Pradeep Ray

Others

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सखा-अ वैल विशार (भाग-3)

सखा-अ वैल विशार (भाग-3)

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इतना बोलकर शालिनी मुझे डायरी देने आ ही रहीं थीं कि डायरी उसके हाथ से छुट गई। फर्श पर गिरते ही, फर्श से टकराकर डायरी खुल गई। खुलते ही सीधा वहां पन्ना सामने आया जिसमे  एक तस्वीर रखा हुआ था। तस्वीर को हाथ में लेकर देखते हुए शालिनी बोलीं... राघव ये तो बहुत पुरानी तस्वीर हैं। किसकी तस्वीर हैं? जिनके बारे में तुमने मुझे कभी बताया नहीं!


शालिनी के बोलते ही मैं तुरंत उसके पास पहुंचा, उसके हाथ से तस्वीर झपट लिया और उसे गौर से देखने लग गया। देखते देखते मेरे नैन झर झर बरस पड़े मानो एक सैलाब आया हों और रस्ते में आने वाली सभी बाधाओं को तोड़कर अपने तय मंजिल तक पहुंचने की कोशिश कर रहा हों। मेरे बरसते नैन की एक एक असरु की बूंद तस्वीर को भिगोने लग गया। जिसे देखकर शालिनी बोलीं…कौन है ये शख्स जिसकी तस्वीर को देखकर तुम अपनी भावनाओं को नियंत्रण में नहीं रख पा रहें हों और असरू धारा बहाकर तस्वीर को भिगो रहें हों।


शालिनी के पूछते ही मैं फफक फफक कर रो दिया। मुझे रोता हुआ देखकर शालिनी एक बार फिर पूछा,इस बार मेरे लव स्वतः ही खुला और मैं बोला पड़ा... ये सख्श (कुछ देर रूका एक गहरी स्वास लेकर खुद को नियंत्रण में लाया फिर आगे बोला) ये सख्श मेरे लिए बेस्किमती हैं मेरे जीवन का एक अनमोल धरोहर है। मैं आज जहां हूं यहां तक पहुंचने में इस सख्श का योगदान सबसे ज्यादा हैं। यहां सख्श मेरा जिगरी दोस्त, मेरे दुःख सुख का साथी हैं। 


शालिनी... अच्छा (कुछ क्षण रूका फ़िर तंजिया लहजे में बोली) इतना ही खास था तो तुमने इन्हें भुला कैसे दिया। ओ हो समझा बुलंदी तुम्हारे कदम चूमने लगें तो दौलत और शौहरत पाने के घमंड में तुम इतना चूर हों गए कि आपने जीवन के खाश सख्श अपने जिगरी दोस्त को ही भुला दिया। छी छी राघव मुझे तुमसे ये उम्मीद न थीं।


शालिनी की तंजिया शब्दों ने मेरे हृदय बेदना को और बड़ा दिया। उसके बोले एक एक शब्द तीर की भांति मेरे हृदय को छलनी करते हुए आर पार निकल गया। जितना सहन कर पाया सहा जब सहन सीमा का बांध टूट गया तब मैं बोलने से खुद को रोक नहीं पाया।


"शालिनी तुम मुझे ऐसा बोल रहीं हों। जबकि इस वक्त तुम्हें मेरा सहरा बनना  चहिए मगर तुम सहारा बनने के जगह मुझ पर ही तंज कस रहीं हों। तुम जानती ही क्या हों? मैंने कितना ढूंढा मगर न जानें कौन सी अंधी चली जिसने मेरे दोस्त को मुझसे दूर कर दिया।"


शालिनी… ढूंढा! छी, छी राघव झूठ तो न बोलों, दुनिया में ऐसी कौन सी वस्तु है। जिसे ढूंढा नही जा सकता। रेत के ढेर में गिरा चीनी का दाना ढूंढ कर निकाला जा सकता है। सरकंडे में गिरा सुई भी ढुंढकर निकाला जा सकता हैं आगर वक्त लगाकर और धीरज रखकर ढूंढा जाएं। मगर तुमने न धीरज रखा न ही वक्त लगाया तो तुम्हें कैसे मिलता। (कुछ देर रूका फ़िर आगे बोलीं) ओ समझी तुम अपने दोस्त को ढूंढने में वक्त लगते तो दौलत-शौहरत कमाने की वक्त में कामी पड़ जाता। क्यों राघव मैंने ठीक कहा न!


शालिनी की बोली गई एक एक शब्द मेरे हृदय को चुभा, बेहद चुभा और इन चुभन से दर्द भी बेहद हुआ। एक दर्द पहले से ही मेरे हृदय में मौजूद था। उसपे एक और दर्द, जब दोनों दर्द का समागम हुआ तब मेरे बहते आशु स्वतः ही रूक गए। क्यों रूका मैं नहीं जान पाया, शायद वजह ये रह होगा कि दोनों दर्दों को कम करने की लिए जितने आसू चहिए उतना आंसू मेरे आंखो में बचा ही नहीं होगा। आसू रूकने का एक फायदा ये हुआ की मेरी नज़रे जो शालिनी पर टिका हुआ था। उसे शालिनी की आंखों से बहता आसूं दिख गया। जिसे शालिनी ने बड़े सफाई से पोंछ लिए। मैं समझ ही नहीं पाया उसकी आंखों ने आसरू धारा क्यों बहाया, मैं बस नजरे टिकाए उसकी आंखों में देखता रहा।


अचानक शालिनी के चहरे का भाव बदला और मंद मंद मुस्कान चहरे पर सजाए मेरे पास आई फिर मुझे गले से लगाकर मुझे दिलासा देते हुए बोलीं...चलो माना कि तुमने उन्हे ढूंढने की बहुत कोशिशें की, मगर तुम्हारी कोशिशें रंगा नहीं ला पाया। हम उन्हें ढूंढने की फ़िर से कोशिश करेंगे और इस बार तुम अकेले नहीं बल्कि मैं भी तुम्हारे साथ रहूंगी। शायद दो लोगों की कोशिश करने से तुम्हारा दोस्त तुम्हें मिल जाएं मगर शुरूवात करने से पहले मुझे तुम्हारी दोस्ती के बारे में जानना हैं जो मुझे तुमने कभी नहीं बताया जबकि तुमने कभी भी मुझसे कोई बात नही छुपाया।


शब्द बड़ा अजीब होता हैं। जिसे बोलने का भाव अलग अलग होता हैं। एक ही मुंह और उससे निकला हुआ शब्द घाव भी देता हैं फ़िर दवा लगाने का काम भी करता हैं। जिसका जीता जागता उदाहरण, इस वक्त शालिनी बनी हुई थी। उसी के मुंह से निकला हुआ शब्द मेरे हृदय को घाव दिया और अब उसी मुंह से निकला हुआ शब्द उन्हीं घाव पर दवा लगाने का काम भी कर रहा था। जो मुझे हैरान कर गया मैं समझ नहीं पा रहा था कि अभी अभी शालिनी मुझे तंजिया शब्द तीर मार रहीं थी फ़िर सहसा क्या हों गया जो इतना मीठा बोल रहीं हैं इसलिए मैं हैरानी भाव चहरे पर लिए एक टक उसकी आंखे में देखने लग गया।


चंचल मुस्कान से मुस्कुराते हुए मुझे कुछ पल देखा फिर मेरा हाथ थामे स्टडी रूम में मौजुद कुर्सी पर बैठा दिया और मेरे पिछे खड़ी होकर मेरे गले में बांहों का हार डाले मेरे गालों से अपना गाल रगड़ते हुए बोलीं... यूं हैरान होना छोड़ो और जो मैंने पूछा उसे बोला शुरू करो (कुछ देर रूकी फ़िर मेरे गालों पर एक किस्स दिया ओर आगे बोली) प्लीज़ बोलों न अब देर क्यों कर रहें हों मैं तुम्हारे दोस्त के बारे मे जानें के लिए उत्सुक हुआ जा रहा हूं।


प्यार से आगर बात बन जाएं तो मयान से तलवार निकलने की जरुरत ही क्या हैं? शालिनी भी इस बात को अच्छी तरह से जानती हैं। बस थोड़ी सी प्यार और अन्दर छुपा सभी राज बहार, उसकी इसी अदा का मैं भी कयाल हूं तभी तो मैं एक रटाऊ तोते की तरह बोल पड़ा…


शालिनी तुम तो जानती ही हों बचपन में एक आपदा में मैंने, मेरा पुरा परिवार खो दिया था। मेरे आगे पिछे कोई था तो वो दादी थी। जिन्होंने मेरा लालन पालन कर बड़ा किया और एक काबिल इंसान बनने में मेरी मदद किया। मेरे काबिल बनने में जितना हाथ मेरे दादी का था उससे कहीं ज्यादा हाथ मेरे दोस्त ऋषि का था।


"ऋषि… नाम से ही साधु शांत मालूम होता हैं ही ही ही" इतना बोलकर शालिनी खिलखिला कर हंस दिया। जो मुझे पसन्द नहीं आया तब मैं गुस्से वाली नज़रों से उसकी ओर देखा। थोड़ी सी गाल की रगड़ाई, एक प्रेम भरा चुम्बन और कान पकड़कर सॉरी बोलने की अदा ने मेरे गुस्से को गायब कर दिया और मैं आगे बोलना शुरू किया…


हमारे दिन बड़े ही खींचा तानी में कट रहे थे। लेकिन दादी हमेशा कहती थीं कि "ये दिन हमेशा नहीं रहेंगे कभी न कभी हमारे भी दिन बदलेंगे।" अब दिन बदलने के लिए मेहनत और लगन की ज़रूरत पड़ती हैं जो मेरे अन्दर बिल्कुल भी नहीं था। मैं लापरवाह खुद में ही मस्त रहता था। कुछ गिने चुने दोस्त थे। जिनके साथ मटरगस्ती करता फिरता था। कभी नहर में नहाने जाना तो कभी बागों में जाकर फल चुराना, इन्ही कामों में मुझे मजा आता था। पढ़ाई लिखाई पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था जब तक स्कूल में रहता बस यहीं ख्याल मन में रहता कि छुट्टी हों और मुझे इन किताबों के बोझ से मुक्ति मिले, जैसे ही छुट्टी होता मैं तुरंत घर आकर बस्ता ऐसे फेंक देता मानो उसकी फिर कभी जरुरत ही नहीं पड़ने वाली, जिसका नतीजा ये होता कि शाम को मुझे दादी से डांट पड़ती "तुझे ये किताबें बोझ लगता हैं मगर तू ये क्यों नही समझता अभी तूने इन किताबों का बोझ नहीं उठाया तो एक दिन तुझे बहुत भारी बोझ ढोना पड़ेगा जो इन किताबों के बोझ से भी भारी होगा जिसे ढों पाना तेरे लिए संभव नहीं होगा। अभी वक्त हैं संभाल जा वरना बाद में पछताने के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।" 


दादी की बातों को मैं एक कान से सुनता दुसरे कान से निकल देता था। क्योंकि ये तो रोज का किस्सा था इसलिए मैं भी ज्यादा तुल नहीं देता था। जब उनकी नहीं सुनता तब दादी फिर कहती "राघव तू मेरी बातों को ध्यान से क्यों नहीं सुनता उन पर अमल क्यों नहीं करता, सुन मुन्ना तू नहीं जानता मुझे सेठ जी के खेतों में कितना काम करना पड़ता हैं चटक धूप में जलना पड़ता हैं (फिर अपना बदन दिखते हुए आगे बोलती) देख मेरे बदन को धूप की गर्मी कितना झुलसा दिया हैं जिसकी कारण मेरी चमड़ी काली पड़ गईं हैं। मैं नहीं चहती कि तुझे भी ऐसे ही धूप में जलना पड़े इसलिए पढ़ाई पर ध्यान दे और मटरगस्ती करना कम कर दे"


उनकी बातों का मुझ पर रत्ती भर भी असर नहीं होता था। मैं उस वक्त तो हां हां कह देता था मगर बाद में जिऊं का तिऊं बर्तब करने लग जाता था। दादी की बोली से मैं सुधार नहीं रहा था तो ऊपर वाले ने आखिरकार मुझपर अपनी छड़ी चला ही दिया। ये बात उस वक्त की हैं जब मेरी आठवीं कक्षा की परीक्षा हों गया और स्कूल की छुट्टियां पड़ गईं। बस फ़िर किया मेरे पंख जो पहले से ही खुले हुए थे वो ओर ज्यादा खुल गए मैं दादी के काम पर जाते ही घर से निकलता और शाम ढलने के बाद घर लौट कर आता था। ऐसे ही एक दिन मैं सेठ जी के बगीचे में गिल्ली डंडा खेल रहा था। उस वक्त डंडा मेरे हाथ में था और अभी अभी गिल्ली का एक टोल मारकर मैं खडा ही हुआ था कि कोई मेरे पिछे से आया और मुझे पलटा कर "चटाककक" एक चाटा मेरे गालों पर मारा जिसकी गूंज बगीचे में गूंज गया। "चटाककक" एक ओर चाटा पड़ा फिर तो मुझ पर चाटो की झड़ी जैसा लग गया।


To be continued… 


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