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Sudha Sharma

Tragedy

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Sudha Sharma

Tragedy

श्रद्धा सदन

श्रद्धा सदन

11 mins
7


कहानी 

मातृ छाया

श्रद्धा सदन 


      आज पूरे 15 वर्ष बाद में अपनी मातृभूमि लौटी । मातृभूमि की रज का स्पर्श करते ही आंखों में आंसू छलक आए।  कितना स्नेह, वात्सल्य, दुलार और करुणा है इसके आंचल में । बहुत परिवर्तन हो चुका था। पहचान में नहीं आ रही थी जगह । अब सड़क दो हिस्सों में बॅंट गई । सड़क के बीच में डिवाइडर बनाकर विद्युत खंभे लगा दिए गए। ओवर ब्रिज बन गया।  विकास की बयार बह रही थी। मैं अपनी सहेली आशा का घर ढूंढ रही थी । वह मेरी अति प्रिय पक्की सहेली थी । उसकी माता जी से मेरा विशेष लगाव था । उनके बारे में कोई रहस्य नहीं था। लगभग सभी को पता था उनका पति एक अत्यंत क्रूर प्रवृत्ति का व्यक्ति था।  मारपीट, गाली गलौज,अपने आप कुछ कमाना नहीं लेकिन शराब पीना, जुआ खेलने और पुरुषत्व का अहम् जताना लेकिन उनकी पत्नी श्रद्धा ने जैसे हार मानना सीख ही नहीं था । विवाह के 2 वर्ष बाद उन्होंने दसवीं का परीक्षा दी फिर ए एन एम का कोर्स किया । सरकारी नौकरी लगने से पहले शहर के अति प्रतिष्ठित प्राइवेट नर्सिंग होम में नौकरी की जिसकी मालकिन डॉक्टर मधु सिंघल शहर की प्रतिष्ठा लब्ध डॉक्टर  थी। अत्यंत लगन और मेहनत के बल पर वह डॉक्टर की मनपसंद नर्स बन गई और ऑपरेशन के समय भी अक्सर डॉक्टर के साथ खड़ी होती थी अतः अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया नौकरी लगने के बाद तो उसने अपने आप को समर्पित कर दिया।

 जिस आदमी के जीवन में जिस चीज का अभाव हो, वही उसका मुख्य  लक्ष्य बन जाता है । आर्थिक अभाव उसने बचपन से झेला था अतः अर्थ ही उसकी मंजिल बन गया। ए एन एम की सरकारी नौकरी मिल गई । घर में भी आसपास की स्त्रियों की डिलीवरी करने लगी। प्राइवेट नर्सिंग होम में दो साल तक नौकरी करने के कारण दवाइयों का ज्ञान भी हो गया। अपने खाने-पीने, रहने-सहने का निम्न स्तर  ही रखा और बच्चों की आर्थिक स्थिति सुधार करने की प्रतिज्ञा मन में धार ली। रिश्तेदारी में शादी ब्याह में बस दो घंटे के लिए ही अपनी उपस्थिति दर्ज कर आती । छुट्टी लेने का नाम नहीं। सरकारी नौकरी के साथ-साथ आसपास के गांव में निम्न वर्ग के औरतों के बीच डॉक्टरनी के नाम से प्रसिद्ध हो गई । एक सौ पच्चीस गज में तीन कमरों का मकान था । उसमें एक कमरे को उसने प्रसव कक्ष बना लिया। स्त्रियाॅं

अस्पताल जाने के बजाय श्रद्धा से डिलीवरी कराना पसंद करती । जिसे कोई डॉक्टर ऑपरेशन बता देता वह श्रद्धा से सलाह लेने अवश्य आता और उसके प्रयास से कभी -कभी बच्चा नार्मल भी हो जाता । इसीलिए आसपास के या दूसरे गांव व कस्बों  से भी लोग इलाज कराने , विशेष रूप से डिलीवरी के लिए उसके पास आने लगे। 

 आर्थिक सुदृढ़ीकरण हेतु आसपास के इलाकों में या दूसरे शहर में सस्ती जमीन बिकती वह उसे खरीद लेती और महंगी होने पर बेच देती । इस प्रकार उसने अपने चारों बच्चों के लिए दो सौ  वर्ग गज के चार प्लॉट चारों सेटों के लिए खरीद लिए। उसकी कार्यक्षमता को देखकर आश्चर्य होता । कहावत है न कि गोड हेल्प दैम हू हेल्प दैमसैल्व , भगवान उन्हीं की सहायता करता है जो स्वयं अपनी सहायता करते हैं । उसका भी भगवान ने समझो हाथ पकड़ लिया। बड़ा बेटा पॉलिटेक्निक करके जूनियर इंजीनियर बन गया । दूसरा बेटा वकील बन गया तीसरा और चौथा बेटा पढ़ने में कमजोर थे तो वह टैक्सी चलाने लगे । सभी संपन्न बन गए। दोनों बेटों को लोन लेकर  उनके लिए गाड़ियां खरीदी । बिटिया की शादी कर दी। बड़ी बहू कुशल दर्जन थी ब्लाउज सिलना प्रारंभ कर दिया। दूसरी बहू बी एस सी पास थी उसे बी एम एस करा दिया। वह संविदा पर डॉक्टर की पोस्ट पर लग गई। तीसरी बहू को ए एन एम का कोर्स करा दिया । क्योंकि वह  दसवीं ही पास थी। चौथी बहू को स्टाफ नर्स का कोर्स कर दिया। स्वावलंबी परिवार। वह अन्य परिवारों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई। बिरादरी में, रिश्तेदारी में उनकी चर्चा अवश्य होती - बेटे बेटियों को तो सब पढ़ाते हैं उसने बहू को भी पांव पर खड़ा कर दिया।  बेटों ने भी अपनी माॅं का अनुसरण किया और धन की महत्ता को दिमाग में प्रधानता दी।  बड़े बेटे ने नोएडा में अपना फ्लैट खरीद लिया । वकील बेटे और डॉक्टर बहू ने इस शहर अर्थात मुजफ्फरनगर में दो मंजिली कोठी बना ली और जानसठ जहाॅं पर उसकी संविदा पर नौकरी थी छोटा सा नर्सिंग होम बना लिया । 


पहले अस्पताल में ड्यूटी करती फिर अपने नर्सिंग होम में मरीज देखती ।ऊपर थोड़ा सा रहने का प्रबंध भी कर लिया दोनों छोटे बेटों ने अपनी दो-दो गाड़ी बना ली । दो मकान बना लिए और बहादराबाद में सस्ती सी जमीन लेकर छोटा सा हॉस्टल बना दिया। उनकी उन्नति को देखकर कुछ लोग मन में ईर्ष्या भी करने लगे कुछ प्रशंसा करते और कुछ  उनको गलत भी ठहरने लगे। अलग-अलग सोच अलग-अलग राय क्योंकि जहाॅं धन की प्रधानता हो जाती है वहां मानवता मर जाती है और यह भी सत्य है कि गरीब व्यक्ति को जब धन अधिक मिल जाता है तो उसमें अहम् आ जाता है। संवेदनाएं मर जाती हैं। क्योंकि धन सांसारिक जीवन जीने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है लेकिन जीवन में धन कमाना ही एकमात्र लक्ष्य नहीं।

 पंद्रह वर्ष पश्चात जब मैं अपने पैतृक शहर में पहुंची तो अपनी प्यारी सहेली से मिलने की इच्छा बलवती होना स्वाभाविक था। यह तो पता था उसकी शादी खतौली में एक पेट्रोल पंप के मालिक के घर में हुई है लेकिन कौन है कहाॅं रहते हैं कुछ पता नहीं था। अतः मैंने मन में निश्चय किया कि उसके परिवार वालों से मिलकर उसका पता लगाऊंगी और उससे मिलने जाऊॅंगी।  मैं उनके घर पर गई जो उनके अस्तित्व की पहचान का मकान था घर में आज भी वही नेम प्लेट लगी हुई थी “श्रद्धा सदन, ए,एन,एम, ग्राम बहेरा, जिला मुजफ्फरनगर। लेकिन दरवाजे पर ताला जड़ा देखकर मन डूब गया। मैंने आसपास के घरों में पूछा तो उन्होंने बताया “उनके तीनों बेटों का मकान रामपुर तिराहे के आसपास ही है। “ जब मन में प्रतिज्ञा हो, दर्द निश्चय हो तो मंजिल स्वयं बुलाने लगती है । अपना पता बताने लगती हैं पड़ोसियों द्वारा बताई पहचान के आधार पर मैंने अपनी खोज प्रारंभ कर दी। लगभग एक किलोमीटर जाने पर बाएं हाथ पर एक दो मंजली कोठी मिली । नेम प्लेट पढ़ी तो लिखा था “श्रद्धा सदन, वकील दिव्यांशु, डॉक्टर सुनीता” । मन प्रसन्न हो गया। यही तो मेरी मंजिल है । बेल बजाई तो कुत्ते के भौंकने की आवाज आई। अब दरवाजे पर निगाह डाली तो एक प्लेट पर लिखा था कुत्तों से सावधान। दो मिनट बाद दरवाजा खुला। निश्चित रूप से अनजान व्यक्ति को देखकर हतप्रभ रहना क्योंकि दरवाजा उसके बेटे ने खोला था।  मैंने कहा दिव्यांश भैया को बुलाओ । दिव्यांश नाम सुनकर घर में अंदर जाने के लिए रास्ता मिल गया। हाॅल में पति-पत्नी बैठे चाय का आनंद ले रहे थे । मुझे देखते ही दिव्यांश के अधरों पर मुस्कान फैल गई। मैं भी यह सोचकर खुश हो गई चलो अच्छा है मुझे पहचान तो लिया । धीरे-धीरे बात प्रारंभ हुई। पूछने पर आशा का हालचाल , आशा के घर का पता मिल गया । आंटी जी के बारे में पूछा तो पता चला  उन्हें कुत्तों से बहुत डर लगता है। इसलिए वह हमारे पास नहीं रहती समय-समय पर मिलने आ जाती हैं । बच्चे कुत्ते के बिना नहीं रहते और कुत्ते को वह पसंद नहीं करती समस्या यहाॅं है। उससे ही पता चला आशुतोष छोटे भाई के बारे में । उसका घर पुल पार करते ही है अब मेरे मन में आशा से ज्यादा उसकी मां के बारे में जानने की इच्छा बलवती हो गई । पुल पार करके देखा तो वास्तव में दूसरा मकान श्रद्धा सदन की नेम प्लेट से जड़ा मकान था । मकान ऑन रोड था अतः बाहरी हिस्से में मोबाइल की दुकान थी जो उसके बेटे वरेण्यम ने खोल रखी थी। बात करने पर पता चला माताजी अर्थात नामधारी घर की मालकिन वहाॅं नहीं रहती क्योंकि उनको बच्चों का शोर शराबा पसंद नहीं था उन्हें एकांत चाहिए था जो बच्चों के घर में संभव नहीं । हम सब ने बहुत रोका लेकिन उन्होंने यहाॅं रहना पसंद नहीं किया।

 अब तीसरे बेटे का मकान राणा कॉलोनी में था जो सहारनपुर रोड पर थी वहाॅं गई तो देखा बड़े-बड़े शब्दों में श्रद्धा सदन लिखा है । टाइल्स पत्थर से बना सुंदर दो मंजिल का मकान था। पता चल गया यह तीसरे पाखंडी बेटे का घर है, जिन्होंने दुनिया को धोखा देने के लिए मकान पर माॅं का नाम लिखा रखा है । मन वेदना से भर गया। हृदय विचलित हो गया । श्रद्धा सदन जगह-जगह बिखरा पड़ा है श्रद्धा सदन में है ही नहीं। जिस औरत ने जीवन खपा दिया इस औलाद का जीवन संवारने में, जीवन की संध्या में उसका हाथ पकड़ने वाला कोई नहीं। वह अपनों  के ही नहीं दूसरे लोगों की सहायता के लिए भी हमेशा तैयार रहती। उसकी क्रियाशीलता को देखकर लोगों के मुॅंह से निकल जाता -” अरे यह औरत है या रोबोट। पता नहीं लोहे की बनी है क्या जो थकती ही नहीं। इसके मुॅंह से काम के लिए ना निकलताही नहीं।“ 

मन न जाने कैसे कैसे ख्याल में खो गया लेकिन फिर मन ने मुझे समझाया- हमेशा नकारात्मक क्यों सोचती हो?  सकारात्मक सोचो; सकारात्मक ही होगा । माॅं है किसी भी बेटे के पास रहे, क्या फर्क पड़ता है । सोच कर फिर पांवों को बल मिला, शरीर में ऊर्जा आई और कदम घर की ओर बढ़ चले ।माॅं के बारे में पूछने पर बहू बेटा समवेत स्वर में बोल उठे-” अरे अम्मा का यहाॅं मन ही नहीं लगता । हम तो चाहते हैं कि अम्मा हमारे पास रहें। लेकिन अभी हमारे यहाॅं जरा सुख- सुविधाएं कम हैं। अभी जरा नई कॉलोनी है,सड़के भी ऐसी  ही हैं।  दिव्यांश भैया के घर में ए सी वगैरह है हमारे यहाॅं अभी मच्छर भी बहुत लगते हैं इसलिए अम्मा वही रहती है। “सुनकर मन कर रहा था दो-दो थप्पड़ जड़  दूॅं उनको । अपना अपराध भी उन्हीं के सिर मढते हो‌। मैं बिना बोले वहाॅं से चली आई। घर आकर मुझे पूरी रात नींद नहीं आई । जिनके लिए जर्रा जर्रा करके जिंदगी खपा देते  उनके दिल में जगह न घर में  जगह। 

   में अगले दिन में बड़ी सुबह आशा से मिलने के लिए खतौली के लिए चल पड़ी । रास्ते में भी मेरे मन में विचारों का ज्वार भाटा उठता रहा। माॅं इन चारों लड़कों को पालते समय भविष्य की संभावनाओं के स्वप्निल तरण ताल में तैरती रही होगी लेकिन उनके व्यवहार से सुंदर वन में विचरता उसका मन निश्चित ही तड़प रहा होगा। तीव्र पीड़ा से पीड़ित उसका व्याकुल मन अपने पापों का परिणाम मान रहा होगा। पूर्वाद्ध के कर्मों के फल के रूप में हर मानव अपनी पीड़ा को, कष्ट को स्वयं को दोषी मान अपने को सांत्वना दे लेता है और दूसरों को माफ कर देता है। जिन परिस्थितियों ने जिन लोगों ने समस्त संभावनाओं को अंधकारमय बना दिया उनके प्रति भी कमजोर मानव ईर्ष्या- द्वेष और कटुता छोड़ अपने अगले जन्म के लिए सुंदर राह बनाने की सोच रखता है । ईश्वर के ऊपर सजा  देने का, न्याय देने का दायित्व छोड़ शांत हो जाता है।  मन में विचारों की उथल-पुथल के बीच ही रास्ता कब पूरा हो गया पता ही नहीं चला । बस से उतरकर एक रिक्शा पकड़ में बड़ी आसानी से ही कस्बे की उस नव निर्मित पॉश कॉलोनी में पहुॅंच गई । मुझे देखते ही पहले तो असम्भावित अचानक मेरे आगमन से असमंजस में पड़ गई। दो मिनट बाद ही वह खुशी से मुझसे लिपट गई । हम दोनों की खुशी का ठिकाना न था‌। वर्षों बाद हम आपस में मिले थे। जब पढ़ते थे तो आपस में दाॅंत काटी रोटी थी। वह खाना अपने घर खाती थी तो पानी मेरे घर पीती थी।  एक बार तो मेरी  माॅं के बीमार हो जाने पर उसी की छत्रछाया में अपने छोटे बहन भाइयों को छोड़कर गए थे। ग्यारहवीं की छात्रा होते हुए भी मेरे बहन भाइयों की देखभाल  उसने कुशल गृहिणी की भाॅंति कर अपना दायित्व निभाया था। एक दूसरे से मिलकर दोनों की आंखों में खुशी के आंसू छलक आए। मन- तन की इधर-उधर की बातें की और बातों बातों में आशा की माॅं बीच में आ गई। नाम सुनते ही आशा का गुलाब सा खिला चेहरा तुषाराघात के प्रभाव से मुरझाए सुमन के समान मुरझा गया। बोली दुनिया लड़कों की चाह में न जाने क्या-क्या करती है । कल्पतरु मानती है लड़कों को, कि उनसे सब मनोवांछित असाध्य फल फल प्राप्त हो जाएंगे लेकिन वही लड़के अपनी मां बाप को बुढ़ापे में अभिशाप तुल्य मानते हैं । माॅं को मैं अपने पास ले आई थी इसमें भी उन्हें अपनी बेइज्जती दिखाई दी । मेरे पास आकर भली चंगी हो गई थी। उनकी खांसी बिल्कुल ठीक हो गई थी और मैं कौन सी उन्हें अपने पैसों से पाल रही थी। उनकी तो पेंशन आती थी लेकिन एक दिन भाई आया मुझे भी उलटी सीधी कहीं कि चार लड़कों के होते हुए माॅं यहाॅं क्यों रहेगी ? और जबरदस्ती ले गया लेकिन उनके व्यवहार से तंग आकर माॅं हरिद्वार में एक आश्रम में रहने के लिए चली गई जहाॅं तीन लाख में एक आधुनिक सुविधाओं से लेस एक कमरे का फ्लैट मिलता है। खाने - पीने की, दवाई की, देखभाल की सब व्यवस्था भी वहीं से होती है। कपड़े धोने के लिए भी धोबी लगा हुआ है । आजीवन उस कमरे में रह सकते हैं मरने के बाद वह कमरा किसी और को दे दिया जाता है । माॅं वही रहती हैं । अपने समान आयु के लोगों के साथ-साथ बातचीत करती है । सुख-दुख बाॅंटती हैं । वहाॅं पर वह बहुत खुश है। मैं भी उनसे दो-चार महीने में मिल आता हूॅं और संतुष्ट हूॅं । कम से कम वह वहाॅं पर खुश तो हैं। यहाॅं पर तो भाभियों ने उन्हें नौकरानी समझ रखा था । उनके अपने निर्वाह से अधिक पेंशन आती थी फिर भी उनका सम्मान नहीं था। वहाॅं उन्हें कुछ नहीं करना पड़ता । घरवाले कैक्टस के समान है वे अपने कांटों से घायल करते रहते हैं फिर भी बोझ समझते हैं। वहाॅं पर वह उन्मुक्त गगन में खुले परों से डोलती हैं । अपनी पेंशन से फल वगैरा खाती हैं। सब आपस में मिलकर घूम भी आते हैं । माॅं ने अपनी पेंशन से तीर्थ भी कर लिए हैं । माॅं को लेकरअब कोई टेंशन  नहीं है। जब तक भाइयों के पास रही टेंशन ही टेंशन । कभी भाई का फोन आता कभी भाभी का फोन। फोन पर शिकायतों का अंबार। अब सब ठीक-ठाक है। सुनकर मेरे मुॅंह से निकल गया श्रद्धा सदन में श्रद्धा नहीं है बाकी सब कुछ है।

                       - : इति:-


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