रामू श्यामू और पंचतंत्र
रामू श्यामू और पंचतंत्र
हमारे घर के सामने वाले पड़ोसी श्री सत्यदेव जी ,जो हमारे पिताजी को दद्दू कहते हैं और हम उन्हें बड़े प्यार से चाचा जी कहते हैं, आज अपने घर के बाहर बड़े गमगीन से बैठे थे। मैंने घर से निकलते ही उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करके उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा-"नमस्ते,चाचा जी कैसे हैं आप सब लोग? आप बड़े चिंतित से लगते हैं।
" नमस्ते,नमस्ते, बेटा ,क्या तुम कल शाम को आए।नहीं बेटा , चिंता होने जैसी कोई बात नहीं है लेकिन तुमने बात का ऐसा अनुमान किस आधार पर लगाया और मैं चिंता में हूं ऐसा कैसे कह सकते हो? " -मेरे सिर पर स्नेहपूर्वक हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए वे बोले।
हां,चाचा जी ,मैं कल शाम को थोड़ा ज्यादा देर से आ पाया था इसलिए कल शाम आप से भेंट नहीं हो पाई। अब आपकी दूसरी बात पर गौर करता है।मेरी आयु आपसे काफी कम है।जीवन का अनुभव आप की तुलना में काफी कम है लेकिन आप सबके आशीर्वाद और मार्गदर्शन में हमें भी इस दुनिया को और लोगों को समझने का जो भी थोड़ा -बहुत अनुभव है उसी के आधार पर मैंने यह अनुमान लगाया। जब से मैंने होश संभाला है तबसे हमारे परिवार हर सुख और दुख को एक ही परिवार की भांति एक दूसरे से साझा करते है। हमारे दोनों परिवारों के बीच प्रगाढ़ संबंध होने में इस साझेदारी की अहम भूमिका है।मैं आपके अपने पुत्र के समान ही तो हूं और हमेशा की तरह परिवार के किसी सदस्य के साथ अपनी खुशियों और समस्याओं को साझा अवश्य किया जाना चाहिए।वैसे जो भी सीखा है उसमें आप सभी बड़ों का बहुत अधिक महत्वपूर्ण योगदान है।आपके चेहरे के भाव देखकर कोई भी सही अनुमान लगा सकता है कि आप किसी गहरी चिंता में हैं।"
"बेटा यह भी कोई कहने की बात है। निश्चित रूप से तुम हमारे अपने पुत्रों के समान ही हो। इसमें संदेह जैसी कोई बात ही नहीं है। मेरा तुम पर और मेरे अपने पुत्रों पर समान रूप से स्नेह है और आज की चिंता के केंद्र में यह हमारे दोनों पुत्र ही हैं। इनका जो स्वभाव और रंग ढंग है उसके अनुसार हमें इनके करीयर की चिंता हो रही है। इन्हें समझाने का कोई असर नहीं हो रहा है। समझाने पर केवल हामी भर लेते हैं लेकिन जो भी दिशा निर्देश दिया जाता है उसको ठीक से अपने पर लागू नहीं करते। जब समय से उठेंगे ही नहीं तो इनकी दिनचर्या अनियमित ही रहेगी। इनका अध्ययन के और स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण संतोषजनक नहीं कहा जाता। मैंने अपने स्तर से अनेकानेक प्रयास किए हैं लेकिन इसमें मुझे सफलता दूर दूर तक नजर नहीं आती।इनको इन्हीं की भलाई के लिए समझाते हुए कई बार तो इनके जो हाव भाव परिलक्षित होते हैं वह भी अच्छे संकेत नहीं दे रहे। ऐसे में मैं चिंतित होने के सिवा क्या सकता हूं क्योंकि इस चिंता का कोई समाधान मुझे दूर-दूर तक नजर नहीं आता।इन्हें आवासीय विद्यालय में भी प्रवेश दिलाने का विचार मन में आया तो तुम्हारी चाची इसके लिए तैयार नहीं हुई। इसके साथ आवासीय विद्यालय में प्रवेश दिला देने अपेक्षित सफलता की कोई शत प्रतिशत गारंटी तो है नहीं।"
"चाचा जी आप चिंता ना करें मैं अभी मेरी एक महीने तक छुट्टियां हैं और पूरे महीने के लिए महीने के लिए मैं घर पर ही हूं। इस एक महीने के दौरान मैं अपने इन छोटे भाइयों की दिनचर्या नियमित करने का प्रयास करूंगा।आशा ही नहीं मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब इनकी दिनचर्या नियमित हो जाएगी तो निश्चित रूप से इनका स्वास्थ्य बेहतर होगा पठन-पाठन में भी इनकी रूचि जागृत होगी। मेरी माता जी भी गौरव को लेकर आपकी तरह ही चिंता में डूबी रहती है।"-मैंने उन्हें विश्वास में लेते हुए कहा।आप निश्चिंत हो जाइएगा इस एक महीने के दौरान उनकी दिनचर्या नियमित करवाना आज से मेरा दायित्व है।"
उसी समय चाचा जी के द्वारा आवाज दिए जाने पर उनके दोनों पुत्र रामू और श्यामू बाहर आ गए वैसे आपको बताता चलूं कि रामू और श्यामू उनके घर में पुकारने के नाम हैं।विद्यालय के रिकॉर्ड के अनुसार रामू का नाम राम मोहन और श्यामू का नाम श्याम मोहन है। आते ही दोनों ने दोनों हाथ जोड़कर मुझे प्रणाम किया।
"दोनों एक साथ में मुझसे पूछा- "भाई साहब , आप कल रात को आए हैं। शाम तक तो आप आए नहीं थे। आप कितने दिन के लिए आए हैं। मुझे आपके साथ रहना, बातें करना बड़ा ही अच्छा लगता है।"
"हां, शाम को कुछ ज्यादा देर से आ पाया। मैं एक महीने के लिए आया हूं और इस एक महीने भर हम चारों लोग हम तीनों और चौथा गौरव साथ में खूब मस्ती करेंगें। तुम दोनों फ्रेश होकर आ जाओ अभी हम ग्राउंड की तरफ चल रहे हैं जहां हम चारों बैडमिंटन खेलेंगे। कल से हम आज की तुलना में एक घंटा पहले उठेंगे जिससे कि खेल के बाद किए जाने योगाभ्यास में सूर्य के सामने सूर्य नमस्कार आसन का नियमित अभ्यास कर सकें और फिर घर पर आकर स्नान कर उगते सूर्य को समय से अर्घ्य दे सकें।"-मैंने रामू श्यामू के प्रश्न का उत्तर देते हुए अपनी आगामी योजना की एक झलक प्रस्तुत कर दी।
इस प्रकार अगले दिन से हमने अपने जागने का समय निश्चित कर लिया । पहले जो रामू -श्यामू देर तक सोते रहते थे। अब वह जल मुझसे भी जल्दी उठकर दरवाजे पर मुझे बुलाने आ जाते। ग्राउंड पर वार्म अप , बैडमिंटन खेलने के साथ ही साथ हम लोग योगाभ्यास करते। हमने अपने समय को इस प्रकार बांध रखा था कि सूर्योदय तक हम सूर्य नमस्कार आसन के लिए तैयार होते।
घर पर आकर स्नान आदि से निवृत हो, सूर्य को अर्घ्य देते फिर जलपान करते। जलपान के पश्चात हम चारों बैठक में बैठकर अध्ययन करते। शुरुआत में रामू- श्यामू लगभग तीन या चार दिन तक कुछ टालमटोल सी करते नजर आए। मैंने स्वयं को संयत रखने के साथ थोड़ा टाइम टेबल को पालन करवाने के प्रति सख्ती दिखाई।उन्हें विषय वस्तु को समझाने में कुछ रुचिकर विधियां का प्रयोग करते हुए उन्हें अध्ययन के प्रति प्रेरित किया ।गौरव सहित तीनों ही कुशाग्र बुद्धि थे। तो कुछ ही दिन में इनमें सुधार नजर आने लगा ।अब वे अपने घर पर अपने पारिवारिक सदस्यों की भी घरेलू कामों में मदद करने लगे। उनकी इस प्रगति से चाचा सत्य देव जी संतुष्ट नजर आए। करीब पंद्रह दिन बीतने के बाद चाचा जी ने मुझसे कहा कि तुमने 'पंचतंत्र' के रचयिता विष्णु शर्मा की तरह इन तीनों बच्चों को सही दिशा निर्देश देते हुए उचित मार्ग पर ला दिया अब मुझे आशा हो गई है कि इस महीने की अवधि में इनकी दिनचर्या इस प्रकार इनके अभ्यास में आ जाएगी कि ये हर बाधा को निर्बाध रूप से पार कर सकेंगे और अपेक्षित लक्ष्य को बड़ी आसानी से प्राप्त कर पाएंगे।
पंचतंत्र की कहानियों का जिक्र आने पर मैंने चाचा जी के छोटे पुत्र श्यामू को बुलाया उसे बुलाकर मैंने पंचतंत्र की कहानियों की रचना के बारे में उससे वर्णन करने के लिए कहा- " पंचतंत्र की कहानियों के बारे में जो तुम जानते हो उसे संक्षेप में बताओ।"
श्यामू ने बताना प्रारंभ किया-"संस्कृत की कथाओं में पंचतंत्र का अति महत्वपूर्ण स्थान है! इस ग्रंथ को पंडित विष्णु शर्मा ने लिखा इसकी अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता का प्रमाण यह है कि विश्व की पचास से भी अधिक भाषाओं में इन कहानियों का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। पंचतंत्र की कहानियों के इतिहास के बारे में बड़ी ही रोचक कथा है कि लगभग दो हजार वर्ष पहले भारत के दक्षिणी हिस्से में महिलारोप्य नामक नगर में राजा अमरशक्ति शासन करता था। बहुशक्ति ,इंद्रशक्ति और अनंतशक्ति उसके तीन पुत्र थे ।राजा अमरशक्ति जितने ही उदार प्रशासक और कुशल नीतिगत थे उनके पुत्र उतने ही मूर्ख और अहंकारी थे। राजा ने उन्हें व्यावहारिक शिक्षा देने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन किसी प्रकार से बात नहीं बन रही थी । राजा ने इस बारे में अपने मंत्रियों से विचार विमर्श किया। राजा के मंत्रिमंडल के कई कुशल दूरदर्शी और योग्य मंत्रियों में से सुमति नाम के एक मंत्री ने राजा को परामर्श दिया कि पंडित विष्णु शर्मा सभी शास्त्रों के ज्ञाता हैं यदि राजकुमारों को शिक्षा देने और व्यावहारिक रूप से प्रशिक्षित करने का उत्तरदायित्व उन्हें सौंप दिया जाता है तो वह काफी कम समय में ही राजकुमारों को शिक्षित कर सकेंगे।"
तनिक रुक कर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए श्यामू ने कहा-"राजाअमर शक्ति ने पंडित विष्णु शर्मा को पुरस्कारस्वरूप एक सौ गांव देने का वचन दिया था। पंडित विष्णु शर्मा ने इस पारितोषिक अर्थात पुरस्कार को तो अस्वीकार कर दिया लेकिन उन्होंने राजकुमारों को शिक्षित करने के कार्य को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। इस स्वीकृति के साथ उन्होंने घोषणा की कि इस असंभव कार्य को वे मात्र छह महीने में पूर्ण करके दिखाएंगे यदि ऐसा न कर सके तो महाराज मुझे मृत्युदंड दे सकते हैं। महाराज अमरशक्ति पंडित विष्णु शर्मा की इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुनकर पूरी तरह निश्चिंत होकर अपने शासन कार्य में व्यस्त हो गए। उधर पंडित विष्णु शर्मा तीनों राजकुमारों को अपने आश्रम में ले गए। जहां उन्होंने राजकुमारों को नीति शास्त्र से संबंधित कथाएं सुनाईं। अपनी इन कथाओं में पात्रों के रूप में उन्होंने पशु- पक्षियों का वर्णन किया और अपने विचारों को राजकुमारों के सामने इस प्रकार रखा जैस वे पशु -पक्षी अपने विचार व्यक्त कर रहे हों। राजकुमारों की शिक्षा पूरी होने के बाद पंडित विष्णु शर्मा ने इन कहानियों को पंचतंत्र कहानी संग्रह के रूप में संकलित किया यह कहानियां पंचतंत्र अर्थात पांच भागों में बॅंटी हुई हैं। पांच तंत्रों में बॅंटी होने के कारण ही इन्हें पंचतंत्र की कहानियों का नाम दिया गया है। इनमें से पहला तंत्र मित्र भेद अर्थात मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव ,दूसरा तंत्र अर्थात दूसरा भाग मित्र लाभ या मित्र संप्राप्ति अर्थात मित्र की प्राप्ति और उसके लाभ, तीसरा तंत्र अर्थात तीसरा भाग संधि विग्रह अर्थात काकोलूकियम अर्थात कौवे और उल्लू की कथा ,चौथै तंत्र अर्थात चौथै भाग में मृत्यु या विनाश के आने पर यदि जान पर आ बने तो क्या करना चाहिए और अंतिम पांचवें तंत्र अर्थात पांचवें भाग को अपरीक्षित कारक अर्थात ऐसा कार्य जिसको परखा न गया हो उसे करते समय सदा सावधान रहें ,हड़बड़ी में कदापि कदम ना उठाएं। इस प्रकार की कहानियों में उन्होंने समस्त नीतिगत बातों को कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत किया।"
"चाचा सत्यदेव जी के चेहरे पर मुस्कान उनकी संतुष्टि को दर्शा रही थी उन्होंने मेरी ओर मुखातिब होते हुए कहा-"तुमने मेरी समस्या का समाधान कर मुझे चिंतामुक्त कर दिया।"