रात्रि चौपाल भाग 5 :
रात्रि चौपाल भाग 5 :
रिजॉर्ट मैनेजमेंट
आजकल कलेक्टरों को प्रशिक्षण में यह बात भी सिखानी चाहिये कि "रिजॉर्ट मैनेजमेंट" कैसे किया जाये ? पता नहीं कब अचानक इसकी जरूरत पड़ जाये ? अब पारंपरिक प्रशासन का जमाना नहीं रहा। अब तो नित नई परिस्थितयां बनती बिगड़ती हैं। उनके अनुरूप ढालना पड़ता है खुद को। तब जाकर कुर्सी सही सलामत रह पाती है। पता नहीं कौन सी घटना कब किसकी "गिल्लियां" उड़ा दे ?
आजकल राजनीति रिजॉर्ट से ही चलने लगी है। पता नहीं कब विधायकों, सांसदों, विधान परिषद सदस्यों, सभासदों की "बाड़ाबंदी" करनी पड़ जाये ? आजकल हर एक चीज बिकाऊ है। फिर वह सौदर्य हो या निष्ठा। बस, उचित कीमत मिले तो सब कुछ बिक जाता है। जिसका जैसा सौंदर्य उसकी उतनी ही कीमत। इसी प्रकार जिसकी जितनी अधिक निष्ठा, उसके दाम भी उतने ज्यादा। अब कोई सीमा बची ही नहीं। राजनीतिक दलों की कोई विचारधारा भी नहीं बची। बस, एक ही विचारधारा बची है। येन केन प्रकारेण सरकार बनाना। वह चाहे विचारधारा की बलि देकर ही क्यों न बने ? ऐसी स्थिति में सरकार की नाव तब हिचकोले खाने लगती है जब विधायकों की महत्वाकांक्षा हद से ज्यादा बढ जाती है। तब किसी रिजॉर्ट की जरूरत पड़ती है। सरकारी मशीनरी इस नैया को पार कराने में महती भूमिका निभाती है।
राजनीति का तो एक ही उसूल है "साम दाम दंड भेद। जैसे भी हो सत्ता पर पकड़ बनी रहनी चाहिए। नैतिकता प्रवचनों में ही अच्छी लगती है। जब जोरों की भूख लगती है तब भूखा आदमी "स्वाद" नहीं देखता, खाना देखता है। वह यह भी नहीं देखता है कि भोजन की गुणवत्ता कैसी है ? तब वह केवल अपना पेट देखता है। जब पेट में दो चार रोटियां आ जाती हैं तब उसे गुणवत्ता याद आने लगती है। नैतिकता भी कुछ कुछ वैसी ही है। जब सत्ता हाथ में नहीं होती है तभी नैतिकता याद रहती है। सत्ता हाथ में आने पर नैतिकता लंगोट की तरह फेंक दी जाती है और वह लंगोटी भी कहीं धूल फांक रही होती है।
अविनाश को एक बढ़िया से रिजॉर्ट की व्यवस्था करनी थी। उसने एस पी से कहा। एस पी ने अपने सारे थानेदारों को काम पर लगा दिया। अपराधियों का क्या है, उन्हें तो बाद में भी पकड़ा जा सकता है। अभी तो विधायकों को पकड़ने की ज्यादा जरूरत है। फरियादियों की फरियाद बाद में भी सुनी जा सकती है, पहले विधायकों की फरमाइश तो पता चले ? मगर ये जो अवसर आया है "निष्ठाओं को परखने का" इस अवसर से कलेक्टर, एस पी सीधे मुख्यमंत्री जी की निगाहों में आ सकते हैं। और एक बार अगर नजर ए इनायत हो जाये मुख्यमंत्री जी की तो फिर कहना ही क्या ? पूरी सर्विस उनकी छत्र छाया में निकल जायेगी। एक से बढ़कर एक "मलाईदार" पद मिलते रहेंगे। और इसके लिए करना भी क्या है ? मुख्यमंत्री जी को खुश ही तो रखना है ? उनके जायज, नाजायज काम ही तो करने हैं ? वैसे भी सरकार जो करती है वह सब जायज ही होता है नाजायज कुछ नहीं होता। विपक्ष में जब तक कोई बैठता है वह "ईमानदार, नैतिकतावादी, देशभक्त, लोक हितैषी, लोकतान्त्रिक" नजर आता है। सत्ता में आते ही भ्रष्ट, अहंकारी, पद लोलुप, लोकतंत्र विरोधी, तानाशाह बन जाता है। यही सत्ता का सिद्धांत है। हमने ऐसे बहुत से "कट्टर ईमानदार", बच्चों की कसम खाने वाले नेता भी देखे हैं।
कलेक्टर और एस पी ने अपने अधीनस्थ समस्त अधिकारियों को काम पर लगा दिया। पंद्रह मिनट में रिपोर्ट आ गई कि तीन रिजॉर्ट्स हैं जिनमें से एक तो विपक्षी पार्टी के जिलाध्यक्ष का है। "बाड़ेबंदी" जैसी "ईवेन्ट" के लिए विपक्षी रिजॉर्ट सही नहीं रहेगा। इसलिए बाकी दोनों रिजॉर्ट्स को देखने का मन बना लिया दोनों ने। इनमें से एक रिजॉर्ट तो जिले के विधायक और सरकार में मंत्री जी का है और दूसरा सत्तारूढ़ दल के जिलाध्यक्ष का है। मंत्री जी का रिजॉर्ट थोड़ा बेहतर है मगर उसमें यह पेच है कि मंत्री जी मुख्यमंत्री खेमे के नहीं हैं, इसलिए बाद में समस्या उत्पन्न हो सकती है। ले देकर जिलाध्यक्ष महोदय का रिजॉर्ट ही इस कार्य हेतु उपयुक्त लगा।
उधर मुख्यमंत्री जी का फोन जिलाध्यक्ष जी के पास आ गया था और उनसे सारी व्यवस्थाएं करने को कहा गया। मुख्यमंत्री जी का फोन आने के बाद जिलाध्यक्ष जी को इस आपदा में भी अवसर दिखने लग गया। उनकी वर्षों पुरानी तमन्नाएं अंगड़ाई लेकर जाग उठीं। कब से विधायक बनने का सपना देख रहे थे वे। पार्टी की दरी बिछाते बिछाते वे बूढ़ा गये थे लेकिन पार्टी ने विधायकी का टिकट नहीं दिया उन्हें। टिकट मिला तो उन्हें जो "मुखिया" जी के जूते साफ करते थे, उनकी चंपी करते थे, उनका खाना बनाते थे, हजामत करते थे। और तो और उनके उल्टे सीधे काम करने वालों तक को टिकट दे दिया था और वे मंत्री भी बन गये थे। मगर जिलाध्यक्ष जी "उसूलों" के पक्के आदमी थे इसलिए पार्टी के झंडे बैनर लगाते ही रह गये। वो तो जब पार्टी के दोनों तीनों गुटों में जिलाध्यक्ष को लेकर खींचतान होने लगी तो जिलाध्यक्ष जी को निष्पक्ष नेता होने के नाते यह "इनाम" दे दिया गया। मगर उन्हें मालूम था कि आजकल "संगठन" की नहीं चलती है "सत्ता" की ही चलती है और सत्ता के लिए "भक्तिभाव" प्रदर्शित करना अनिवार्य शर्त है। अब ये सुअवसर घर बैठे बिठाए ही आ गया है तो क्यों न इसे सीढ़ी बनाया जाये सत्ता के लिए ? इसी उम्मीद में उनका चेहरा दूल्हे की भांति खिल उठा।
जिलाध्यक्ष जी कलेक्टर साहब के ऑफिस में आ गये थे। वहां पर जिले का पूरा अमला पहले से ही मौजूद था। रात में भी कलेक्ट्रेट चांदनी से भी तेज रोशनी में जगमगा रहा था। सत्ता प्रतिष्ठान रात में भी ऐसे ही जगमगाते रहते हैं।
सभी अधिकारी कलेक्टर की ओर मुंह ताके हुए बैठे थे। कोई भी अधिकारी अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करना चाहता था क्योंकि मामला बहुत संवेदनशील था। आजकल तो थानेदार हर एफ आई आर भी एस पी से पूछकर ही दर्ज करता है। "संवेदनशीलता" बहुत बढ गई है आजकल किसी का एक "ट्वीट" कितना भारी पड़ जाये, कुछ पता नहीं है। फिर किस ट्वीट पर, कार्रवाई करनी है और किसे इग्नोर करना है, यह तो "ऊपर" से ही बताया जाता है। क्या पता ट्वीट करने वाला व्यक्ति पार्टी का कोई "गुलाम" हो और उसे ऐसा करने के निर्देश "ऊपर" से ही मिले हों ? यदि गलती से एफ आई आर दर्ज कर दी तो फिर मामला कोर्ट में चला जाता है और कोर्ट तो आजकल क्या क्या नहीं कर रही हैं ? कैसी कैसी टिप्पणियां कर रही हैं, सब जानते हैं। कोर्ट खुद ही प्रसंज्ञान ले लेती हैं, खुद ही पैरवी करती हैं और खुद ही फैसला कर,देती हैं। ऐसी स्थिति में "रिस्क" लेना बड़ा "रिस्की" काम है। क्या पता कब "थानेदारी" चली जाये ? और अगर एक बार थानेदार चली जाये तो "चौथ वसूली" भी बंद हो जाती है। चौथ वसूली बंद होते ही "अकाल" पड़ जाता है। कौन आदमी "अकाल मौत" मरना चाहता है ? इसलिए भलाई इसी में है कि "हाकिम" की आंख से देखो, उसके ही कान से सुनो और वही कहो जो "हाकिम" को पसंद आये।
सारे अधिकारी कलेक्टर साहब के आदेश की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। कलेक्टर साहब जिलाध्यक्ष जी की ओर मुखातिब हुए और कहने लगे
"अध्यक्ष जी, मुख्य काम आपका ही है। रिजॉर्ट की ऐसी व्यवस्था कर दो जिससे कि ऐसा लगे जैसे वे किसी "जन्नत" में आ गये हैं। "खाने पीने" का भरपूर प्रबंध होना चाहिए। ड्राई फ्रूट्स इतने खिला दो कि वे खाते खाते "अघ" जायें। "रंग बिरंगे पानी" का "सागर" बना दो। विधायक महोदय उस रंग बिरंगे पानी को पीने के बजाय उसमें नहा लें, ऐसी व्यवस्था कर दो। इस काम में जिला आबकारी अधिकारी आपके अंडर में काम करेंगे। "वेज, नॉन वेज" दोनों तरह का भोजन होना चाहिए। उसकी इतनी वैराइटीज होनी चाहिए के सभी एम एल ए साहेबान ये कह दें कि इनको तो कभी देखा ही नहीं, बल्कि नाम भी नहीं सुना। अपने "शैफ" को इंस्ट्रक्शन दे दो। उसकी मदद के लिए कुछ एक्सट्रा स्टॉफ भी लगा दो। चाय, कॉफी, ठंडे का एक काउंटर स्थाई रूप से लगा दो। और हां, उनके मनोरंजन के लिए कुछ "बढ़िया " सा इंतजाम भी हो जाए। एडीएम साहब, आप ये सारी व्यवस्थाएं अपनी देखरेख में करवाना। वहीं रहना और मुझे बताते रहना।
पुलिस अधीक्षक को समझाते हुए कहने लगे "सुरक्षा इतनी चाक चौबंद हो कि ये विधायक लोग आ तो अपनी मर्जी से सकें मगर जायें हमारी मर्जी से। सबके मोबाइल सर्विलांस पर, लगा दो, विधायकों के भी और स्टॉफ के भी। खुफिया तंत्र को अपने काम पर लगा दो। और हां, सब विधायकों पर कड़ी नजर रहनी चाहिए। कहीं यहां पर भी ऐसा नहीं हो जाये जैसा महाराष्ट्र में हो गया था।
सारी व्यवस्थाएं करके कलेक्टर ने मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव यानि बॉस को फोन करके जानकारी दे दी। बॉस के मुंह से बस एक ही शब्द निकला "गुड"। वे इतना ही बोलते थे।
क्रमश :