रिक्शेवाले
रिक्शेवाले
वह तेजी से रिक्शा लेकर उसके पास पहुँचा और पूछा - " किधर जाना है ? "
उसने सिर हिलाते हुए कहा - " कहीं नहीं। " और मुँह फेर लिया।
रिक्शावाला निराश होकर अपनी सीट से उतर गया और इधर-उधर देखने लगा...शायद कोई और सवारी मिल जाए !मगर...। सिर पर बँधा अँगोछा खोल वह चेहरे पर उतर आए पसीने को पोंछने लगा।चढ़ते सूरज के साथ धूप भी तीक्ष्ण हो गयी थी, जो शरीर को जला रही थी।
रिक्शा लेकर वह वहीं खड़ा इंतजार करता रहा।
कोई भी सवारी आती, तो ऑटो की ही प्रतीक्षा करती। वहाँ रिक्शेवाले भी हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।ऑटो वाले तो इतने हो गये हैं शहर में, कि हर पाँच मिनट में अगला हाजिर। वे आते हैं, सवारियों को बैठाते हैं और फुर्र हो जाते हैं। रिक्शेवाले बेचारे चुपचाप वहीं खड़े निरीह भाव से देखते रह जाते हैं।
इन ऑटो वालों ने तो हमारा जीना मुहाल कर दिया है।बैटरी वाली ऑटो आ जाने से तो और सुविधा हो गयी है लोगों को।आरामदायक सीट पर बैठो और तुरंत पहुँच जाओ।अब कौन बैठेगा हमारे रिक्शे पर, और क्यों बैठेगा ? जहाँ ऑटो से दस रूपये लगेंगे, वहाँ रिक्शे पर भला कोई बीस रूपये क्यों खर्च करेगा ? एक तो मँहगाई की मार, ऊपर से मंदी की चोट। आखिर रोजी-रोटी कैसे चलेगी हम रिक्शेवालों की....? यही सोचते हुए वह अपने रिक्शे पर बैठ गया और एकटक आने-जाने वाले लोगों को देखने लगा।
उसकी नजर सड़क के उस पार गयी। उसने देखा, वह युवक, जो अभी थोड़ी देर पहले उससे मिला था, एक ऑटो में बैठ रहा था। दोनों की नजरें मिलीं और अगले ही क्षण वो हुआ, जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी। वह युवक सड़क पार करके उसके पास आया और बोला - " मिठनपुरा चलोगे क्या ? "
" हाँ...हाँ।क्यों नहीं बाबू ! "
" क्या भाड़ा लोगे ? "
" आओ, बैठो बाबू।जो समझ में आए, दे देना। " - रिक्शेवाले ने कहा और अँगोछा सिर पर बाँधकर अपनी सीट पर बैठ गया। वह तेजी से पैडल मारने लगा था और रिक्शे की रफ्तार के साथ जिंदगी भी चल पड़ी थी।