रिश्तों का अमरत्व

रिश्तों का अमरत्व

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हम सभी इस बात से अच्छी तारह वाकिफ नहींं हैं कि रिश्तों की गर्माहट जब ठंडी पड़ने लगती है तो उस वक़्त दो चीजों के बीच की एक अनोखी ताकत ही उन दोनो के अतीत को जिंदा रख पाती है, 

यह ताकत या शक्ति क्या है, इसका नाम क्या है कहना मुश्किल है क्योंकि उन्ही हम सब में मेरा भी दिमाग है। 

इस बात को मैंने पहली बार तब महसूस किया जब लावारिस रमेश के बचपन के तरणहार कल्लू चाचा से पहली बार मुलाकात हो पायी। 

ये कहानी एक छोटे से गाँव के छोटे से लड़के रमेश की है जो लोगों के मुताबिक सात साल की छोटी उम्र में अपने मां-बाप को निगल गया। कहना जितना आसान है करना उससे कहीं ज्यादा मुश्किल, ये मिसाल पेश की उसके गाँव वालो ने। लोग उसको गालियाँ देकर जब तक गए तब उसकी गरीबी पर अपना करूण बरसाने लगे और अंततः वो एक दूसरे को उँगली दिखाकर अपने-अपने घर हो लिए। 

उस वक़्त कल्लू ने हिम्मत दिखाकर अपने सू्ने घर को उसके बचपन से भरा। इसलिए नहीं कि उसके रास्ते अब काँटो से भरे होंगे बल्कि इसलिए कि जब उसके गाँव के लोग ही उसके दुश्मन समान व्यवहार कर रहे हैं तो बाहरी दुनिया में तो उसका जीना हराम हो जायेगा। 

इसलिए उसके लिए उन्होंने एक मज़बूत बस्ता ले दिया कि गाँव के स्कूल से ही वो अपनी शिक्षा पूरी करे, लेकिन वो गाँधी तो था नहीं कि लोगों के तानो से किनारा करके अपनी जीवनचर्या में व्यस्त रह पाता, उसने अपना बचा हुआ चौदा बिस्सा खेत धीरे-धीरे गाँव वालो के आचरण की भेंट चढाकर उसको शहर भेजकर पढ़ाना ही सही समझा। 

रमेश की रीड़ कब की टूट चुकी थी वो किसी की उम्मीद तोड़ने के बारे में सोचने वाला भी नहीं था, फिर भी कल्लू तो उसके लिए भगवान जैसे थे। 

उसने अपने मन को मारकर अपनी पढ़ाई में खूब तेजी दिखाई। 

पैसों की कमी का मलाल कल्लू को ज़िंदगी भर रहा और उस वक़्त तो ये मलाल चरम पर पहुँच गया जब रमेश की पढ़ाई में पैसों की कमी अड़चन बनने लगी। 

जैसे तैसे उसने खुद को गिरवी रखकर रमेश की पढ़ाई पूरी की। और अब तक तो रमेश मन और तन दोनो से विकसित हो चुका था, 

ना ही उसे अब अपने गुजरे हुए माता-पिता की याद आती ना ही वो लोग याद थे जो उसके नाक में दम थे। 

वो अपने भगवान के मुताबिक कलेक्टर बनकर अपने जिले में आया और धूल बन चुके अपने जीवन दाता को एक झलक देखते ही अपनी सरकारी गाड़ी में बैठाकर पूरे गाँव में घुमाया, फिर कल्लू को बेडि़यो से मुक्त किया जो ठाकुर के कुत्तों की तरह जकड़ी हुई थीं।  

परंतु ये कहने पर कि शहर आपको बुला रहा है उन्होंने साफ मना कर दिया। 

उनको चौबीस घंटे के आराम की जगह चौदा बिस्से खेत की कीमत ज्यादा जान पड़ती थी। 

रमेश ने उनकी जमीन छुड़वाई और अपने काम से ज्यादा उस गाँव पर ध्यान देने लगा जो एक ज़माने में उसका दुश्मन हुआ करता था। 

अब इसे कल्लू का गाँव प्रेम कह लीजिये या रमेश का पिता प्रेम जो दोनो ने एक पल भी उस गाँव के बारे में नहीं सोचा जिसने एक पल को उनका अस्तित्व ही खत्म कर दिया था। 

आज भी हर हफ्ते जब रमेश की गाड़ी जब गाँव के चौराहे पर रुकती है तो उसको अपने पिता की मुस्कान दिखती है अपनी माँ का आँचल उसको रुलाता नहीं बल्कि प्रेरणा देता है की ऐसे न जाने कितने कल्लू के कितने गाँव पड़े होंगे जो उठ खड़े होने को रमेश की राह देख रहे होंगे। 

आखिरकार प्रेम प्रेम होता है और मोह मोह। 

और रिश्तों की पोटली का अमरत्व कभी ललकारा नहीं जा सकता। 


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