Sheela Sharma

Inspirational

4.5  

Sheela Sharma

Inspirational

संजीवनी

संजीवनी

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धूप की खिलखिलाहट ,पक्षियों की चहचहाट सुनते ही रमा कां मन मृगी सा कुलांचे भरने लगा। जल्दी से दरवाजा खोल करवह बाहर आ गई। उसकी ये दुनियाँ सब रंगों से सरोबार है। लहलहाते डालों में लिपटी सब्जियों को बाहों में भरकर वह भाव विभोर हो उठी। इतने रंग जीवन में कभी उसने एक साथ नहीं देखे थे। लाख जतन करने पर भी एक को सम्हालती तो दूजा फिसल जाता। था उसने कृष्णा को आवाज दी " जल्दी आ कृष्णा तैयार सब्जियों को तुड़बा कर ,तोल कर पैक करवा दे ,पर जरा सावधानी से ,कहीं गिरकर ये वदरंग न हो जायें। कृष्णा हँस दी ,दीदी का बश चले तो इन्हें यूँ ही निहारती रहें ,किसी का छूने न दें. इन्हें सदा भय रहता कहीं इनको चोट न लग जाये और ये मुर्झा जायें। कृष्णा जानती थी रमा की मार्मिक सवेदनाओं को

आठ वर्ष पूर्व रमा की बेटी उसे वृद्घाश्रम में लेकर आई थी "अम्मा अकेली तुम कहाँ रहोगी?इस जगह तुम्हारे सरीखे बहुत लोग हैं, सेवा सुश्रूषा होगी मन भी लगा रहेगा। उचित अवसर आने पर मैं तुम्हेँ लेकर जाऊँगी"कहकर वह चली गई। तब से रमा अपने आपमें प्रतीक्षा शब्द का अर्थ खोजने में असमर्थ ही रही

घर के जिस ऑगन में दोनों बेटों की किलकारियाँ गूँजती थी ,हॅसी के फौआरे छूटते थे। वही ,बेटे विवाह के ही कुछ वर्षों बाद घर के दो टुकड़े करवा का अलग अलग रह रहे थे। भाग्य कहें या क्या कहें,उसने दोनों की शादी ठोक बजा कर,अपनी पसन्द की लड़कियों से करवाई थी,लेकिन जिन घड़ों को वह ठोक बजाकर लाई थी,वही घड़े पानी पड़ते ही रिसने लगे थे। वह आवाक थी किसके पास रहे,दोनों ही तो उसके अपने थे,किन्तु वह केवल सोच ही सकती थी। किसी बेटे ने यह नहीं कहा"माँ तुम मेरे साथ रहोगी"? वह समझ चुकी थी बेटे अपनी पत्नियों के आधीन थे। वह मौन सबकुछ अपने कक्ष से देखा करती थी,किन्तु कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं होती थी। सोचती थी "स्त्री पुरुष में जब प्रेम करते हैं तो प्रत्युत्तर की कामना से करते हैं। पर अवोध शिशु को दुलारते समय ऐसी कोई भावना नहीं रहती ,देते रहने में ही पूर्ण तृप्ति मिलती। विशाल अनंत्सागर सा होता ह्रै ये प्रेम का रुप ,जी भरकर एक को देने के बाद भी दूसरे के लिये कम नहीं पड़ता। पता नहीं बेटे बहुयें इस बात को कब समझ पायेंगें क्या ये भूल जाते हैं कि कल जब उनकी जीवनसंध्या हो रही होगी,बे भी अशक्त और बूड़े हो जायेंगे तब उनका भी यही हश्र हो सकता है" ?

उसे तो यह भी मालूम नहीं रहता आज का भोजन किसकी तरफ से आयेगा। आयेगा भी या नहीं? कभी कभी तो वह भूखी ही रह जाती थी ,माँ का तो बँटबारा नहीं हुआ था। दोनोंबेटे अपनी जिम्मेदारी एक दूसरे के ऊपर डाल कर निश्चिंत हो जाते थे 

उसे अपनी परवरिश पर बड़ा ही नाज था। जब भी किसी स्त्री की दुरावस्था देखती थी यही कहती थी "उसके पालन पोषण में कहीं कमी रह गई होगी,वरना आज ये दिन क्यों पड़ते? " किन्तु जब स्वयं पर गाज गिरी तब उसे अपनी गल्ती समझ में आने लगी थी। दूसरों को अपने बच्चों की नकेल को कस कर पकड़ने की सलाह देने वाली क्या स्वयं बेटों की नकेल कस कर पकड़ सकी थी ? 

मॉ की यह दुर्दशा बेटी से नहीं देखी गई,वह उसे अपने घर ले आई। दो तीन महीने तो ठीक ठाक बीते,किन्तु एक तरफ तो उसका अपना परिवार और द्सरी तरफ भाइयों का उलाहना। आये दिने आकर कहते माँ को :अपने यहाँरख कर समाज में उनकी इज्ज़त का ढिढोरा पीट रही है, अम्मा जैसी भी हैं अपने घर में ही ठीक है। अब सास ससुर को भी रमा की उपस्थिति खलने लगी थी। इस बात को रमा अच्छी तरह से समझ रही थी,कहीं उसके कारण बेटी का जीवन अस्तव्यस्त न हो जाये . उसने समय रहते किनारा करने की सोची ,पर दुर्भाग्य अचानक सीडियों से फिसल गई। डाक्टर ने आराम करने की सलाह दी। हालात अब और बदतर हो गये थे, इस उम्र में हड्डी जल्दी से नहीं जुड़ेगी सासुजी ने सुझाया बेहतर यही होगा कि रमाजी कोउनके अपने बेटों के पास भिजवा दो। बदलते हालातों को देख ,बेटी उसे इस आश्रम में छोड़ गई . रमा ने भी अपने आपसे समझौता कर लिया था

उसे पैसों का इतना अभाव नहीं था,जितना अपनों का। रमा अपने ही विचारों में मग्न थी कि कृष्णा ने उसे कन्धे से झकझोर कर हिला दिया "खाने की घण्टी नहीं सुनाई दे रही? यहाँ महारानी की तरह थाली तुम्हारे हाथों में नहीं मिलेगी ,चलो सभी भोजनकक्ष में जा चुके हैं ,हमदोनों को छोड़कर। तुम्हें नहीं मालूम आज बहुत दिनों बाद मिसराइन ने रवाने में भरवाँ बैंगन और खीर बनाई है। आज तो खाने का आनंद कुछ और ही होगा धीरे धीरे रमा और कृष्णा की मित्रता होने लगी,जबकि कृष्णा का रौवीला अन्दाज,अक्खड़ बोली किसी को भी पसन्द नहीं आती थी,पर इन दोनों में अच्छा सामंजस्य था,शायद दोनों का दुःख एक था। यों तो आश्रम में रहने वालों के अपने अपने किसी न किसी प्रकार के दुःख थे,किन्तु इन दोनों की मित्रता ,उनका आपसी सद्भावनापूर्ण व्यवहार,उन दोनों को एक सूत्र में पिरोये हुये था। दोनों को अपने घर लौटने की आशा थी। वे एक द्सरे को अपने साथ,अपने घर ले जाने की बातें करतीं ,पर रमा मन ही मन डरती कोइ लेने नहीं आया तो? पर कृष्णा की आशावादी द्रष्टि रमा के मन के कौने में आशा की एक लौ जलाये हुये थी,शायद कहीं बच्चों को उसकी कमी महसूस हो,कभी जरूरत पड़ जाये

कितनी बरसातें आई,सावन बीते,कितनी होली दीपावली आईं,पर वे नहीं आये जिनकी उसे प्रतीक्षा थी। प्रतिवर्ष दीपावली पर रमा पटाखे फुलझड़ी लाती,पर वे बिना जले पड़े रह जाते। हर वर्ष होली बेरंग बीत रही थी। कहां गये वो अवीर ,गुलाल ,लाल हरे रंग की पिचकारियाँ? आश्रम में होली पर गुझिया बनती,रंग आते सभी मौज मस्ती करते,किन्तु उसे अपने यहाँ की होली याद आती थी। पन्द्रह दिन पहले से तैयारियाँ शुरु हो जाती थीं,पापड़,चिप्स,सेव मठरी बनाते,घरोंघर अड़ोस पड़ोस में जाकर गुझियाँ बनाते बनबाते,हँसी ठिठोली करते दिन कैसे बीत जाते थे पता ही नहीं चलता था। कहाँ गये वो सुनहरे दिन? पति के गुजरने के बाद जीवनसंध्या इतनी बदरंग हो जायेगी इसकी कभी कल्पना नहीं की थी ,परअब तो यही सत्य मुँह बाये सामने खड़ा था।  

जीवन के इस कड़बे सत्य को स्वीकारने के बाद भी रमा का मोहभंग नहीं हुआ था। आशा और आशा ,यादें और यादें------ यही तो धरोहर थी उसकी ' 

दोनों सहेली अपने अपने गम में डूबी एक दूसरे के साथ थीं। रमा"तुम मेरा एक काम करोगी" "क्या कहो दीदी ,ऐसा कौन सा कार्य बाकी रह गया है" कृष्णा ने ठिठोली की लेकिन रमा की ओर देखकर सहम गई। रमा शून्य को निहार रही थी,ऐसा लग रहा था कि इस दुनियाँ से दूर वह अन्जानी दुनियां में विचरण कर रही हो। उसने कृष्णा के ठिठोलेपन का भान नहीं था "मैने अपने पोताबहू के लिये हाथी के मुँह बाले कड़े बनबाये थे ,सोचा था मुँहदिखाई में दूँगी लेकिन अब ऐसा लगता है कि उस समय को आने में देर है। अब अपना जीवन ही कितना शेष है ? कहकर रमा सिसक पड़ी "अच्छा एक बात बता,हम मातायें अपने रक्त से. अपने बच्चों की शिराओं को सींचती हैँ ,उन्हें जीवन प्रदान करती हैं,उनके सुख के लिये अपना सर्वस्व उत्सर्ग करने के लिये तत्पर रहती हैं। ये जानते बूझते हुये भी ये बच्चे इतने र्निमोही कैसे हो सकते हैं ? कृष्णा कुछ न कह सकी। केवल उनका हाथ पकड़ कर ढांढस देती रही और कर भी क्या सकती थी,भला एक अन्धा दूसरे को क्या राह दिखा सकता है? वह रमा को साथ में लेकर अपने कमरे में आ गई।  उसने एक छोटी सी सन्दूकची खोली जिसमे लाल ऊनी स्वेटर ,टोपी,छोटी छोटी जुराबें ब चांदी की दूध की बोतल् थी। "देखो रमा,ये सारा सामान मेरे चीकू का है। जब भी इनको देखती हूं ऐसा लगता है कि चीकू मुझे कसकर पकड़े हुये है,बार बार आँचल हटाकर बगल में मुँह मारता है,गालों को पकड़ता है,मेरी अम्मा कहकर धम्म से गोद में बैठ जाता है। अभी भी इन सामानों में कच्चे दूध की वू आती है यही मेरी थाती है। और दोनों इसी तरह की बातें करके ,अपना जी हल्का कर, बापस आश्रम के कार्यों में लग जातीं थीं।  

धीरे धीरे रमा का मन संतानसुख से वंचित ,लावारिसों की तरह जिन्दगी जीते प्यार के दो बोल सुनने को तरसते लोगों को देख कर ,विचलित होने लगा था। क्या हम सभी का यही अन्त है? हर स्त्री चाहे कितनी ही सम्पन्न क्यों न हो ,उसे अपने अस्तित्व,स्वामित्व अपनत्व की आवश्यकता होती है। यहाँ रहने बाले सभी उसके अपने हमसफर,सखा सब कुछ तो हैं ,फिर भी इतनी बैचेनी ,अवसाद एकाकीपन क्यों? अब उसे इस केंचुल में बन्द होकर नहीं जीना। अध्ययन अध्यापन सब चुक गये . अब उन्हें फिर से आत्मसात करना है। नैराशय में नहीं जकड़ना है।  अब अन्य कोई नहीं हमें ही अपने डगमगाते कदमों में आत्मविश्वास को भरना होगा।  

रमा सोचने लगी,यदि किसी रचनात्मक कार्य को अपना आधार बना लें तो ध्यान इन यादों से हटकर सब सहज हो जायेगा। मुझे ही अब स्वयंसिद्धा बन कर ,इन सबका सहारा बनकर ,इनके साथ आत्मविश्वास से उन्मक्त होकर आकाश को छूना है।  

रात्रि के भोजन उपरान्त सभी स्त्रियाँ रमा को घेर कर खड़ी हो जातीं थीं। वह किसी की कढ़ाई बुनाई देखती,किसी का लेखन सभी आपस में मोरंजन करती सभी अपने अपने कामों में मग्न रहती ,पर रमा का मन उचाट रहता . 

वह करे भी तो क्या करे? इसी उधेड़बुन में दोनों सुबह से शाम तक लम्बी लम्बी योजनायें बनाती जो दिन ढले अँधेरे में खो जाती। एक दिन जब रमा चाय पी रही थी। उसने मिसराइन को पड़ोसी के आँगन में कुछ तोड़ते देखा। कोतहूलवश वह भी गयी। वहाँ आँगन में लगी पालक ,मैथी,धनिया देख कर आश्चर्य से भर उठी इतनी छोटी सी जगह में सब्जी लगा कर ,ताजी सब्जी और हरियाली दोनों का आनंद। ! उसकी ऑखों में यकायक चमक जाग उठी। वह दौड़ती हुई कृष्णा के पास आई" मैंने निश्चय कर लिया है हम सब्जी उगायेगे,इसमेंलागत भी कम और काम ऐसा जो सबके सहयोग से हो जायेगा। बस फिर क्या था कारवॉ चल् पड़ा नई मंजिल की ओर।  

वृद्धाश्रम से निकलना,नई राह पर चलना,सफलता प्राप्त करना क्या ये निर्णय सही है? कुछ ऐसे सवालात सभी के मन में उठ रहे थे , पर नई राह भी तो ढूँढनी ही ेेहागी। पास के गाँव में रमा की अपनी हवेली थी,जो बर्षों से वीरान थी पति थे तब उसकी देखभाल करते थे। उनके बाद बच्चों के लिये तो गाँव जाना ही पिछड़ेपन की निशानी थी,इसलिये उस जमीन से उनका कोई सारोकार नहीं था। हबेली झाड़ झंकारों से भरी,

खण्डहर भुतहा नजर आ रही थी। एकबारगी सभी विचलित हो गये,पर रमा के साथ उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।  सभी में कुछ कर गुजरने का जोश था ,कुछ अपनी जोड़ी हुई जमांपूजी थी ,दृणनिश्चय था।  

नई भोर उदित हई। हवेली के आसपास की जगह साफ होते ही बड़ा मैदान दिखाई देने लगा था। इतनी बड़ी जगह में कुछ न कुछ तो ही लेंगे ,यह सोचकर सभी उत्साहित हो उठे। जमीन की खुदाई,गुड़ाई खाद इत्यादि डालकर,तीनों तरफ सब्जियों के बीज बो दिये गये , चौथी तरफ फलों के पौधे लगा दिये गये

आरम्भ में काम करने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। सुविधायें भी उपलब्ध नहीं थी। पर वक्त के साथ बरकत होने लगी थी. सभी के मन में आशा की किरण जाग उठी। यदि ज्यादा तादाद में इन्हें उगायेंगे तो और आमदनी का साधन बन जायेगा. अब उनके फल सब्जी शहर के अन्य वृद्धाश्रम में और अन्य स्थानों में भी जाने लगे थे. 

कुछ जमीन और खरीदी गई जिसमें दशहरी आम का बगीचा लगाया गया . जब उस जगह के नामांकरण की बात आई तब सभी ने उसका नाम "संजीवनी" रखा क्योंकि सभी के मन में यही भाव थे कि जब बढ़ती उम्र में हमें बच्चों के मनोबल और सहारे की जरूरत थी तब हमारे ही बच्चों ने हमें निकृष्ट, निस्सार ,निश्चेष्ट समझ कर वृद्वाश्रम में भेज कर अपने कर्तब्यों की इतिश्री कर ली थी ,तब इसी भूमि ने हममें नई आशा, कर्मठना, कर्मण्यता भरी . हमारी नई सृजन की चेतना जगाई अतः इसका नाम संजीवनी ही सटीक बैठता है।  

दिन ,महीने, बर्षों के साथ "संजीवनी "आसपास चारों तरफ दशहरी आम और ताजी सब्जियों के लिये जाना जाने लगी। किसी के पास अब न तो अतीत की ,न भविष्य की सोच थी। वे सभी जागरूक रहते तो वर्तमान के लिये ,क्या करना और कैसे आगे बढ़ना है। ?

बर्षों बाद अचानक "दीदी आपका फोन है" कृष्णा ने कहा। "क्या आज कोई खास दिन है,? मेरा तो फोन से दूर दूर तक वास्ता नहींहै। यह विभाग तो तुम्हारा है" तब तक कृष्णा ने उसे फोन पकड़ा दिया" हैपी मदर्सडे अम्मा" " रांग नम्बर" कह कर रमा ने फोन रख दिया। घण्टी फिर बज उठी "आपको कौन चहिये?" उसने पछा " तुमने मुझे नहीं पहचाना अम्मा? तुम्हारा अपना छोटू . आज मातृदिवस है तुम्हारी बहुत याद आ रही थी" वह स्तब्ध रह गई, उसके मुँह स बोल नहीं फूटे। आँखें झरझर बहने लगी,जिव्हा ताल् से चिपक गई थी ' " क्या हुआ अम्मा? तुम ठीक तो हो ,हम तो हर महीने पूरे पैसे भेजते हैं क्या आपको नहीं मिले?."यह सुनते ही रमा के आँखों के आँसू अंन्गारे में बदलने लगे। उसने बिना कुछ कहे रिसीबर रख दिया। कृष्णा समझ गई किसका फ़ोन था।  उसने दीदी को कठिन से कठिन परिस्थितयों में भी शान्त और संयमित देखा था। उनका रौद्र रूप देखकर ,वह सबको बुला लाई। " सुनो ,सुनो आज रमादी को व्हाइट हाउस से रात के खाने का निमंत्रण मिला था। पर इहोंने मना कर दिया "। माहौल फिर खिल उठा।  

संजीवनी में अब नियम बन गया ,किसी को भी अपने।  घर से पैसों की सौगात नहीं लेनी है। यहाँ हमारा अपना भरापूरा परिवार है और सभी सदस्य स्वयंसिद्ध हैं . रमा और कृष्णा अब सभी बृद्धाश्रमों में जा जा कर उन्हें आत्मविश्वासी बनने के लिये प्रेरित करती हैं" बच्चों द्वारा अलग किया जाना या होजाना जीवन का पड़ाव है ' और उस पड़ाव के बाद का जीवनक्रम चलाने के लिये ,जीने के लिये रसद रकम जरूरी होती है इसलिये निराश, हताश न होते हुये, चुनौतियों का सामना करने के लिये ,नया जीवन शुरु करना ही जीवनकला का कलाकार बनना है उसी का नाम संजीवनी से भरकर स्वयंसिद्ध बनना है"


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