Arunima Thakur

Inspirational

4.8  

Arunima Thakur

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सफ़रनामा .. तुमने किया क्या...?

सफ़रनामा .. तुमने किया क्या...?

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आज मैं जीवन के एक ऐसे पड़ाव पर आकर खड़ी हूँ, जहां मुझ पर चारों ओर से सवाल उठ रहे हैं, "तुमने हमारे लिए किया क्या ?" मेरा अंतर्मन भी पीछे नहीं है यह सवाल उठाने में। वह भी पूछ रहा है, "इतने वर्षों में तुमने मेरे लिए क्या किया ? कब जी तुम अपने लिए ?" भाइयों का कहना है कि "आपने जो किया वह आपका फर्ज था। आपने अपनी खुशी के लिए किया I दुनिया को दिखाने के लिए किया कि आप हम सब की कितनी देखभाल करती हैं, हमसे कितना प्यार करती हैं।" क्या सचमुच . . . . ? तो दुनिया को दिखाने वाला प्यार क्या कभी तुम लोगों को नहीं दिखा। बच्चों की शिकायत "आपने हमारे लिए क्या किया ? जो भी किया नानी मासी ने किया। जब हमें जरूरत थी आप वहां नहीं थी। जब जब हमें जरूरत थी आप नहीं थी। आपको तो अपना ससुराल संभालना था। अच्छी बहू बनना था"। पति सीधे साधे इंसान, उनकी शिकायत नहीं है। पर क्या सचमुच . . ? वह हँसते हुए उलाहना देना "तुम्हारा मन तो मायके में ही लगता है। बच्चों को भी वही भेज दी हो I तुम को घर गृहस्थी से क्या मतलब"। क्या यह हर औरत की तकदीर है या भगवान ने कुछ अलग स्याही से मेरा भाग्य लिखा है।

 

                       चलिए शुरू से शुरू करते हैं l मेरे पिताजी परिवार से अलग शहर में रहते थे। पर परिवार के प्रति बहुत संवेदनशील थे। इसीलिए जिंदगी भर की कमाई सब परिवार के नाम जमीन खरीदने में, गांव का घर बनवाने में लगा दी। कभी सोचा ही नहीं जहां रहते हैं, वहां भी घर होना चाहिए, कुछ बैंक बैलेंस भी होना चाहिए। मैं घर की बड़ी लड़की शहर में दसवीं तक पढ़ी। मेरा विवाह गांव के भी अंदर एक गांव मतलब भद्दर गांव के एक पढ़े-लिखे मास्टर लड़के से करा दिया गया। लड़का पढ़ा लिखा है तो यह मान लिया परिवार भी अच्छा होगा। पर नहीं' . . . वहां तो सास के आगे भी एक हाथ का घूंघट लेना पड़ता था। पचास लोगों का संयुक्त परिवार बड़े-बड़े बटोले, भगौने कढ़ाहियां . .शायद मेरे भार से भी ज्यादा भारी I आप खुद सोचिए पन्द्रह सोलह साल की लड़की कितनी परिपक्व हो सकती है ? पर उससे भी उम्मीदें बहुत सारी। नहीं तो ताना तो तैयार ही था कि "भाई शहर की पढ़ी-लिखी हैं। हम लोगों को गवांर समझती हैं"I पूरी जिंदगी यही सिद्ध करने में निकल गई कि हां मैं शहर की हूँ। हां मैं पढ़ी लिखी हूँ पर मैं आप लोगों को गवांर नहीं समझती l क्या परेशानी है अगर चूल्हे की जगह स्टोव का प्रयोग किया जाए बटलोई की जगह कुकर का प्रयोग किया जाए। पर नहीं . . . "खाना सोंध नहीं आवत है।"  अजीब बात है ना मेरी माँ तो शहर में खाना स्टोव पर ही बनाती थी। सबसे बड़ी समस्या तो सुबह होती I कभी ऐसे खुले में जाने की आदत ही नहीं थी। पर फिर मन को समझा लेती जाने दो लड़कियों को बहुत सारे काम शादी के बाद पहली बार ही करने पड़ते हैं। बाद में आदत पड़ जाती है। शादी के बाद महीनों मैं आधा पेट खा कर रही कि अगर दिन - दोपहर में रात- बिरात लग गई तो . . ? कहां जाऊंगी। हां औरतें शाम को भी जाती थी पर डर लगता था। सांप गोजर हुआ तो . . ? ऐसी वैसी जगह काट लिया तो . . ? और महीने के उन दिनों में और बारिश में तो हालत खराब I छाता पकड़ो कि कपड़े पकड़ो . . I जाने दीजिए यह सब तो छोटी छोटी समस्याएं थी। कई बार पति से बोलने की कोशिश भी की। पर उन क्षणों में . . . हा तो दिन मे तो पति की सिर्फ आवाज ही सुनी थी। दिन में तो वह जो भी चाहिए होता था माँ या भाभी से मांग कर दरवाजे से ही चले जाते थे। रात को चोरों की तरह आते। कभी-कभी तो मैं सोचकर सिहर जाती हूं कि रात उस अंधेरे में मेरे कमरे में आने वाला शख्स मेरा पति ही होता था . . ? कभी कुछ बोलने की कोशिश करती तो कहते, "तोहे लाज नहीं आवत है, बोला जिन माय भौजी सुन लेहई" I पर उस आवाज से तसल्ली होती थी हां मेरे पति ही है। आजकल की पीढ़ी क्या जाने, यह देह सुख हम उस जमाने की औरतों के लिए था ही नहीं। यह हमारा अधिकार नहीं था। यह वह भीख थी जो मांगने से नहीं मिलती थी I


 ऐसे ही जीवन के दो तीन साल बीत गए और मेरी गोद में मेरा लाडला आ गया खूब गोल मटोल I मैं पूर्ण हो गई मातृत्व का सुख .. पर क्या यह सुख भी मुझे नसीब हुआ ? मैं सारा दिन अपने आप को सिद्ध करती। कभी रसोई में रहती, कभी गेहूं धोती, कभी दाल दरती, मनो मनो अनाज इधर-उधर करती। कहने को तो बड़े लोगों का घर था पर घर के सारे काम घर की औरतों को ही करने होते थे। मेरे मायके के गांव में तो जो काम दाल बनाने का, गेहूं बनाने का, मजूर लोग करते थे। यहां वह सब हमें ही करना पड़ता। मेरा बेटा सारा सारा दिन इसके उसके साथ रहता I मैं उसे दूध पिलाने को भी तरस जाती। एक सद्य : प्रसूता स्त्री की तो देखभाल की जानी चाहिए.. हैं ना . , पर नहीं . . . मैं तो . . . I मेरा बेटा देखभाल के अभाव में बीमार रहने लगा। कभी बोलती डॉक्टर को दिखला दो तो बोलते, "नवाई के बेटवा पैदा किए हैं ना एहसे बड़े बिटवा भी घर मा है ना, सब दूध दही खाकर मस्त है ना। इसके आगे मैं क्या कहती . . ? जब मुझसे मेरे बेटे की हालत नहीं देखी गई तो मैंने अपनी माँ को चिट्ठी लिखी। मैं डर रही थी पता नहीं चिट्ठी पहुंचकर जवाब आते तक मेरा बेटा बचेगा भी या नहीं। पर भगवान का शुक्र है। दसवें दिन ही मेरी बहन व पिता आ गए। मेरे बेटे को अपने साथ ले गए I उस पर भी इतना आरोप-प्रत्यारोप हुए I मुझे कटघरे में खड़ा किया गया I यहां तक कि मेरी हिम्मत नहीं पड़ी कि मैं भी मेरे बेटे के साथ जा सकूं। उस दिन के बाद मेरे बेटे को उसकी मौसी व नानी ने ही पाला। ले जाने के बाद के चार महीने मैंने घर में कैसे निकाले मैं ही जानती हूँ। सीने में दूध भर आता था। गांठ पड़ जाती थी। उस पर से घर के लोग "कुछ खैर खबर नहीं है लगता है मर मुरा गया।" न रो पाती थी ना बोल पाती। आखिरकार मैंने मेरे पति को बोला, "मेरा बेटे को देखने का बड़ा मन है। चलो ना मुझे मायके छोड़ आओ" l तो वह चिल्लाते हुए बोले, "पहले तो तुम्ही को मायके भेजने का शौक चढ़ा था ना I अब पता नहीं हमार लड़का जियत बा या . . .।" मैंने उनके मुँह पर हाथ रख दिया सारा घर अशुभ बोलता है, आप तो मत बोलो। पता नहीं यह उनका मेरे प्रति प्यार था या बेटे के प्रति। वह तैयार हो गए। हम मेरे मायके पहुंचे I वहां एक प्यारा सा मोटा सा घुंघराले बालों वाला स्वस्थ सा लड़का बैठकर खेल रहा था। मैं कुछ बोलती उससे पहले ही मेरे पति मेरी माँ से पूछ बैठे , "बिटवा कहां बा"? तब से मैंने जाकर उसको अपनी गोद में भर लिया। वह रोने लगा शायद वह मुझे भूल गया था। मेरे पति आश्चर्यचकित होकर बेटे को देख देख रहे थे। वह उसे अपने साथ वापस ले जाने की जिद करने लगे। मैंने उस घर के बेटों का हाल देखा था, देख रही थी। ना पढ़ाई-लिखाई, ना कुछ अनुशासन। मैंने अपनी बहन को बोला, "बहन तुम पाल लो इसको। वहां जाएगा तो शायद यह वापस लौटकर नहीं आएगा।" तो शायद आज मेरा बेटा अगर कहता है कि तुमने मेरे लिए किया क्या तो वह सही है उसकी असली माँ तो उसकी नानी, मौसी ही है ना। पर क्या मैं कसूरवार हूँ . . ? मैंने तो उसकी भलाई के लिए उसे अपने से दूर उस माहौल से दूर किया था I


 बेटे के होने के तीन एक साल बाद मुझे एक लड़की हुई । बेटे का हाल देख चुकी थी और अभी देवरानी को देखकर भी थोड़ा सीख ली थी I तो बेटी का पालन-पोषण अच्छे से किया। अब वह पाँच साल की हो रही थी और गांव में स्कूल की कोई व्यवस्था नहीं थी। घर की लड़कियां जो पढ़ने जाती थी दूसरे गांव में, वह भी सिर्फ नाम मात्र के लिए स्कूल में नाम लिखा था। पर वह सब बगैर पढ़े पास हो रहे थे। मैं वह जिंदगी अपनी बेटी को नहीं देना चाहती थी। मैं चाहती थी वह सच में पढ़े। मैंने अपने पति से बात की कि उसको बड़े जेठ जी के पास शहर में भेज दो I उनके पास रख दो, उनके बच्चों के साथ वह भी अच्छे से पढ़ लिख जाएगी I पर पता नहीं क्या हुआ जिठानी नहीं मानी या क्या पता मेरी सास या फिर मेरे पति , आखिरकार हार कर मुझे अपनी बेटी को भी मामा के घर भेजना पड़ा। दो दो बच्चों की माँ हो कर भी में मातृत्व सुख से वंचित थी।


मैं कैसे काट छांट कर पैसे बचाती एक एक आना एक-एक पाई I मुझे लगता यह बाप की जिम्मेदारी है बच्चों को पालने की पर मेरे पति तो पैसा दांत से पकड़ते थे। पर मैं थोड़ा थोड़ा पैसा माँ को देने की कोशिश करती। क्योंकि मेरे पिताजी का धंधा नुकसान में चला गया था और भाई अभी छोटे थे। समय का प्रवाह चलता रहता है। भाई बड़े हो गए। उनकी नौकरी लग गई। उनकी शादी भी हो गई। यह मेरी खुशकिस्मती कहे या मेरे बच्चों की, मेरे बच्चों का मान उस घर में, उनके ननिहाल में बना रहा। लड़की शादी लायक हो रही थी। मेरे पति एक दिन बहुत खुश होकर घर आए। बोले बिटिया के लिए शादी का रिश्ता सामने से आया है। ससुराल वाले पास के गांव के जमींदार है। बस दो ही लड़के हैं। लड़का पढ़ा लिखा है जमींदारी देखता है l पता नहीं क्यों पर मैं अंदर तक सिहर गई। क्या बेटियां माँ का भाग्य लेकर पैदा होती हैं . . ? क्या जो जिंदगी मैंने जी वही मेरी बेटी को भी जीनी पड़ेगी . . . ?. नहीं ..... I पर मैं कर भी क्या सकती थी। पर मैं बलिहारी जाऊं अपने भाई की। शाम को जब इन्होंने मेरी माँ को फोन लगाकर बताया कि बेटी का रिश्ता अच्छे घर से आया है और इन्होंने शादी ..... तब से भाई ने फोन ले लिया और बोला, "जीजा बहन की शादी के समय हम बहुत छोटे थे। तब जो गलती हुई वह अब नहीं दोहराई जाएगी। वह यहां की पढ़ी बड़ी है। उसके लिए लड़का भी यहीं कहीं शहर में देखिए"। मेरे पति तो गुस्सा हो गए घर आकर चालीस बातें मुझे सुनायीं और बोल दिया अब वह लोग ही शादी करें। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। मैंने भाई को पत्र लिखा। तब टेलीफोन घर में नहीं था और बहुओं को पी सी ओ पर जाकर बात करने की अनुमति नहीं थी I तो उसमें लिखा,"जाने दो भाई उसका नसीब I जब उसका बाप कह रहा है तो वही शादी होने दो। तुम लोगों के पास तो इतना पैसा भी नहीं है और इन्होंने तो हाथ खड़े कर दिए हैं। भाई ने इतना ही बोला आज तक अपनी बिटिया ही माना है। जब बेटी हमारी है तो शादी भी हमें ही करने दो। अब शादी के लिए लड़का ढूंढना क्या कोई खाने का काम है वह भी हमारी जाति में पढ़ा-लिखा.... नौकरी पेशा... I काफी साल बीत गए। गांव के लोग तो यहां तक कहने लगे मामा ने भांजी को रखा (गलत सेंस में) हुआ है। इसीलिए शादी करना ही नहीं चाहते हैं। लोगों की परिवार वालों की यह सब बातें सुनती और रोती l कहती भी तो किससे ... ? भाई के हाथ जोड़े, "कर डालो शादी कहीं भी अब लोगों की बातें सहन नहीं होती" I पर भाई अपनी बात पर अडिग। शादी तो देख सुनकर अच्छी जगह ही करूंगा। आखिरकार भाई की मेहनत रंग लाई I बेटी की शादी बहुत अच्छी तरह से हुई। बेटे से भी ज्यादा समझदार प्यारा जमाई है।


सब ठीक ही चल रहा था। बेटी माँ बनने वाली थी। उसका कहना था आप आ जाओ तो मुझे थोड़ा सहारा हो जाएगा। पर मेरा नसीब ... चार दिन बाद की टिकट थी और मेरी सासु माँ गिर पड़ी। कूल्हे की हड्डी टूट गई। संयुक्त परिवार करने वाले बहुत पर करना कोई नहीं चाहता। मेरे संस्कारों की वजह से मुझे ही रुकना पड़ा। सासु को गोद में लेकर नहलाना धुलाना, दवाई, खाना पानी सब देखना l वह पाँच साल बिस्तर पर रही। पाँच साल तक सिर्फ मेरे जिम्मेंl मैं ऐसे कैसे छोड़ देती ? कैसे जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेती ? आखिर मेरे पति की माँ थी I भले ही मुझे पति व सास का कोई सुख ना मिला हो पर. . . .।


बेटी को बेटी हुई I बेटी को सब अकेले करना पड़ा l उस समय भी उसके साथ उसके मामा मामी ही थे वह आज भी सुनाती है, "मम्मी सिर्फ एक बार मैंने तुम्हें बुलाया l जब हर लड़की को माँ की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। पर तुम तब भी नहीं पहुँच पायी। कैसे कहती चार दिन के लिए उसकी बेटी को देखने आई थी तो घर वालों ने सास को अफीम देना शुरू कर दिया था कि बुढ़िया सारा दिन सोती रहेगी तो कुछ काम नहीं करना पड़ेगा। ना खिलाना पिलाना ना नहलाना धुलाना। जाकर उनकी दशा देखकर तो मैं रो पड़ी I उनकी आँखों में भी आँसू थे और उलाहना भी। देखा तुम छोड़कर चली गई तो मेरी तो दशा पड़ गई। किस दिल से अगली बार उन्हें छोड़कर जाने का हौसला कर पाती?


समय का पहिया चलता रहता है। सासु की मृत्यु हो गई I बेटे की शादी हो गई परिवार में जेठानी देवरानी के लड़कों की बहुएँ भी आ गई। मेरी जिम्मेदारी कम हो गई। अब मैं स्वतंत्र थी अपने बच्चों के साथ जीने के लिए I पर मेरी देवरानी की मृत्यु हो गई। देवर रिटायरमेंट के बाद गांव में आकर रहने लगे। मैं जब भी उनको देखती मुझे उनके पीछे हाथ जोड़े मेरी देवरानी दिखती। जैसे मुझसे कह रही हो दीदी इनका ख्याल रखना।


 मैं फोन हाथ में पकड़े बैठी थी I मेरे बेटे की बात मेरे कानों में गूंज रही थी I पहले दादी अब चाचा तुम्हें तो हमारे लिए फुर्सत ही नहीं है। कभी सोचा ... ...तुमने हमारे लिए किया क्या ? आज भी तुम्हें नहीं लगता कि हमें भी तुम्हें जरूरत हो सकती है। मेरी आँखों से आँसू निकल आए l क्या मैं खुद नहीं चाहती, मेरे बच्चों साथ समय बिताना पर जिम्मेदारियां . . ? उनको कैसे छोड़ दूँ।  तभी मेरे देवरानी की पोती दौड़ते हुए आकर मुझसे लिपट गई पीछे पीछे उसकी माँ भी भागते हुए आई। उसने शायद हमारी बातें सुन ली थी। उसने मेरे आँसू पोंछते हुए बोला, "आप भैया की बात का बुरा मत माना करें I कहने दे उनको, हम लोग जानते हैं ना कि आपने हमारे लिए कितना किया है। अगर आप ना होती तो अपने पापा बुआ लोगों की तरह हमारी बिटिया भी पढ़ नहीं पाती। आपकी कोशिशों से ही तो आज अपने गांव में स्कूल है। पता नहीं मेरी यह कोशिश कितनी मायने रखती है पर अपने पति और बच्चों की नजरों में तो मैं एक अपराधिन हूँ जिसने कभी उनके लिए कुछ किया ही नहीं। उल्टा पति को बच्चों से और बच्चों को पति से दूर रखा। आईना भी सवाल पूछता है तुम अपने लिए कब जी ? तुमने जिंदगी भर किया क्या...?


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