साज़िशों की जमीन

साज़िशों की जमीन

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कभी -कभी इंसान के जीवन में ऐसी स्थिति आ जाती है, की दिमाग शून्य हो जाता है। समझ ही नहीं आता कि क्या प्रतिक्रिया दी जाए। वो भी जब अपना ही परिवार हो। जिनसे लड़ा भी नहीं जा सकता। मन भर गालियां भी नहीं दे सकते, की उसके बाद तो मन शान्त हो जाये। न जाने कितनी कड़वाहट हमारे रिश्ते में आ चुकी थी।


आज बहुत दिनों बाद पिता जी का पत्र प्राप्त हुआ। पढ़ने के बाद मन खिन्न हो गया। देवास के पास एक छोटा सा गाँव है हमारा जहाँ दादा, परदादा के जमाने की पुश्तैनी जमीन व बड़ा सा महलनुमा घर है। मेरा बचपन बीता और कम उम्र में विवाह कर दिया गया, गाँव की परंपरा व परिवार की रीति अनुसार। पढ़ने की लग्न थी अच्छा जीवनसाथी मिल गया। पढ़ाई में साथ दिए, और पढ़ाई के बाद एक बैंक में क्लर्क की सर्विस भी मिल गयी।


हमेशा की तरह शाम की ट्रेन से देवास के लिए निकली। एक नॉवेल रखी थी पर मन नहीं लगा। ट्रेन अपनी रफ्तार में थी। अचानक खत निकाल कर पुनः पढ़ने लगी, अतीत की स्मृतियाँ पुनः सामने आ गयी।


 आठवीं में ही थी बड़े भाई की पत्नी आ गयी। शुरू शुरू में सब ठीक था। धीरे-धीरे भाभी का व्यवहार बदलने लगा या यूँ कहूँ की भाभी का असली रूप ही यही था। इंसान कितने दिन का दिखावा करेगा। जितनी सुंदर सूरत थी उतनी ही मन की काली। मैं उनके इर्द-गिर्द घूमती की भाभी आई है, पर वो सिर्फ दिखावा करती। जो भैया मेरे बगैर एक निवाला नहीं खाते थे, उनसे ये झूठ कह देती की मैं कब का खाना खा चुकी। जबकि कितनी राते भैया का इंतजार करते भूखी ही सो जाती की अब भैया आएंगे। जब मेरे माता-पिता शहर जाते या कहीं किसी कार्यक्रम में तो उस दिन भाभी मुझे स्कूल भी नहीं भेजती। सारा दिन मुझसे काम करवात और जब भैया आते तो ये कह देती मैं पूरा दिन काम करके थक गई। आपकी लाडली तो पूरा दिन सहेलियों के साथ रहती है। धीरे-धीरे उनके छल की मैं आदि हो गयी। कुछ बोलने का मौका भी नहीं मिला। अब सफाई देनी भी जरूरी नहीं लगता। दिन बीते मेरा विवाह हो गया। विवाह के बाद पहली बार घर आई तो माँ अकेले रसोई बना रही थी। जितने दिन रही माँ ने ही रसोई बनाई भाभी अब मेरी जगह माँ से काम करवाती और माँ करती भी जब भैया और पिता जी ने मौन धारण कर लिया, घर की सुख शांति के लिए तो मैं क्यों कुछ बोलती। आखिर घर में छोटी भी थी। स्वाभाव भी कुछ ऐसा की कम बात करना, शांत रहना।


अगली बार जब आना हुआ तो भाभी ने माँ को रसोई से ही बाहर कर दिया। माँ का चूल्हा अब आँगन में था। भाभी से बात करने की कोशिश की तो जवाब मिला तुम बाहर की हो। पिता और भाई भी मौन थे या ये कहूँ की उन लोगो ने मौन स्वीकृति दे दी। माँ तो वैसे भी कभी कुछ बोलती नहीं थी। भाभी तो भाभी थी घर की बहू और मैं पराई हो चुकी थी, घर में कुछ बोलने का अधिकार ही नहीं था। अगले दिन मेरी वापसी थी, पर भैया ने मुझसे बात ही नहीं की न मुझे छोड़ने गए। बोझिल मन से अपने घर आ गयी। पिछले दो साल से मायके नहीं गयी। इस बीच पिता जी का पत्र आता था। बुलावे का संदेश कभी नहीं लिखते थे। मैं भी मन ही मन मान बैठी की अब यही मेरा घर है इसके अलावा कहीं नहीं जाना। अपने सास-ससुर का ध्यान रखती फिर भी सासू माँ यही कहती कि तू तो दूसरे घर से आई है। पति से कभी मनमुटाव हो तो यही कहते कि तुझे तेरे घर छोड़ आता हूँ।


पर मेरा घर तो कोई था ही नहीं!! इसलिए हर तरह से यही प्रयास करती की ससुराल के लोगो को खुश रखूँ। कितना भी करती सास जब भी कोई मेहमान आता छोटी सी बात पर भी खूब बेज्जती कर देती, मेरे मायके वालों को कोसती। जी भरकर रो लेती फिर काम में लग जाती।


पता चला कि छोटे भाई की शादी तय हो गयी। मैं खुशी के मारे झूम उठी। पते में शादी का कार्ड पहुंचा। ससुर जी नाराज हो गए कि कोई लेने आएगा तब जाना। पर कौन लेने आता। पिता जी सयाने हो गए। बड़े भाई को फुर्सत नहीं छोटा भाई तो सीधे छुट्टी लेकर घर जाएगा। खैर ये सब बातें गौण थी। भाई की शादी है इससे बढ़कर खुशी क्या होगी।


सगाई हो गयी, तिलक हो गया कोई लेने नहीं आया। लोक लाज के भय से ससुर जी स्वयं छोड़ने गए कि समाज के लोग पूछेंगे बहु शादी में नहीं गयी तो क्या जवाब देंगे। घर पहुंचने के बाद ससुर जी ने सबको खूब खरी खोटी सुनाई और पानी तक नहीं पिए अगली गाड़ी से रवाना हो गए। किसी ने उन्हें मनाने की कोशिश भी नहीं की। उनके जाने के बाद दोनों भाइयों ने मुझे मन भर बातें सुनाई जबकि मैं जानती थी कि मेरे ससुर जी सही है। पर मैं चाहकर भी कुछ नहीं बोली बुरा तो तब लगा जब मेरे पिता जी ने भी मुझे गलत कह दिया।


भाई का विवाह हुआ भाभी ने हर मौके पे मुझे पराया होने का एहसास दिलाया। मैंने भी खुद को अब हर रस्मों से दूर रखा। मेरे पति देव तो आये नहीं शादी में न उन्हें किसी ने बात कर के बुलाने की कोशिश की। पूरी शादी में एक गठरी की तरह कोने में पड़ी रही। समझ ही नहीं आया कि मेरा कुसूर क्या था। मेरी सरलता या मेरा इस घर से अब पराया होना। शादी के दूसरे दिन ही लौट आई।


रास्ते से कुछ गहने और साड़ी खरीद ली। ससुराल में दिखाने के लिए की मायके से शगुन में मिला है। अब कई साल बीत गए न पिता जी का पत्र आता। घर में फोन भी लग गया था हमारे, पर कभी घर से कॉल नहीं आता। लगा शायद कम पढ़ी लिखी हूँ इसलिए ये तिरस्कार मिलता है ये सोच अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी की और नौकरी भी लग गयी। घर बाहर सब मैनेज करती फिर भी चार बातें सुनकर ही निवाला गटकती। इतना तो समझ आ गया कि जिसकी मायके में इज्जत नहीं उसकी ससुराल में भी इज्जत नहीं होती। जैसे भी था अपनी दुनिया में व्यस्त थी कि अचानक एक दिन पिता जी का एक पत्र आया और मैं निकल पड़ी, फिर वहीं जहाँ अपमान और तिरस्कार के अलावा कुछ नहीं मिलता।


मेरा स्टेशन आ चुका था। भीगे पत्र को बैग में डाल घर की तरफ रुख किया, वही घर जो कभी मेरा भी था। पहुंची तो पता चला माँ का स्वास्थ्य खराब था। दिन रात उनकी चारपाई के पास बैठी रहती। माँ ने कुछ नहीं कहा पर महरिया ने बताया कि कैसे छोटी बहू उनपे अत्याचार करती रही। कभी सूखी रोटी तो कभी बासी दाल जिसमें खट्टेपन के साथ झाग भी निकल जाता था ये बोलकर परोस देती की नींबू डाली हूँ और माँ चुपचाप खा लेती। पिता जी व भाई साथ बैठते थे इसलिए पिता जी को अच्छा भोजन व माँ कभी बचाखुचा और अक्सर बासी भोजन देती थी। शुगर होने के बावजूद माँ को चावल देती। साथ में ये भी कह देती रोटी खानी हो तो खुद सेंक लो। माँ कभी चिमटा का उपयोग नहीं करती थी, न जाने कितनी बार हाथ जल जाता। पर बासी रोटी माँ को आसानी से मिल जाती थी। अपने सारे कपड़े माँ से धुलवाती। माँ को आचार बहुत पसंद था, हर वर्ष गर्मी में बड़े शौक से डालती पर उनकी थाली तक कभी नहीं पहुँचता था। न जाने कितनी बातें महरिया ने बताया। जब ये बात मैंने माँ से पूछी तो हमेशा की तरह कुछ नहीं बोली। पिता जी से शिकायत की तो भाभी ने उस महरिया की ही छुट्टी कर दी। रोना-धोना मच गया घर में। छोटे भाई की पत्नी ने न जाने कितनी ओछी बाते की, कितना इल्जाम लगाई की मैं यहाँ सिर्फ लालच में आती हूँ और रोने लग गयी। रोते रोते अपने कमरें में चली गयी। छोटे भाई ने कहा मुझसे "तू कभी नहीं सुधरेगी" और वो भी अपनी पत्नी के पीछे -पीछे चले गए। दरवाजा इतनी जोर से पटका। अक्सर छोटे भाई की पत्नी तंज कसती और फिर कमरे में जाकर घड़ियाली आँसु बहाती, ताकि भाई आकर मुझसे फिर कुछ कहे। हमेशा से यही करती आई थी। भाभी तो मुँह खोलकर लड़ती थी। पर छोटे भाई की पत्नी तो त्रिया चरित्र में माहिर थी। अब माँ की देखभाल के साथ घर का सारा काम भी करना पड़ता। इतना बड़ा घर पर पुराने से पुराने नौकर की भाभी ने छुट्टी कर दी। किसी न किसी का जुबान माँ बाबूजी के ऊपर अत्याचार पर खुल ही जाता। पिता जी से भी मन भर काम ले ही लेती। कितने भी नौकर रहे, पर मेरे माता, पिता को चैन से बैठने नहीं देती। एक रुपया भी पिता जी की थैली में नहीं रह पाती। एक बाद एक सामान मंगवाती। अब यहाँ कोई नया नौकर टिक नहीं पाता था। लगातार बुखार की वजह से माँ कमजोर हो गयी थी। अगली सुबह की गाड़ी से माँ को शहर अच्छे डॉक्टर को दिखाने ले जाना था। पिता जी ने पैसे के लिए बड़े भाई से कहा उसने इनकार कर दिया।


छोटा भाई भी अब साथ में रहने आ गया था। थोड़ा सकुचाते हुए उसके कमरे तक गए। तो छोटे भाई की पत्नी पहले ही आग लगा रही थी, की "बुढ्ढा अब पैसे माँगने आएगा, आपने वहाँ की नौकरी छोड़ी, इतने सारे पैसों का हिसाब मांगेंगे। आप फूटी कौड़ी भी मत देना"


इतना सुन पिता जी लौट आये। मुझसे नजर भी नहीं मिला पाए। गाँव से लगे ही एक अन्य गाँव गए जहां उनके पुराने मित्र है, उनके पास गए। उनके आते तक रातों रात बड़ी भाभी ने आंगन में दीवाल खड़ा करवा दिया। आपकी लाडली बेटी ने मेरे सारे गहने चुरा लिया। जबकि मेरे बेग में दो साड़ी और आने-जाने के टिकिट के पैसों के अलावा कुछ न था। पूरी रात माँ के चारपाई के पास से हटी नहीं थी। इतना सुन रो पड़ी, पर अब भी कोई सफाई नहीं दी। बस अपना बैग लाकर बाहर पटक दी कि तलाशी ले लो, साजिश के ऊपर साजिश हद ही कर दिया था इन लोगों ने। माँ बेहोश हो गयी। तुरन्त माँ को शहर लेकर गए। दो दिन भर्ती रखे उसके बाद चौथे दिन डिसचार्ज किया डॉक्टर साहब ने। माँ अब स्वस्थ हो रही थी। रास्ते में मेरे पिता जी ने बताया कि कैसे दोनों भाईयों ने एक साजिश रची और छल द्वारा पूरी प्रोपर्टी अपने नाम करवा ली। एक मात्र घर के अलावा उनके पास कुछ भी नहीं। कैसे वो अपने मित्र से लिये ऋण को उतार पायेंगे। हम गाँव आ गए।


घर में कदम रखते ही क्या देखते है। कुछ गाँव के वरिष्ठ लोग एकत्रित हुए। उनमें से कुछ ऐसे भी जिनसे पिता जी की पुरानी दुश्मनी थी। बंटवारा होगा अब यहाँ छोटे भाई की पत्नी ने हुंकार की। घर के बड़े से बड़े, छोटे-छोटे बर्तन भी आँगन में रखे गए। पिता जी ने कहा “बंटवारा? तुम लोगो ने पहले से ही सब अपने नाम करवा लिया। अब ये घर मैं अपने जीते जी नहीं दूँगा”


छोटे भाई की पत्नी ने कुटिलता से कहा "तो कब मरेंगे आप, मर क्यों नहीं जाते" मुझसे रहा नहीं गया तो मुँह से निकल गया कि शर्म आनी चाहिए आपको आप अपने जीवित पिता के बारे में ऐसा बोल सकती है क्या? तभी एक झन्नाटेदार थप्पड़ छोटे भाई ने मेरे गालों में लगाया। दोनों बहुओं के माता पिता भी पहुँच गए। भाभी की माँ ने वही गहने पहन रखे थे जिसका इल्जाम मुझ पर लगाया गया।


इससे पहले की कुछ बोलती पिता जी ने मुझे सम्हालते हुए कहा जो लेना है ले लो और बंटवारा हुआ। माँ के पुराने बर्तनों से चम्मच तक का। पीछे का एक कमरा जो छोटे भाई के हिस्से का था वो गुजर बसर के लिए दिया गया। मेरे आने के पहले छोटे भाई की पत्नी ने जी भर के बातें सुनाई, मैं मौन रही। अब की बार लौट के मत आना बोली। मैंने भी जाते जाते इतना ही कहा माता-पिता का ध्यान रखना। मेरे आने की नौबत भी नहीं आएगी।


अब मायके जाने का मौसम भी निकल चुका था। कुछ उम्र भी हो गयी थी। अब तभी जाना होता जब माँ या पिताजी में से किसी का स्वास्थ्य खराब हो। तब एक बेटी की हैसियत से मेरे माता-पिता मुझे याद करते। मेरे दोनों भाई कभी मुझे असीम स्नेह करते थे और अब नफरत, बेपनाह नफरत।


मेरी ट्रेन आ गयी अपनी जगह में बैठते हुए सोचने लगी कि क्या मेरे माता पिता होते तो वो भी भाभियों के ऐसे व्यवहार में मौन रहते, मेरा तिरस्कार करते। हाँ शायद तब भी यही होता क्योंकि मेरे दोनों भाई, भाभी तो ये राज नहीं जानते। और तब मैं और भी ज्यादा दुखी होती कम से कम मुझे तसल्ली तो मिल गयी, की ये लोग मेरे अपने है, पर मैं इनकी नहीं। ढाई साल की उम्र में मेरे माता-पिता जिन्हें मेरे भाई बुआ-फूफा जी बोलते थे। उनके नहीं रहने पर मुझे घर ले आये और अपनी बेटी बना के रखा। गोद नहीं लिए बस एक रिश्ता इंसानियत का था। बीतते समय के साथ, सब यादे धूमिल हो गयी। बस जिसे भूलने की कोशिश की वो ही याद रहा कि मैं इस घर की बेटी ही नहीं हूँ। अगर उस रात पिता जी और माँ की बातें नहीं सुनती तो ये राज जान ही नहीं पाती। उन दोनों के अतिरिक्त आज मैं भी जान गयी। सारे गिले, शिकवे मिट गए।


शायद मेरी किस्मत में मायका नहीं "साज़िशों की जमीन थी। खैर जो भी है मेरे जन्मदाता न सही धर्म माता-पिता है, बहुत लगाव है और उनके प्यार में कभी कोई खोट नहीं हो सकता। आखिर!! बेटी हूँ मुझे अपनी परवरिश का कर्ज उतारना है। जब जब याद करेंगे मेरे माता-पिता, अपमान का घूँट पीकर लौट आऊँगी इस चौखट तक.!


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