाज़ कही।
इस बार तड़क कर।
इस बार बिल्कुल पास से।
“विकास…”
आवाज़ इतनी साफ थी कि
मेरी गर्दन अपने-आप पीछे मुड़ गई।
कमरे में कोई नहीं था।
लेकिन…
दरवाज़े के पास रखी स्टील की बाल्टी
धीरे-धीरे अपने आप सरकने लगी।
किसी ने धक्का नहीं दिया।
हवा भी नहीं थी।
लेकिन बाल्टी अपने आप
एक इंच…
दो इंच…
तीन इंच…
धीरे-धीरे फर्श पर खिसक रही थी।
मैं जड़ हो गया।
तभी मोहित नीचे आया और मैंने उसे सब बताया।
वो हँसने लगा—
“अरे भ्रम होगा तुम्हारा, अकेले बैठे थे ना तुम.. कुछ नहीं है।चलो सोते है.”
फिर हमने लाइट बंद की और सोने लगे।
कमरे में अंधेरा था, बस खिड़की से थोड़ी चांदनी अंदर आ रही थी।
करीब 2:45 रात…
बिल्कुल सब शांत था…
और तभी—
ठक… ठक… ठक…
वो आवाज़ उसी बड़े बंद कमरे के अंदर से आई थी।
हम दोनों उठ बैठे।
मोहित बोला, “किसी बिल्ली या चूहे ने टक्कर मारी होगी।”
मैंने कहा, “दरवाज़े पर बिलकुल लोहे का ताला है। अंदर कैसे जाएगा कोई?”
मोहित बोला, “चल, काका को बुलाते हैं।”
हमने हिम्मत करके नीचे जाने का सोचा।
लेकिन जैसे ही दरवाज़े के पास पहुँचे—
अंदर से किसी ने जोर से धक्का मारा।
धड़ामмм!
पूरा दरवाज़ा हिल गया।
ताला अपनी जगह खनक उठा।
अब मोहित भी डर गया।
हम दोनों ने एक-दूसरे को ऐसे देखा जैसे
कोई तीसरा इंसान हमारे बीच खड़ा हो।
ये पहली बार था जब उस कमरे के अंदर मौजूद किसी चीज़
ने खुद हमें जवाब दिया था।
हम काका को उठाकर लाए।
उन्होंने दरवाज़े को देखा और बस इतना कहा:
“आ गये वह…”
हम दंग रह गए।
“कौन?” मैंने पूछा।
काका ने सीढ़ियों की तरफ इशारा किया,
हमें नीचे एक पुरानी कुर्सी पर बैठाया
और एक बहुत धीमी आवाज़ में बोले—
“इस कमरे में पहले एक औरत रहती थी.”
उनकी आवाज़ काँप रही थी।
“वो अकेली थी।
औरत ठीक नहीं थी… बात-बात पर चिल्लाती,
कभी रोती, कभी रात में गाती।
"एक रात उसने अपने आप को इस कमरे में बांध लिया ...
और जब हम दरवाजा तोडकर अंदर गए..”
काका चुप हो गए।
होंठ फड़फड़ा रहे थे।
“वो जिंदा थी?” मोहित ने पूछा।
काका ने धीरे से सिर हिलाया—
“ नही…”
उन्होंने बताया कि उस औरत का दिमाग खराब हो गया था
और उसने कमरे के अंदर कुछ ऐसा किया
जो आज तक कोई समझ नहीं पाया।
उसके बाद काका ने कमरे को बंद करवा दिया।
पर—
लोगों ने कहा कि कमरा रात को
अब भी जीवित महसूस होता है।
अगले दिन रात हम तीनों (मैं, मोहित और अजय) एक साथ कमरे में सोये।
काका ने कहा था—
“लडको रात को उसे कमरे के आस पास मत जाना..."
हमने हाँ में सिर हिला दिया।
लेकिन उस रात हमें कुछ ऐसा हुआ
जिसके बाद हमारी नीयत टूट गई।
लाइट बंद थी।
कमरे में बहुत हल्का अंधेरा था, पर हमें एक-दूसरे की परछाई दिख रही थी।
करीब 1:30 रात—
खट… खट… खट…
फिर वही आवाज़।
वही बंद कमरा।
हम उठकर बैठ गए।
अजय बोला, “इसको खोल देते हैं आज।”
मैं और मोहित एकदम चौंक गए।
“पागल है? काका ने मना किया!”
अजय बोला, “कुछ नहीं होगा।”
उसने टॉर्च ऑन की।
हमें लगा शायद डर भाग जाएगा।
पर—
जैसे ही उसने टॉर्च कमरे की तरफ की…
अंदर से किसी ने फर्श पर कुछ घसीटने की आवाज़ की।
जैसे कोई भारी चीज़
धीरे-धीरे
दरवाज़े की तरफ आ रही हो।
र्र्र… र्र्र… र्र्र…
मेरी सांस रुक गई।
और अचानक—
दरवाज़े के नीचे वाले 1 इंच के गॅप से
किसी की उंगलियाँ बाहर निकलीं।
लंबी… काली… और सूखी उंगलियाँ।
जैसे खिंचते हुए मांस पर सिर्फ हड्डी बची हो।
मोहित की चीख निकल गई।
उंगलियाँ गॅप से बाहर आईं
और धीरे-धीरे
हमारी तरफ रेंगने लगीं।
मैं पत्थर हो चुका था।
अजय जमीन पर गिर गया।
मोहित पीछे रेंगने लगा।
उंगलियाँ अचानक रुक गईं।
फिर एक पल की खामोशी…
और तभी—
अंदर से एक बेहद भारी, बेहद टूटी हुई आवाज़ आई:
“मुझे… खोलो…”
मेरा दिल जैसे किसी ने निचोड़ दिया हो।
आँखों में आँसू आ गए डर के मारे।
हम दरवाज़े की तरफ भागे।
लेकिन जैसे ही मोहित ने हैंडल पकड़ा—
कमरे का दरवाज़ा अपने आप खुला,
और अंदर से हवा का एक ठंडा झोंका बाहर आया।
कोई इंसान नहीं था।
पर…
फर्श पर एक गहरा सा काला धब्बा था
जो धीरे-धीरे सरक रहा था
जैसे ज़मीन पर किसी की परछाई रेंग रही हो।
हम भागे।
सीढ़ियाँ चढ़े।
काका के कमरे में पहुँचे।
काका दरवाजा खोलते ही रोने लगे।
“तुम लोगोंने उसे बुला लिया बेटा....अब वह जाने वाली नही.”
हम उस रात काका के कमरे में ही सो गए,
पर नींद कहाँ?
लगभग 3:10 बजे—
ऊपर हमारी मंज़िल से
एक जोरदार आवाज़ आई:
धड़ाम्म!
फिर— ठक… ठक… ठक… ठक…
ऐसा लग रहा था जैसे कोई दीवार पर
अपने सिर से लगातार ठोकर मार रहा हो।
फिर किसी के भागने की आवाज़…
और फिर एकदम सन्नाटा।
उसी खामोशी में—
हमें कमरे के बाहर से
हमारा नाम सुनाई दिया।
“विकास…”
“मोहित…”
“अज–जय…”
आवाज़ ये नहीं बता रही थी कि वो किसकी है—
वो आवाज़ मानो कई लोगों की थी।
मर्द… औरत… बूढ़े… बच्चे…
सब एक साथ।
काका ने हनुमान चालीसा पढ़ना शुरू कर दिया।
और कुछ मिनट बाद सब शांत हो गया।
सुबह होने का इंतज़ार हम नहीं कर पाए।
और कोठी से भाग निकले।
काका दरवाज़े पर खड़े थे।
उनकी आँखों में एक अजीब-सी उदासी थी।
हम बिना पीछे देखे वहाँ से चले गए।
और फिर कभी वहां वापस नहीं गए।
आज— 12 साल बाद जब मैं यह कहानी लिख रहा हूँ,
मेरी उंगलियाँ काँप रही हैं।
कभी-कभी रात में,
जब कमरा बिल्कुल शांत होता है,
तो ऐसा लगता है—
मेरे कमरे के बाहर
धीरे-धीरे कोई अपना हाथ घसीट रहा है।
“र्र्र… र्र्र… र्र्र…”
और तभी गले के पास
एक टूटी हुई, जली हुई आवाज़ आती है—
“विकास… खोलो…”
और मैं आज भी
उस दरवाज़े को खोलने की हिम्मत नहीं कर पाता।

