संझा माता

संझा माता

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जब हम छोटे थे तो गाँव में लड़कियों को घर या कहें कच्ची मिट्टी की दीवारों वाले घर रहते थे पर गोबर से लिप कर उस पर *संझा माता*बनाते देखतें थे, 

 ये त्यौहार दीवाली के आसपास अक्सर देखा है हमने *मालवा* में हम भी अपनी सहेलियों के साथ पहले तो उस लीपी हुई जगह पर चूने के घोल से एक कपड़ा का टुकड़ा या उंगलियों से फूल, बेल बनाते फिर एक दीपक जला कर घर-घर जाकर *संझा माता*वाला लोक गीत गाते मुझे तीस साल हो गए वैसे वो लोक गीत भूल गई हूँ *संझा माता आई है, संझा माता आई है तेरे द्वार... जिस घर जातें थे, तो जो *संझा माता के गाने में**सुख-समृद्धि की और वैभव, शांति*** की प्रार्थना करती थी। लड़कियां को उस घर के बड़े -बूढ़े ख़ुश हो पैसे देते थे । जैसे :-चार आना, दस पैसे, पचास पैसा बस रोज़ हर घर से मिलते थे।

हम बच्चे सात दिन तक पैसा इकट्ठा करते, दीपावली के बाद उन पैसों से एक छोटी सी पार्टी करते कहीं दुकान से चने, मूंगफली, गुड़ खरीद लाते और खूब मज़े से खाते थे। ये होती थी*संझा माता*हमारी लोक प्रथा। 


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