सखा-अ वैल विशार (भाग-4)
सखा-अ वैल विशार (भाग-4)
उनकी बातों का मुझ पर रत्ती भर भी असर नहीं होता था। मैं उस वक्त तो हां हां कह देता था मगर बाद में जिऊं का तिऊं बर्तब करने लग जाता था। दादी की बोली से मैं सुधार नहीं रहा था तो ऊपर वाले ने आखिरकार मुझपर अपनी छड़ी चला ही दिया। ये बात उस वक्त की हैं जब मेरी आठवीं कक्षा की परीक्षा हों गया और स्कूल की छुट्टियां पड़ गईं। बस फ़िर किया मेरे पंख जो पहले से ही खुले हुए थे वो ओर ज्यादा खुल गए मैं दादी के काम पर जाते ही घर से निकलता और शाम ढलने के बाद घर लौट कर आता था। ऐसे ही एक दिन मैं सेठ जी के बगीचे में गिल्ली डंडा खेल रहा था। उस वक्त डंडा मेरे हाथ में था और अभी अभी गिल्ली का एक टोल मारकर मैं खडा ही हुआ था कि कोई मेरे पिछे से आया और मुझे पलटा कर "चटाककक" एक चाटा मेरे गालों पर मारा जिसकी गूंज बगीचे में गूंज गया। "चटाककक" एक ओर चाटा पड़ा फिर तो मुझ पर चाटो की झड़ी जैसा लग गया।
एक के बाद एक चाटा मारे जानें से मुझे संभालने का मौका नहीं मिला साथ ही मुझे समझ नहीं आया कि मुझे चाटा क्यों मारा जा रहा था? क्योंकि मुझे चाटा मरने वाला सेठ जी का लडका ऋषि ही था। वो जनता था हम यहां खेलने आया करते है और कभी कभी वो भी हमारे साथ खेल लिया करता था। जब समझ नहीं आया तब मैं बोला... ऋषि मुझे मार क्यों रहा हैं। हमारा यह खेलना तुझे पसन्द नहीं है तो बोल दे, हम कहीं और जाकर खेल लेंगे।
ऋषि... "राघव तू इतना लापरवाह कैसे हों सकता हैं तू जानता भी है अम्मा के साथ क्या हुआ हैं?(इतना बोलकर रूका फिर तंजिया लहजे में आगे बोला) अरे अरे मैं भी किससे पूछ रहा हूं। उससे, जिसे अम्मा की बिल्कुल भी फिक्र नहीं हैं। बस थाली भर भरके खाना चहिए और खेलने कूदने के लिए आवारा दोस्त, अम्मा चाहे जीए या मरे उससे तुझे क्या?"
एक तो पहले बेवजह मारा उसके बाद इतनी बाते सुना दिया बस मेरा पारा चढ़ गया। उसे उंगली दिखाते हुए "ऋषि तू ज्यादा नहीं बोल रहा हैं" बस इतना ही बोला था कि एक और चाटा मेरे गाल पर पड़ा फिर ऋषि बोला...ज्यादा! ये तो मैंने काम बोला मेरा बस चलता तो तेरा हाथ पाव तोड़ देता। अरे तेरा हाथ पाव तोड़ दिया तब बिचारी अम्मा का ख्याल कौन रखेगा उनका भी पाव टूट गया हैं ही ही ही।
मुझे लगा ऋषि ऐसे ही बोल रहा होगा क्योंकि उसके बोलने का लहजा मुझे मजाकिया लगा लेकिन जब दुबारा बोला तब मुझे यकीन हुआ की ऋषि जो कह रहा हैं वो सच हैं। यकीन होते ही मैं घर की और दौड़ लगा दिया तब ऋषि पिछे से बोला...अम्मा घर पर नहीं है उन्हें हॉस्पिटल ले कर गए हैं।
उसकी बातें सुना तो था मगर ज्यादा ध्यान नहीं दिया बस दौड़ता गया दौड़ता गया और कुछ वक्त में मैं घर पहुंच गया। जहां मुझे दादी नहीं दिखा तब मैं बस घर से निकला ही था कि ऋषि हांफते हुए पहुंच गया ओर बोला... कितना तेज भागता है ओलंपिक में दौड़ा दिया तो गोल्ड लेकर ही आएगा।
"ऋषि मजाक मत कर बता दादी कहां हैं।"
ऋषि..."तू ज्यादा चिंता न कर अम्मा को बाबूजी हॉस्पिटल लेकर गए हैं। जल्दी ही आ जायेंगे।"
इतना बोलकर ऋषि मेरा हाथ थामे घर के अन्दर लेकर गया। एक दरी बिछाकर बैठा दिया और खुद भी मेरे पास बैठ गया। उस वक्त मेरे दिमाग में अजीब अजीब से ख्याल चल रहा था। जिसे सोचते हुए मेरे आंखों से आंसू बह निकले सहसा मेरे कंधे पर हाथ का स्पर्श महसूस हुआ। तब मैं पलट कर देखा तो मेरे आंखों से बहते आंसू को पोंछते हुए ऋषि बोला... क्या हुआ रो क्यों रहा हैं।
"दादी.." इससे आगे मेरे से कुछ बोला नहीं गया। मगर ऋषि मेरी मानो दशा समझ गया ओर बोला…पगले तू कुछ गलत सलात न सोच अम्मा की सिर्फ टांग टूटा हैं समझा न और मेरी बात ध्यान से सुन अब से अम्मा का ध्यान रखना। तेरे अलावा अम्मा का है ही कौन मगर तुझे अम्मा की परवाह ही नहीं हैं। कभी गौर किया अम्मा इस उम्र में कितनी मेहनत करती है दिन भर खेतों में जी तोड़ मेहनत करती है किसलिए सिर्फ दो जून की रोटी और तेरी पढ़ाई लिखाई के लिए, मगर तेरा ध्यान सिर्फ आवारा गर्दी करने पे लगा रहता हैं। ये बात मैंने तुझे कई बार समझाया पर तू समझने के जगह मुझसे ही मिलना जुलना काम कर दिया।सी
ऋषि के इन बातों का मै कोई जवाब ही नहीं दे पाया। क्या जवाब देता उसका कहना बिल्कुल सही था। जब हम उस गांव आए थे तब शुरू शुरू में मेरा कोई दोस्त नहीं था। ऋषि ही मेरा पहला दोस्त बना था। स्कूल से आने के बाद घर पर ही रहता शाम को ऋषि के साथ उसके खेत में घूमने जाया करता था फ़िर धीरे धीरे कुछ और दोस्त बने मैं उनके साथ ज्यादा वक्त बिताने लगा। मेरा घूमना फिरना दिन पर दिन बढ़ता ही गया जिससे परेशान होकर दादी मुझे समझने लग गए कि मुझे घूमने फिरने पर ज्यादा ध्यान न देकर पढ़ाई लिखाई पर ज्यादा ध्यान देना चहिए मगर मैं उनकी सुनता ही नहीं था फिर ऋषि भी यहीं बात कहने लग गया एक ही बात बार बार सुनने से मुझे चीड़ सा होने लग गया और मैं ऋषि से मिलना झूलना काम कर दिया।
आज फ़िर ऋषि ने उन बातों को दौहरा दिया। जिसे सोचकर मुझे कुछ कुछ आभास तो हो रहा था कि ऋषि और अम्मा सही बोलते थे। मगर मैंने कुछ बोला नहीं शायद ऋषि भी समझ गया इसलिए उसने भी चुप रहना बेहतर समझा। खैर दिन का वक्त बीता शाम को दादी हॉस्पिटल से आ गईं। उनके एक टांग में प्लास्टर चढ़ा हुए था। ऋषि और उसके पापा मुझे दादी का ख्याल रखने को बोलकर चले गए।
पैर मुड़ने की वजह से एड़ी का जोड़ खिसक गया और उम्र की अधिकता के कारण ठीक होने में समय लगना था। डॉक्टर का कहना था जल्दी ठीक होना है तो पैर पर ज्यादा वजन नहीं डालना हैं न ही ज्यादा चलना फिरना हैं बस विश्राम करना हैं। इसलिए मेरे दिन का अधिकतर वक्त दादी का ख़्याल रखते हुए घर पर बीतने लगा। जब भी किसी काम में मेरी जरुरत पड़ती दादी मुझे आवाज़ दे देता था मगर जब खाना बनाने का वक्त आता तब दादी मुझे सुनाते हुए बोलती... ताड़ जैसा हों गया है मगर कोई काम करना नहीं आता कुछ आता हैं तो बस थाली भर भरके खाना आता हैं। सोचा था टांग टूट गया अब कुछ आराम करने को मिलेगा लेकिन कहा आराम दिन में तीन टाईम गरमा गरम खाना बनाकर खिलाना पड़ रहा हैं।
दादी की बाते सुनकर मुझे बुरा लगता था मगर कुछ कह नहीं पता था सिर्फ सुनकर मन मसोसकर रहा जाता था और जब कभी ऋषि से मिलता तब बता देता की दादी ऐसा ऐसा कहती हैं। तब वो मुझे समझते हुए कहता..जब अम्मा खाना बनाने जाया करे तब उनकी मदद कर दिया करना फिर कभी नही कहेगी।
उसकी बातें सुनकर मुझे लगता कि ऋषि ठीक कहा रहा हैं। इसलिए जब भी दादी खाना बनाने जाती तब मैं उनके साथ में रहकर मदद कर दिया करता था। मदद करने का भी कोई फायदा नहीं होता था। मदद करते हुए भी वहीं बाते सुनने को मिलता था। दादी के इन तानों से परेशान होकर मैंने ठान लिया भोजन पकाना सिख कर ही रहूंगा। मुझे वक्त तो लगा, शुरू शुरू में भोजन जला हाथ जले कभी नमक ज्यादा कभी कम, अंतः भोजन पकाना सीख ही गया।
शालिनी- दादी जी के तानों का बहुत फायदा हुआ। जिसका सबसे ज्यादा फायदा मुझे पहुंचा। क्यों मैंने ठीक कहा न!
"ठीक तो कह रहीं हो पर तुम्हें क्या लगता है भोजन पकाना, सीखना मेरे लिए इतना आसान रहा। उस वक्त भी सुनने को मिलता था।"
शालिनी...अच्छा क्या सुनने को मिलता था?
इतना बोलकर शालिनी मेरे गालों से गाल रगड़ते हुए खिलखिला कर हंस दिया और मैं भी हंसते हुए बोला... तुम तो जानती हों मुझे क्या सुनने को मिलता था फिर भी तुम सुनना चहती हों। उन बातों को सुनने में तुम्हें बड़ा मजा आता हैं। बोलों हैं न!
शालिनी... अच्छा बाबा मैं नहीं सुनती आगे तो सुनाओ।
पैसों की तंगी दिन वा दिन बढ़ता जा रहा था। दादी के दवाई का खर्चा, घर के राशन का खर्चा साथ ही मेरा स्कूल का नया सत्र शुरू होने वाला था उसकी किताबें खरीदने के लिए भी पैसे चहिए थे। हालाकि जब तक दादी पूरी तरह ठीक नहीं हों जाती और काम करने लायक नहीं हों जाती तब तक सभी खर्चों को उठाने की जिम्मेदारी सेठ जी ने ले रखा था। जब भी सेठ जी पैसे देने आते थे तब दादी बोलती थीं... मेरे भी कितने बुरे दिन आ गए हैं इससे पहले कभी किसी का अहसान नहीं लिए पर देखो अब लोगों के अहसान तले जीना पड़ा रहा हैं। ताड़ जैसा लंबा एक पोता है मगर उसे कोई परवाह ही नहीं, परवाह होगा भी क्यों मुफ्त की रोटियां तोड़ने को जो मिल रहा हैं। हे प्रभु ये दिन दिखाने के लिऐ मुझे जिंदा रखा था। ये दिन दिखाने से अच्छा होता तू मुझे भी इसके मां बाप की तरह अपने पास बुला लेता कम से कम मुझे अपने खुद्दारी के साथ समझौता तो नहीं करना पड़ता।
सेठ जी कुछ बोलने जाते तब दादी सेठ जी को चुप करा देते थे। उनकी ताने सुनकर मैं सहन नहीं कर पाता था इसलिए कुछ वक्त के लिए घर से दूर एक एकांत जगह जाकर बैठ जाया करता था फ़िर रो रो कर खुद को शांत करने की कोशिश करता था। मगर कब तक मैं इन बातों को सुनकर सहन कर पाता, अंतः मेरे सहन शक्ति ने जवाब दे दिया और मैं सेठ जी के पास जाकर उनसे बोला... बाबूजी मुझे भी आपके खेत में काम करना हैं। जानता हूं मैं तजुर्बेकार नहीं हूं मगर मैं वादा करता हूं आपको शिकयत का मौका नहीं दूंगा।
सेठ जी… अभी तुम्हारे काम करने के दिन नहीं आए तुम पहले पढ़ाई लिखाई कर लो फ़िर तुम्हारे लायक कोई अच्छा काम तुम्हें ढूंढ दूंगा।
"पढ़ाई लिखाई पहले कभी किया नहीं तो अब करके क्या फायदा? मेरा काम करना ही ठीक होगा। मैं काम करके कुछ पैसे कमाऊंगा तब दादी को किसी का अहसान नहीं लेना पड़ेगा, उनके खुद्दारी को चोट नहीं पहुंचेगा। आगर आपके पास मेरे लायक काम नहीं हैं तो बता दीजिए मैं किसी ओर के पास काम ढूंढ लूंगा।"
To be continued….