धुन
धुन
लघुकथा
धुन
जहाॅं से गंगा नदी निकलती है उस स्थान को गोमुख कहते हैं यह स्थान बहुत ही छोटा सा है । वहाॅं गोमुख के दोनों ओर दो पत्थर पड़े थे। एक पत्थर दाएं तरफ था और एक पत्थर बाएं तरफ । गोमुख का मुॅंह इतना छोटा कि कोई भी व्यक्ति एक पैर दाहिने पत्थर पर और दूसरा पैर बांएं पत्थर पर रखकर नदी को लाॅंघ लेता लेकिन यही नदी जब आगे बढ़ जाती तो विस्तृत होती जाती। जैसे-जैसे आगे बढ़ती वैसे-वैसे यह नदी बहुत विशाल लहरों से युक्त ,उछलती- कूदती, चिंघाड़ती दहाड़ती चलती । कहीं शांत रहती, कहीं उछलती, कहीं घोर गर्जना करती और भारत के अनेक शहरों की सबसे लंबी यात्रा करती हुई सागर में मिल जाती । नदी को देख कर दाहिनी तरफ का पत्थर बोला -”भाई देख! यहाॅं पर कितनी छोटी सी है लेकिन मैंने सुना है कि आगे चलकर बहुत विशाल नदी बन जाती है। यह अनेक स्थानों पर पूजी जाती है । इसके किनारो पर विशाल घाट बने हुए हैं । इसकी आरती उतारी जाती है। लोग फूल माला चढ़ाते हैं, भजन गाते हैं, कीर्तन करते हैं,संध्या हवन करते हैं । अनेक शहरों में गंगा किनारे मेले लगते हैं वहाॅं बहुत भीड़भाड़ होती है । बाई तरफ का पत्थर बोला- “अच्छा ! ऐसा है, सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। यहाॅं तो यह जरा सी है । अब जब वह लगातार इसी तरह होता रहा। लोग एक पत्थर पर पांव रखते फिर दूसरे पत्थर पर पांव रखते और नदी पार कर लेते । एक दिन दांई ओर के पत्थर ने बांई ओर के पत्थर से कहा - “भाई हम भी इस आश्चर्य को अपनी आंखों से देखना चाहते हैं कि ये सब सत्य है या झूठ है । इसकी गौरव गरिमा को देखकर ही विश्वास आयेगा।” दूसरा पत्थर बोला -” भाई मैं तो जहाॅं हूॅं वहीं ठीक हूॅं। सुनकर दांई ओर का पत्थर शांत हो गया लेकिन उसकी जिज्ञासा जिंदा रही। वह फिर बाएं पत्थर से बोला -“मैं तो इसमें कूद के जाता हूॅं । मैं भी देखता हूॅं कि आगे चलकर इसकी क्या विशेषता हो जाती है जो यह इतनी पूजी जाती है।” बांया पत्थर बोला -”ना भाई ना मुझे तो डर लगता है मेरी तो इतनी हिम्मत नहीं है कि मैं इसमें कूद सकूं । दाएं पत्थर ने कहा कि- “ तू ना खुद कूदता न मुझे कूदने देता। मैं खुद कूदकर देखता हूॅं जो होगा देखा जाएगा । ऐसा कहकर वह पत्थर कूद गया । और पानी के साथ लुढ़कता लुढ़कता पानी के साथ बह गया। रास्ते में अनेक बाधाएं आईं। उसे कहीं शिलाओं ने ठोकर मारी कहीं पत्थरों ने मारकर दूर भगा दिया। पर उसने हिम्मत नहीं हारी ।अनेक चोट खाकर उछलता कूदता, ठोकरें खाते हुए वह हरिद्वार जा पहुंचा । इतना उछलने कूदने के कारण उसके शरीर पर अनेक चोट आई । चोट आने से उसकी एक आकृति सी बन गई कहीं लगा की नाक बन गई आंख बन गई मुंह बन गया और इस तरह से उस पत्थर ने आकार ले लिया। अचानक लहरों ने उछाल मारा तो वह घाट की सीढ़ियों पर जाकर विराजमान हो गया । जब उसे लोगों ने देखा तो आश्चर्यचकित हो गए । एक ने सोचकर बोला- “अरे यह तो साक्षात गंगा मैया आ गई है । एक कान से दूसरे कान तक होते हुए यह बात पूरे शहर मे चर्चा का विषय बन गई। अब उन्होंने उस पत्थर को उठाकर मंदिर में रखा और उसकी पूजा अर्चना शुरू कर दी लेकिन बांई ओर का पत्थर ज्यों का त्यों वहीं पड़ा रहा। जब उसने सुना तो वह दंग रह गया और वह दाहिने ओर के पत्थर से ईर्ष्या करने लगा। वह अपने मन में कुढ़ने लगा और अपने भाग्य को कोसने लगा । हताशा निराशा के कारण मन कुंठित रहने लगा और धीरे-धीरे क्षरण का शिकार हो गया। एक दिन वह दाहिनी ओर वाले पत्थर के वैभव को देखने के लोभ में पानी में कूद गया और अनेक कष्ट सहन कर वहीं पहुॅंचा तो उस पत्थर के वैभव को देखकर उसके होश उड़ गए। वह क्रोध, ईर्ष्या, कुंठा और हीन भावना से इतना ग्रस्त हुआ कि वहीं गिर गया। दाहिनी ओर का पत्थर दूसरे पत्थर के पास गयाऔर बोला -” भाई भाग्य को कोसने से कुछ नहीं हता लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं बस सिर पर मंजिल पाने की धुन होनी चाहिए। और धुनी व्यक्तित्व की सहायता ईश्वर भी करते हैं। हम कष्टों से डरते हैं और भाग्य को कोसते हैं, अपनी असफलता का ईश्वर पर आरोप लगाते हैं। सुनकर दूसरा पत्थर संतुष्ट हो गया। उसका मन निर्मल हो गया।
