"सच्चा प्रेम" भाग 1
"सच्चा प्रेम" भाग 1


30 वर्ष बीत चुके थे वशिष्ठ जी और कल्याणी जी के विवाह को। दो बेटे और एक बहू समेत पांच जनों का सुखी परिवार था उनका। एक बेटी थी जिसका विवाह हो चुका था। छोटे बेटे आशीष की बारी थी।
जैसे ही विवाह का प्रस्ताव रखा गया तो पता चला कि उसने अपनी जीवन- संगिनी पहले ही पसंद कर ली। पिछले 5 सालों से दोनों एक दूसरे को जानते हैं। दोनों की मुलाकात कॉलेज में ग्रेजुएशन के समय हुई थी। 'पारुल' नाम था लड़की का।
जाति मैं भिन्नता होने से पति -पत्नी ने थोड़ी ना नुकर की परंतु बेटे की ज़िद के आगे झुक गए।
धूमधाम से विवाह हुआ। शुरुआत में बहु द्वारा की गई ग़लतियों पर जब कल्याणी जी उसे कुछ समझाती तो आशीष अपनी पत्नी का पक्ष लेकर मां को ही खरी-खोटी सुना देता। परिणाम स्वरूप कल्याणी जी ने रोकना टोकना छोड़ दिया। दोनों पति- पत्नी अपनी इच्छा अनुसार घूमने फिरने लगे। अपनी सुविधानुसार अपने फैसले लेने लगे। बस एक वर्ष बीता था विवाह को दोनों में छोटी-छोटी बात को लेकर लड़ाई- झगड़े होने लगे।
और यह झगड़े न जाने कब इतने बढ़ गए कि बात तलाक तक आ गई।
जब यह बात वशिष्ठ जी और कल्याणी जी के सामने आई तो "उनके पाँव तले ज़मीन खिसक गई"। जिस लड़की के लिए आशीष ने अपने माता- पिता का विरोध किया। जाति समाज के बंधन को भी नहीं देखा। उससे मात्र 1 वर्ष के वैवाहिक जीवन में ही विवाह विच्छेद की नौबत आ गई।
यह कैसा प्रेम है आज की पीढ़ी का?
कल्याणी जी 30 वर्ष पूर्व की स्मृतियों में खो गई कि कैसे दो लोग जिन्होंने एक दूसरे को देखा भी नहीं था घर के बड़े- बुजुर्गों के सिर्फ एक बार कहने पर विवाह बंधन में बंध गए। उम्र ही कितनी थी दोनों की?
वशिष्ठ जी अट्ठारह वर्ष के और कल्याणी की थी सोलह वर्ष की।धीरे-धीरे आपस में समन्वय बैठा लिया। अच्छे बुरे हर समय में एक दूसरे का साथ दिया और एक दूसरे की ताकत बने। दोनों पति-पत्नी में कभी अगर कहासुनी हुई भी तो बच्चों को लेकर।
दो लोगों में तो विभिन्नता होती ही है परंतु "सच्चा प्रेम" तो वही है जो अलग होते हुए भी आपसी समझ और सहयोग से जीवन के उतार-चढ़ाव का आनंद लें। दिन में चार बार' आई लव यू' कह देने से ही 'सच्चा प्रेम' नहीं हो जाता।
कल्याणी जी सोचती हैं 30 वर्ष के वैवाहिक जीवन में दोनों पति- पत्नी ने एक दूसरे से एक बार भी कहकर प्रेम नहीं जताया।
सही भी तो है अगर कह कर जताना पड़े तो प्रेम कैसा ? प्रेम तो व्यवहार में प्रकट होना चाहिए। यादों के झरोखों से निकलते ही कल्याणजी दुःखी हो जाती हैं। उन्हें समझ नहीं आता कि अपने बेटे और बहू का घर टूटने से कैसे बचाएँ?
और वह पुनः गहरी सोच में डूब जाती है।