शाम तन्हाई में
शाम तन्हाई में
आज पापा का फिर खत आया। कोई जवाब नही दी। या ये कहूँ कोई जवाब था ही नही मेरे पास। वो तो पिता है नही समझेंगे की ,वक्त अब बीत चुका है जो लौट कर नही आ सकता। कैसे बताऊँ उन्हें की मैं किसी और से प्रेम करती हूँ तो शादी किसी और से कैसे कर लूँ।
पापा के खत को लिए उदास बैठी मैं रश्मि यादों के समंदर में गोते लगाने लगी। वो एक -एक पल, किताब के पन्नो की तरह खड़खड़ाने लगे।
बचपन ,बनारस और इन्दाल से लेकर सबकुछ एक -एक कर याद आने लगा। काश!! की कोई दीवार हमारे मुहब्बत के बीच नही रहती। काश!! की मैं उसे कुबूल करने की हिम्मत रख पाती।
आठवी की परीक्षा पास कर रिजल्ट लेकर जैसे ही घर पहुँची ही थी कि दादी ने झटक कर रिजल्ट अपने पास रख लिए। नीना बुआ ने यूनिफार्म की जगह साड़ी पहना दी औऱ चाय की ट्रे पकड़ा कर मेहमानों के सामने ले गयी। मैं कुछ नही कर सकती थी उस वक्त बस निरीह नजरो से पिता की ओर देख रही थी। पापा भी दादा-दादी के फैसले के आगे कुछ नही कर सकते थे। लड़के वालों ने मुझे पसन्द भी कर लिया।
शाम को मेहमानों के जाने के बाद मम्मी -पापा का खूब झगड़ा हुआ। मम्मी अच्छे पढ़े-लिखे परिवार की बेटी थी। शहर में पली -बढ़ी विचारों से आधुनिक पर वही पिता जी गाँव के सामान्य कृषक परिवार से। गांव की संस्कृति व संस्कार पिता के रग-रग में लहु की तरह हिलोरे मारता था।
वो वक्त ऐसा था कि ब्राम्हण घर की बेटी यानी ऋतुचक्र के पूर्व ससुराल पहुँच जाए ,नही तो कन्यादान का पुण्य भी नही मिलता। इस कन्यादान के चक्कर में भाइयों का मुण्डन संस्कार तो हुआ पर लड़की होने की वजह से मेरा मुण्डन संस्कार भी नही हुआ।
कहते है बेटी की शादी अपने से ऊंचे खानदान में करनी चाहिए। न जाने कैसे नाना जी पापा के दरियादिली व अच्छे व्यवहार से प्रभावित होकर मम्मी का हाथ सौंप दिए। वो विवाह क्या बल्कि एक वैचारिक मतभेद की वो शुरुआत थी।
आये दिन झगड़े होना कोई नई बात नही थी। दादी चाहती थी कि परम्परा अनुसार मेरा विवाह जल्द हो जाये,पर मम्मी यही चाहती थी कि कम से कम स्नातक की पढ़ाई पूरी कर लूँ। घर में मम्मी का अपने सास-ससुर से भी इन रिवाजो की वजह से टकराव होता थी । उन दिनों घर दो खेमो में बंट चुका था। एक तरफ तो पूरा परिवार तो दूसरी तरह मम्मी अकेले। अक्सर अकेले पड़ जाने की वजह से मम्मी रोती थी।
मैं नही जानती की कौन सही था या कौन गलत। बस मम्मी की आँखों के आँसु बरबस ही मुझे अपनी ओर खींच लेते थे। जीवनसाथी का साथ जो जीवन की रिक्तता को भर लेता है ,कहीं न कहीं दादा-दादी की वजह से मम्मी-पापा में दूरियां आ चुकी थी। आपसी प्रेम व समर्पण की वजह से दो संस्कृति व संस्कारो का मिलन जो होता है वो अहंकार की वजह से पतन की राह पर थे। जहाँ दादा-दादी सही लगते थे वहीं मम्मी भी गलत नही लगती थी। बचपन से 20 वर्ष की अवस्था तक उनके मायके संस्कार प्रबल थे जो प्रेम से बदले जा सकते पर जोर जबर्दस्ती तो तनाव ही लाता था।
एक सिलसिला चलता गया अक्सर मेहमान आते मेरी नुमाईश होती और रिश्ता पक्का हो जाने पर भी मम्मी की जिद की वजह से आगे नही बढ़ना। वक्त बीतता गया। दादा-दादी बूढ़े हो चले थे। हालांकि आज भी दादी मम्मी के लिए तीखे टेवर रखती थी।
अक्सर तनाव की वजह से मम्मी हाई ब्लडप्रेशर व शुगर की मरीज बन चुकी थी। जो वक्त एक दूसरे को देना था उसका कुछ प्रतिशत भी पापा मम्मी को नही देते थे;जिसकी वजह से मेरे कोमल हृदय में वैवाहिक व गृहस्थ जीवन की कंटीली झाड़ियां पनपने लगी थी।
मैं स्नातक की पढ़ाई करने चुनार से बनारस पहुँच गयी जहाँ पढ़ाई के साथ कॉलेज की रंगीनियत भी असर दिखाने लगी। घर से एकदम अलग माहौल मुझे खुशी देने लगा। विवाह के बंधन में तो मैं बंधना ही नही चाहती थी।
मेरी रुम पार्टनर जया और श्रद्धा किसी शहजादी से कम न थी। वो दोनों कजिन थी काफी पैसे वाले घर से थी।बनारस की गलियों में हम तीनों कालेज के बाद घूमते रहते।
कभी घाट पर तो कभी मंदिर कभी कहीं तो बस!!ऐसा नही था कि पढ़ाई से मन उचट गया है ,बल्कि ये एक जुनून सा हो गया था कैरियर को लेकर ;की उसके आगे कुछ नही सूझता था, न घर ,ना शादी न माँ -बाप की खुशी। कैरियर मेरे लिए अहम हो चुका था।
उस दिन घाट पर बैठी थी । जया और श्रद्धा एक हफ्ते के लिए अपने घर गए थे। प्रतिदिन की तरह ये नियम बन चुका था,की एक बार घाट पर जाती थी ,जो सुकून मुझे मिलता था वो बयाँ नही कर सकती। एक युवक था जो मुझे अक्सर घाट पर दिखता था ,मैं नही जानती थी कि वो कौन था पर सच कहूँ तो उसको देखने की लालसा हृदय को आतुर कर देता था।
धीरे-धीरे ये सिलसिला शुरू हो गया अक्सर घाट पर मैं जाती की वो लड़का दिख जाए। शायद वो गाइड था ,अक्सर नए-नए लोगो के साथ दिखता। हालांकि उसने तो कभी मेरी तरफ देखा भी नही था। ये एकतरफा सफर था मेरी नजरो का। जया और श्रद्धा के जाने के बाद मुझे कुछ सुझा मैंने चेहरे पे हल्के रंग का स्कार्फ़ बांधा व एक बैग कंधे पर लटकाए उस युवक के पास गई। "मैंने कहा मैं कलकत्ता से आई हुँ बनारस घूमने।"
उसने कहा "मेडम जी बिल्कुल सही जगह आई है आप मैं गाइड हुँ आपको पूरा बनारस घुमाऊंगा ,वैसे कितने दिन ठहरी है आप।"मैंने सोचा अगले सोमवार तक तो जया औऱ श्रद्धा आ जाएंगी मैंने झट से कहा "संडे तक।"
उसने कहा " तो कल से...." उसकी बात बीच में काटते हुए मैंने कहा "आज ...आज से क्यों नही।" वो हँसने लगा " दिल्ली वालों की यहाँ आज आखिरी शाम है,कल से फ्री हो जाऊँगा कहाँ मिलोगी आप।"कहते हुए वो जाने लगा मैंने कहा "यही अच्छा सुनो! नाम तो बताओ।
"इन्दाल....." वो चला गया था पर उसकी आवाज कानो में समा गई थी। उसके बारे में सोचते हुए पूरी रात करवटों पर बीत गयी। (इन्दाल.... )
मुझे रात भर नींद नही आई सुबह का इंतजार था। आठ बजे घाट पर वो मिलने वाला था। जल्दी -जल्दी तैयार हुई। गुलाबी रंग का शूट व हल्की लिपिस्टिक लगाकर निकल गयी। जाने क्यों ये चाहत थी कि वो भी मेरी तरफ देखे। नियत समय पर वो मिल गया। उसने कुछ जगहों की सूची मुझे पकड़ाई। साथ ही प्रश्नवाचक दृष्टि से मेरी ओर देखा कि पहले कहाँ चले। "मैंने मंदिर की जगह जाने क्यों मस्जिद चुना। "आलमगीर मस्जिद" वो मेरे लिए अजनबी नही था ,पर मैं उसके लिए थी। उसे कोई फर्क नही पड़ना था कि मैं मंदिर जाऊँ या मस्जिद जाऊँ ,किले जाऊँ या मजार पे,पर मेरा सफर तो उससे ही शुरू होकर उस तक ही पहुँचना था।
गाड़ी में उसने पीछे का दरवाजा खोला पर मैं सामने उसके बगल की सीट में बैठ गयी उसके लिए मेरा साथ एक हफ़्तों का था ,पर मैं नही जानती थी कि उसके साथ मैंने अनजाने में ऐसे सफर के लिए चुन लिया था जिसकी परिणति सिर्फ मुहब्बत थी।
अगले दिन संग्रहालय गए। वो मुझे जगहों के बारे में बताता रहता और मैं उसे हर पल निहारती बस उसे जानने की कोशिश करती थी। हमारे नजरो की टकराहट कभी -कभी रोमांच से भर देता था,और मैं सिहर उठती थी। जाने क्यों उसका आस-पास ही होना मुझे सुकून देने लगा। इतनी की एक लत सी लग गयी उसकी। इतनी परिपक्वता तो थी कि मुस्लिम लड़के से प्रेम की मंजिल सिर्फ विछोह ही देगा। दिल पे किसका बस रहता है मैं लाचार थी मुहब्बत से अपने ,पर उसे इस बात की भनक भी नही लगने दी।
तीसरे दिन रामनगर किला ,गोडोवलिया मार्केट, सिल्क एम्पोरियम सब जगह घूमी। रविवार की शाम हमारा अंतिम मिलन था ,जब अनजाने में पहली बार मैं उससे टकरा गयी इससे पहले की मैं गिरती उसने मुझे सम्हाला। मैंने सॉरी कहते हुए उसकी आँखों में देखा और डर गई। इतना तो उसकी आँखों में मैंने देख लिया था कि ये एकतरफा प्रेम नही था। उस दिन का वो स्पर्श मेरे लिए अविस्मरणीय हो गया चिर काल तक।
काफी देर तक बिना बात किये हम मौन बैठे रहे। फिर विदा होते वक्त उसने मेरा हाथ पकड़ लिया ,और एक अप्रत्याशित प्रेम की मुहर मेरे होंठो पर लगाते हुए कहा "क्या सच में जा रही है आप मुझे छोड़कर।" मैंने कोई जवाब नहीं दिया। सच में उसके बाद न कभी घाट पर गयी ना ही कहीं बाहर घूमने। परीक्षा दिलाकर बनारस छतो हो चुका था।ये कहना चाहिए अपने समाज में
उस वक्त सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी लड़की थी।
इसलिए दादाजी के पुराने मित्र के यहाँ से रिश्ता आया। घर में सबको पसन्द था। मम्मी भी चाहती थी कि अब मेरा विवाह हो जाये। पहली बार ऐसा हुआ कि घर में सबका मत एक था। दादा -दादी की तो मानो ये अंतिम इच्छा हो चली थी। लड़का भी डॉक्टर था हैंडसम था कोई कमी नही थी रिश्ते में।
सब ठीक होने के बाद भी मैंने एकदम से रिश्ते के लिए विरोध कर दिया। वजह कैरियर, आगे की पढ़ाई, नौकरी कहा मैंने पर वजह सिर्फ इन्दाल की मुहब्बत थी। अपने प्रेम का जिक्र कर मां बाप के संस्कारों पर उँगली कैसे उठाने देती।
सबने बहुत समझाया मैं दिल्ली आ गयी। आगे की पढ़ाई शोध और प्रोफेसर के पद में आ गयी। हर वर्ष देव उठते ही पिता का खत आता है। जिसका मैं कोई जवाब नही दे सकती। क्योंकि ये रास्ता मैंने खुद चुना है। जीवन की 'शाम तन्हाई में' में मुझे बितानी थी। सब जानते हुए भी प्रेम करना 'वो मेरी गलती थी' फिर भी एक प्रेम का दीपक है इन्दाल के क जो जीने के लिए काफी है मेरे इस जन्म के लिए।
शायद जिंदगी की ढलती शाम में वो आ जाये मुझे तलाश करते हुऐ। या वक्त इतना बदल जाये की कोई दीवार हमारे बीच न हो और मैं सहर्ष उसकी मुहब्बत सबके सामने कुबूल कर सकूँ।
अचानक उसके यादों के भँवर से बाहर आई पापा का खत सम्हालते हुए अलमारी में रख दी। आईने के सामने खुद को देखते हुए सोचने लगी अब तो उम्र भी होने लगी पापा क्यों नही समझते।