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सम्मान

सम्मान

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नयी दिल्ली स्टेशन पहुँच गए थे। आखिर उनकी बेगम रज़िया जो आ रही थीं जयपुर से। ज़्यादा नहीं बस छब्बीस साल का फर्क था दोनों की उम्र में, जनाब रहमत पचास के और उनकी ये तीसरी शरीक-ए-हयात चौबीस की दहलीज़ छूने की तैयारी में थीं। पहाडगंज से लेकर अजमेरी गेट साइड तक कई बार घूम चुकने के बाद और प्लेटफार्म पर कई बार चहलक़दमी करने के बाद भी जब मुश्किल से साढ़े दस ही बजे तो वो एक बेंच पर बैठ गए। तभी पीछे से एक अजनबी युवक ने आकर कहा “आप रहमत साहब हैं न? आपको याद नहीं होगा लेकिन मेरे पिताजी ने आपसे पांच हज़ार रुपये उधार लेकर मेरे लिए ये दुकान शुरू की थी। आप मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं। आप अगर मेरी दुकान से कुछ खा लेंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा, क्या लाऊं आपके लिए?” उस युवक की आँखों में अपने लिए इतना सम्मान देखकर रहमत मियाँ ख़ुशी से फूल उठे बोले“ “मैं किसी को लेने आया हूँ उन्हें भी आने दीजिये तब कुछ खाते हैं” ट्रेन आने के बाद उन्होंने रज़िया की मीठी बातों के साथ सुनील की दुकान से ली गयीं कोल्ड ड्रिंक्‍स का पूरा लुत्फ लिया और जब पैसे देने लगे तो उसने हाथ जोड़ लिए नहीं साहब, “आपसे पैसे नहीं लूँगा।” रहमत साहब इस सम्मान से गदगद थे रज़िया थोड़ी दूरी पर एक बेंच पर बैठी थी उन्होंने कहा,“नहीं भाई आपकी दुकान से पहली बार कुछ खा रहे हैं और हम आपसे बड़े हैं पैसे तो आपको लेने ही होंगे” सुनील ने कहा साहब आपका बड़ा एहसान है मुझ पर।” उसने रज़िया की तरफ इशारा करते हुए कहा “और फिर मेम साब क्या सोचेंगी? नहीं.... नहीं... मैं पैसा नहीं लूँगा, आपकी बेटी आखिर मेरी भी बहन हुई न? उनसे पैसे लेकर पाप का भागी नहीं हो सकता” हालांकि सुनील की सोच बहुत ही पवित्र थी मगर रहमत मियाँ का चेहरा तमतमा गया। उनके दिल में आ रहा था उसके मुंह पर पैसे दे मारे मगर उन्होंने गुस्से से अपने दांत दबाकर बस इतना कहा, “ठीक है बरखुरदार” सुनील ने हाथ जोड़ लिए “बहुत बहुत धन्यवाद साब आज मेरी दुकान धन्य हो गयी।” सुनील ने अपनी तरफ से उनका पूरा सम्मान किया था मगर ये वाला सम्मान उनके दिल को अन्दर तक चीर गया। उन्होंने ज़ोर से रज़िया का हाथ पकड़ा और एक झटके के साथ प्लेटफार्म से बाहर निकल गए।


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