सहारा

सहारा

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"दीदी.. दीदी..आज पैंतीस डिब्बों का आर्डर और आया है..आप थोड़ा हिसाब लगा दो ना...अब कुल अस्सी डिब्बे हो गए। कितना राशन और सब्जी लगेगी ?"

उत्साहित सीमा के जैसे पंख लग गये थे।

"सीमा.....अब ये भी तो सीख ले...प्रति डिब्बा कितना राशन सब्जी लगती है। इतनी मेहनत करती हैं, पन्द्रह औरतें तेरे साथ हैं... अब ये जिम्मेदारी तेरी हैं... अब तुम लोग मिल कर हिसाब लगाओ..."आशा ने समझाया।

"ना दीदी... ये तो तुम्हें ही बताना हैं... हमसे ना होगा ये हिसाब विसाब...."सीमा साफ मुकर गयीं।

"अच्छा ठीक है...तू चल मैं अभी आती हूँ...." आशा हाथ का काम खत्म कर गैराज पहुँची तो ठिठक गयीं...

भावुक सीमा बोल रही थी ...

"सही कहती हैं लाजो, अब हमें राशन सब्जी का अंदाजा हो गया हैं, पर... तुझे पता तो है लाजो.. दीदी ने कैसे कैसे वक्त मे मेरा साथ दिया। वो ना होती तो उस बुढ्ढे को बेच देता मेरा बाप...मर खप गयीं होती मैं। उनका सहारा ही मुझे जिन्दा रखे हैं..लेकिन अब दीदी अकेली पड़ गयी है। बिटिया के ब्याह के बाद भैया जी के जाने का दुःख उन्हें तोड़ रहा है....उन्हें खुश देखने के लिये ही मैं उन्हें अपने से जोड़े रखती हूँ .।"

यह सब सुन कर आशा की आँखें भर आयी, वो समझ नहीं पायी कौन किसके सहारे है...।


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