संज्ञा हीन

संज्ञा हीन

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नव माह माँ की कोख मे बड़े ऐश से बिताने के बाद, दादी के पूजा पाठ, माँ की मनौती, पिता की उम्मीदें, सब धरा का धरा रह गया।

कानों में सीसा उड़ेल दिया हो, मातम पसर गया, माँ ने मुख फेर लिया, दादी रो पड़ी, बहनों को उनका भाई दिखाने की चाहत के साथ आये पिता उल्टे पैर लौट गये अस्पताल से।

लड़की हुई है। मैं रोती रही, रो रो कर गला सूख गया। प्राण अब निकले की तब। शहद से भरी उंगली होठ से चिपक गई। ये मिठास हमारे प्रेम का सम्पर्क सूत्र बन गई। दादी कुछ महीने मेरी देखभाल कर गाँव लौट गई। मैं तिरस्कृत, मन्द बुद्धि, डरी सहमी, बहिनों की उतरन पहन बढ़ती रही,दया की पात्र बन।

शायद जिन्दगी ऐसे ही कटती संज्ञा हीन अगर दादी मुझे अपने साथ गाँव न ले जाती। बड़ा सा घर, पशु धन, खेत, खुली हवा रास आ गई।

स्कूल गई, संज्ञा दी गई-सुभागी। अच्छे नम्बरों से कक्षा में पास होने लगी। सबकी लाड़ली, भाग्यवती दादी की पोती सुभागी। शाम को मैं दादी को अक्षर ज्ञान देती, मेरे कद और कक्षा के साथ साथ, शाम की प्रौढ़ छात्रों की संख्या मे भी वृद्धि होने लगी। अब तो पढाई के साथ स्वरोजगार, चौपाल, समस्यात्मक, देश, विदेश सम्बंधी चर्चाएँ होने लगी।

एक दिन मैने सुना दादी किसी से कह रही थी- "कह दीजो रतन से, उसे कानी कौड़ी भी न मिलेगी मेरे से, मैंने सब सुभागी के नाम कर दिया है।"

"भाग्यवती पाठशाला"

हाँ यही नाम है शिक्षा केंद्र का, दादी को श्रद्धांजलि है, सुभागी की।


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