राज़
राज़
पुराना सा ज़ंक लगा दरवाज़ा और बड़ी सी भुतहा हवेली स्वप्न में उसको अपनी तरफ़ खींचती हुई जान पड़ती और सोहनी हड़बड़ा कर नींद से जाग जाती। स्वप्न के चंगुल से बाहर निकलने के बाद भी हवेली से आती करूण चीख़ें उसके कानों में गूँजती रहती। न जाने कौन से जन्म की याद थी कि इस जन्म में रह-रह कर स्वप्न में आ जाती थी।
राज़ पिछले जन्म का जानने के लिये अपनी सहेली रीता दुआ, साइकैट्रिस्ट से अपॉइन्टमेन्ट ले कर उसके क्लीनिक पहुँची।
हिप्नोटिज़्म के ज़रिये पिछले जन्मों की यादों में डूबती-उतरती सोहनी अपनी कार में उसी जंक लगे दरवाज़े पर पहुँच कर रुक गई। पर्स में से चाबी निकाल कर ताला खोला तो छत पर बरसों पुराना कंकाल लटक रहा था। कमरे की साज-सज्जा धूल-धूसरित हो चुकी थी। मेज़ पर एक डायरी पड़ी थी। खोल कर देखा तो लिखावट जानी-पहचानी सी लगी।
डायरी पढ़ते-पढ़ते सारी घटनायें फ़िल्म की रील की तरह सोहनी की आँखों के आगे घटने लगीं।
याद आया वह ज़मींदार राजकुँवर सिंह की हवेली पर अपनी माँ से मिलने आई थी जिसे अपनी हवस मिटाने के लिये ज़मींदार ने हवेली में क़ैद कर रखा था। क्योंकि वह गाँव की सबसे ख़ूबसूरत महिला थी। सोहनी अपनी माँ को छुड़ाने के लिये पूरी तैयारी से आई थी चाहे उसे ज़मींदार का क़त्ल ही क्यों न करना पड़ता पर वहाँ छत के कुंडे से माँ की लाश लटकते देख वहीं बेहोश हो कर गिर पड़ी थी।
स्वप्न का राज़ तो समझ में आ गया पर बंद दरवाजे़ के पीछे जानकी देवी की सूरत आज भी न्याय माँगती चीख़ती सुनाई पड़ती है जिससे सोहनी उबर नहीं पाती।