सदाबहार यादें
सदाबहार यादें
मेरा मानना है कि सभी के जीवन में कुछ खास क्षण आते हैं . जो भले ही कम समय के लिए हमारे जीवन प्रवेश करते है किंतु बहुत ही खूबसूरत और जिंदगी को इस पल में सम्पूर्ण जीने का अनुभव करा देते हैं।ये ऐसी स्थिति होती है कि हमें स्वयं को भी यह मालूम नही होता है कि वो कौन सा क्षण आएगा या आने वाला है जिंदगी में जिसे हम स्वेच्छा से जीना चाहेंगे।और ऐसा अक्सर तब होता है जब हम घर परिवार से दूर कहीं बाहर जाकर रहने लगे हों नौकरी या अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने के सिलसिले में।तभी हमें सारी जिम्मेदारियां याद आती हैं जिनसे हम अपने घर पर लगभग अनभिज्ञ रहते थे . वो हमें अहसास दिला देती हैं कि हम बड़े हो चुके हैं हमें आगे कैसे अपनी जीवनशैली की रूपरेखा को तैयार करना है।
आइए आपको साक्षात्कार करवाती हूं जो मेरे और मेरे करीबी दोस्तों के लिए रोज खुश रहनेे की एक कला है जो याद के रूप में सदा हमारे साथ चलती है।
मैंं गांव से दूर एक शहर में रहने आई थी जहां मैं एक प्राइवेट नौकरी करती थी और अपनी पढ़ाई का खर्च स्वयं उठाती थी। मैं किराए केे एक कमरे में रहती थी जहां मेंरे ही जैसे हमउम्र के बेचूलर रहते थे और कुुुुछ परिवार भी। व्यक्तितगत रूप से हम लोग एक दूसरे को जानतेे न थे किंतु कभी कभी दफ्तर से आते जाते या सब्जी मंंडी से कमरे को आते समय अगर गलती से यदि आमनेे सामने दिख जाएं तो एक फीकी मुस्कान लिए एक दूूसरे को परिचित करवाते कि हां हम ही हैं वो जो आपके पड़ोस में रहते हैं।
मेरा जन्मदिन था और नवरात्रि चल रही थी. जिसके कारण मैंने अपना जन्मदिन नही मनाया था। तब तक हम पड़ोसियों का एक कमरे सेे दूूसरे कमरे में लेन देन का सिलसिला शुरू हो चुका था। त्योहारों में प्रसाद और पकवान एक दूसरे को देना जो आज केे समय में हर कोई अपनेे पड़ोसी के साथ निभाता है। वे तीन लोग थे और मैं अकेेली रहती थी। वो चाहतेे थे कि मै भी उनके साथ साझा हो जाऊं और एक परिवार की तरह मिलजुुल कर रहेे। पहलेे थोड़ा अजीब था ये सब पर उनकेे बार बार आग्रह करने पर मैैंने भी खुद को परिवार के साथ रहने केे लिए मना लिया।और फिर हम लोग दफ्तर से साथ आते एक ही समय होता सबकेे लौटने का इसलिए कोई दूध की थैली कोई नमकीन लेते आता और सबको मेरे हाथ की बनी चाय का इंतजार रहता. और फिर सब लोग चाय पीकर लूडो खेेल खेलते जब तक रात के खाने का समय ना हो जाता. लूडो खेल की इस तरह से लत लग गई थी कि हमने खाना बनाने का काम भी आपस में बांट लिया ताकि जल्दी जल्द्दी सारा काम निपट जाय। और खाने केे बाद हम मकान की छत पर चले जाते और वहां लकड़ी का एक बड़ा सा फट्टा लगाते जिसमेंं देर रात तक हम लूडो खेलते। कभी कभी मकान
मालिक आवाज लगा देेते कि शोर मत मचाओ बाकी लोग सो रहे हैं और शोर मचाने का कारण यह था कि लूडो में प्रतिभागी अलग अलग जरूर होतेे थे लेकिन मुझेे हराने के लिए २ लोग एक हो जाते और आपस में गोटी नहीं काटने को कहते. और तीसरे जो थे वो बड़े भाई जैसे थेे जिन्हेंंमैं प्यार से ददा कहती और वो मुझे बिट्टी बुलाते। हम दो - दो का समूह बना लेते और रविवार की छुट्टी की प्रतीक्षा करते ताकि सारी बेईमानी का बदला लिया जा सकेे।और फिर आया कोरोना जिसनेे हमें दूर कर दिया हैै. और आज सिर्फ फोन पर लंबी वार्ता के जरिए हम उन क्षणों को याद करते हैं और प्रार्थना करतेे हैं प्रभु सेे कि वह हमें फिर से मिलाए और हम उन लम्हों को फिर दोहराएंं फिर लम्हों में अपनी सम्पूर्ण खुशी को जी सकेंं।
