Pradeep Ray

Inspirational Others

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सखा-अ वेल विशार (भाग -8)

सखा-अ वेल विशार (भाग -8)

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ऋषि... तुझे मानना तो होगा तुझे हमारी दोस्ती का वास्ता अब तू चाहें तो ये वास्ता तोड़ दे। अगर तूने वास्ता थोड़ा तो हमेशा हमेशा के लिए हमारी दोस्ती खत्म हों जायेगा। अब फैसला तुझे लेना हैं। दोस्ती का वास्ता तोड़ना हैं या फ़िर हमेशा हमेशा के लिए अपने दोस्त को खोना हैं।


हमारी दोस्ती न टूटे उसके लिए न जानें कितनी मेहनत किया मगर हाथ क्या लगा एक बार फ़िर से दोस्ती टूटने की बात बीच में आ गईं। इसलिए मजबूर होकर मुझे उसका कहा मानना पड़ा। उस दिन हम एक दूसरे से लिपट कर बहुत रोए क्योंकि हम दोनों अच्छे से जानते थे। अब हमारी मुलाकात में बहुत वक्त लगाने वाला है कितना वक्त लगेगा ये न मैं जानता था न ही ऋषि अगर कोई जानता था तो वो है समय चक्र, एक बार फ़िर से मेरी जंग शुरू हो गई। इस बार की जंग बहुत अलग था। इस बार की जंग में मेरा दोस्त मेरे साथ नहीं था। वो दिन और आज का दिन इस बीच हमारी मुलाकात नहीं हुआ। सिर्फ फोन पर बात करके खुद को तसल्ली दे लिया करता था। वो भी लगभग दो साल बाद बंद हों गया जब भी फोन करता एंगेज ही आता मैं इस उम्मीद में कॉल करता कभी तो बात हों जाएगा लेकिन हर बार खली हाथ ही रहा। मन करता  गांव जाकर मिल आता हूं मगर उसका दिया वास्ता मेरे कदम को रोक लेता था। किसी तरह खुद को समझा बुझाकर रखता रहा और अपने काम पर ध्यान देता रहा। लगभग छा साल तक नौकरी किया जिससे अच्छी खासी दौलत कमा लिया जिस कारण समाज में मेरा अच्छा रुतबा बन गया। तब मैं ऋषि से मिलने गांव गया। वहां जाकर देखा ऋषि का घर खाली पड़ा हुआ था। लोगों से पता किया पर उन लोगों ने ऋषि के बारे में कुछ भी बताने से मना कर दिया। मैं बार बार जाता रहा मगर हर बार खाली हाथ लौटा। 


बार बार आने जाने से मुझे इतना तो पता चल गया था कि ऋषि ने अपना घर और जमीनें किसी को बेचा नहीं यहां जानकर मुझे लगा मैं बार बार आता रहा तो कभी न कभी ऋषि से मुलाकात हों जायेगा। इस बीच मेरी मुलाकात तुमसे हुआ मेल जोल बड़ा जो धीरे धीरे प्यार में बादल गया और एक वक्त बाद हम दोनों ने शादी कर लिया। दादी का भी जानें का समय हों गया था। उन्होंने मेरा हाथ तुम्हें सौंपकर इस धारा से विदा ले लिया। शादी के बाद तुम्हारे कहने पर मैंने खुद का बिजनेस शुरू किया। आज मेरे पास सब कुछ है अगर कुछ नहीं हैं तो वो है मेरा दोस्त ऋषि, न जाने ऋषि कब मिलेगा। मिलेगा या नहीं मैं नहीं जानता...।


शालिनी...मिलेगा क्यों नहीं, मिलेगा जरूर मिलेगा इस बार हम दोनों मिलकर ढूंढेंगे।


"कहा ढूंढूं मैं जानता ही नहीं कि वो कहा हैं किस हाल में हैं।"


शालिनी... कहीं से तो शुरुआत करना होगा अच्छा ये बताओ गांव कितने वक्त से नहीं गए।


"यही कोई चार पांच साल हों गया।"


शालिनी... चलो फ़िर हम तुम्हारे दोस्त को ढूंढने की शुरुआत गांव से ही करते हैं।


"वहां से मगर ऋषि तो वहां हैं नहीं।"


शालिनी... क्या पता वो गांव में ही हों क्योंकि तुम पिछले चार पांच साल से गांव नहीं गए। अगर ऋषि भाई साहब नहीं मिले तो किया हुआ इसी बहाने मैं तुम्हारा गांव भी घूम लूंगी।


इतना कहा कर शालिनी मुस्कुरा दिया। मुझे लगा उसके मुस्कुराने की वजह कुछ और हैं मगर मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। दो तीन दिन बाद गांव जानें का समय तय हुआ। नियत दिन को मैं, शालिनी और पार्थ गांव के लिए चल दिए। मैं जा तो रहा था मगर बार बार ये ख्याल मेरे मन में आ रहा था कि इस बार फिर से  मुझे खली हाथ लौटना पड़ेगा। क्या होगा ये तो समय ही बता सकता हैं। लम्बा सफर तय करके हम गांव पहुंच गए। गांव की दशा अब पहले जैसा नहीं रहा इन चार पांच सालों में गांव बहुत बादल गया। रास्ते पहले से बहुत बेहतर हों गया। पहले एक दुक्का, पक्का मकान देखने को मिलता था अब वहाँ प्रत्येक घर पक्का मकान बन चुका था। इन्हीं नजारों का लुत्फ लेते हुए हम तीनों जा रहें थे कि अचानक गांव के चौपाल पर मुझे एक जाना पहचाना चेहरा दिखा, कार को रोककर उस शख्स को ध्यान से देखा तब  उसे पहचाने में वक्त नहीं लगा मैं तुरन्त ही कार से निकला और उस ओर बढ़ गया। पास जाकर "ऋषि" बस उसका नाम बोला और उससे लिपट गया। "कौन हो भाई" बस इतना ही ऋषि बोल पाया उसके बाद उसका मुंह भी बंद हों गया फ़िर वो भी मुझसे लिपट गया। कुछ वक्त तक हम दोनों एक दुसरे से लिपटे रहे फिर अलग होकर मैं बोला...ऋषि कहा चला गया था यार।


ऋषि...पहले घर चल फ़िर तेरे सभी सवालों का जवाब देता हूं। चल जा अपनी कार में बैठ और मेरे पीछे पीछे चल दे।


इतना बोलते ही ऋषि बगल में खड़ी अपने कार में बैठ गया और मैं भी अपना कार लेकर उसके पीछे पीछे चल दिया। जब हम ऋषि के घर पहुंचे तो उसका घर पहले से बिल्कुल बदल चुका था एक आलीशान कोठी नजर आ रहा था। मेरे दोस्त ने मेरे साथ साथ खुद भी बहुत अच्छी तरक्की कर लिया था ये देखकर मेरे दिल को बहुत शकुन मिला। 


कुछ ही वक्त में हम उस आलीशान कोठी के अंदर थे। "साक्षी कहा हों देखो कौन आया हैं।" इतना बोलकर ऋषि ने किसी महिला को आवाज दिया। तुरंत प्रतिउत्तर में "जी अभी आई" की आवाज़ सुनाई दिया। एक या दो मिनट के अंतराल पर एक महिला सीढ़ी से उतरकर नीचे आने लगीं। उनको देखते ही "ये तो शालिनी की सहेली हैं।" बस इतना ही कहा और पलट कर देखा तो शालिनी पार्थ को गोद में उठाए मुस्कुरा रहीं थीं। मैं अचंभित सा शालिनि को देखता रहा तब शालिनी मुस्कुराते हुए बोली... क्या हुआ पहचान नहीं पाए, कितनी बार इससे मिल चुके हों फिर भी भूल गए।


"साक्षी को भुला नहीं पहचानता हूं बस तुम मुझे इतना बताओ जब तुम जानती थीं साक्षी की शादी ऋषि से हों रहा हैं तब तुमने मुझे बताया क्यों नहीं।"


वो क्या बताएगी (साक्षी पास आते हुए बोली) उसे थोड़ी न पता था तुम दोनों दोस्त हों वो तो शादी में आने के बाद ही उसे पता चला ऋषि और तुम, दोनों बहुत गहरे दोस्त हों। निमंत्रण तो तुम्हें भी दिया था अगर उस वक्त आ जाते तो निश्चित ही दो साल पहले ही तुम्हें तुम्हारा दोस्त मिल चुका होता। जिससे मिलने के लिए कब से तड़प रहे हों।


दरसल साक्षी की शादी के वक्त साक्षी ने हम दोनों को निमंत्रण दिया था मगर मुझे बिजनस के शिलशिले में कुछ जरूरी काम था इसलिए मैं नहीं आ पाया, शालिनी और पार्थ को भेज दिया था लेकिन जब साक्षी ने कहा शालिनी शादी में आकर ही ऋषि से मिला था तो मेरे मस्तिष्क में खलबली मच गया कि शालिनी न कभी ऋषि से मिला न ही कभी मैंने उसे ऋषि के बारे में बताया तो फ़िर शालिनी ऋषि को पहचाना कैसे, इन बातों पर मानसिक खींचातानी करने के बाद जब कोई नतीजा नहीं निकला तो मैं बोला...शालिनी तुम मुझे बस इतना बता दो तुम ऋषि को कैसे पहचाना जबकि मैंने तुम्हें न कभी ऋषि से मिलवाया न कभी ऋषि के बारे में बताया।


To be continued….


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