प्यार का इम्तिहान
प्यार का इम्तिहान
बहुत पुराने समय की बात है किसी देश में एक राजकुमारी थी। वह बहुत सुंदर और बहुत अभिमानी थी। अपने सामने वह किसी को भी कुछ नहीं समझती थी। उससे शादी करने के इच्छुक सभी राजकुमार थे लेकिन राजकुमारी को कोई भी राजकुमार पसंद नहीं आता था। यहां तक कि उसने अपने स्वयंवर में भी किसी भी राजकुमार को जयमाला नहीं डाली। राजकुमारी की उम्र हो रही थी और वह अभी तक कुंवारी थी यह सोच राजा को रातों को भी नींद नहीं आती थी। उसने अपनी समस्या का समाधान हेतु से अपने देश में एक बहुत पहुंचे हुए ऋषि को आमंत्रित किया। ऋषि महल के किनारे पहुंचे तो राजकुमारी अपने रथ पर शहर के लिए जा रही थी। ऋषि को अभिवादन करना तो दूर अभी तो उसने ऋषि का बहुत अपमान किया।
उसने ऋषि को दुर्वचन बोलते हुए कहा मुझे पता है मेरे पिता को मेरे विवाह हेतु उपाय देने के लिए आए हैं लेकिन आपने कभी आज तक मेरी सुंदरता के मुकाबले का कोई भी और मनुष्य बना हुआ देखा है। ऋषि को यह सब सुनकर बहुत गुस्सा आया और वह राजकुमारी को कुरूप होने का श्राप देने वाले थे कि राजा पीछे पीछे आ गया। राजा ने ऋषि से बहुत क्षमा मांगी । अब तक तो राजकुमारी की बेहद डर चुकी थी। वह कुरुप नहीं होना चाहती थी। ऋषि ने कहा मैं केवल इस शर्त पर इस राजकुमारी को सुंदर बने रहने दे सकता हूं मेरी पत्नी बनना स्वीकार करें।
राजा भी ऋषि को कुपित नहीं करना चाहता था इसलिए उनकी हर बात मान ली गई। दोनों का विवाह हो गया और बड़े दुखी मन से राजकुमारी को उस ऋषि के साथ विदा कर दिया गया। राजा ने राजकुमारी को विदा करते समय बहुत ही खूबसूरत नौकर चाकर हीरे जवाहरात, ऊंट और घोड़े इत्यादि देनी चाहे ताकि उनकी बेटी अपने महल में आराम से रह सके लेकिन ऋषि साधु ने कुछ भी लेने से साफ मना कर दिया। वह केवल राजकुमारी को लेकर अपने साथ चला। महलों में रहने वाली राजकुमारी जब पैदल साधु के साथ चली तो उसने रास्ते में विशाल अट्टालिकाएं देखी। उसने ऋषि से पूछा क्या यहां हमारा घर होगा ऋषि ने कहा नहीं हमारा घर और आगे है। राजकुमारी अब बेहद थक चुकी थी। पैदल चलने से उसके पांव में छाले भी पढ़ रहे थे। आज उसे अपने भाग्य पर बहुत पछतावा हो रहा था उसने स्वयंवर में ही किसी राजकुमार का हाथ क्यों ना थाम लिया।
चलते चलते उसे बेहद भूख भी लग आई थी। वन में भी बहुत दूर चलने के बाद ऋषि ने राजकुमारी को बताया वह दूर वाली कुटिया उसकी है और राजकुमारी को वहीं रहना होगा। हमेशा गुदगुदी गद्दों पर सोने वाली राजकुमारी ने किसी तरह घास फूस बिछा के अपने सोने के लिए जगह बनाई। कुटिया में रखे थोड़े से फल खाए। अब तक उसका सारा घमंड चूर हो चुका था।
यूं ही दिन बीत रहे थे और अब धीरे-धीरे राजकुमारी को जंगल में ही कुटिया में रहने की आदत पड़ गई थी। वही वह चूल्हा जलाकर भोजन इत्यादि बना देती थी और कई बार दोनों फल खाकर ही गुजारा करते थे। लेकिन अब राजकुमारी को जंगल में प्राकृतिक नजारे और शांत जीवन बहुत अच्छा लगने लग गया था। ऋषि देव जब भी बाहर जाते बहुत से फूल और फल और बहुत सा सामान लेते हुए आते थे। अब राजकुमारी खुद को फूलों से भी सजाने लगी थी। वह अब ऋषि की सेवा करते हुए भी बहुत प्रसन्नता का अनुभव करती थी। ऋषि वास्तव में एक बहुत नेक दिल इंसान थे। राजकुमारी महल वगैरह सब कुछ भूल कर झोपड़ी में ही रहने की आदि हो गई थी। इस तरह उन्हें जंगल में रहते हुए 1 साल व्यतीत हो गया। अगले दिन उनकी शादी की सालगिरह थी। उस दिन ऋषि और राजकुमारी जल्दी ही उठ गए थे। राजकुमारी ने सुबह ही स्नानादि से निवृत्त होकर खुद को फूलों से सजाया ।
थोड़ी देर में उसने देखा कि बहुत से लोग उसकी कुटिया की तरफ चले आ रहे हैं। ढोल नगाड़े की आवाज भी दूर से आ रही थी। थोड़ी देर में सब बाजे गाजे और रथ लेकर आ गए। महाराज की जय हो ,महारानी की जय हो इन आवाजों से पूरा आकाश गूंज उठा। राजकुमारी हैरान होकर ऋषि की ओर देख रही थी तब ऋषि ने राजकुमारी की ओर देखते हुए कहा महारानी की जय हो। मैं विजय नगर का राजा हूं और सदा से ही तुम्हें पसंद करता था। तुम्हारे पिताजी मुझे बहुत पसंद करते थे लेकिन वह भी तुम्हारे इस अहंकारी स्वभाव से बहुत परेशान थे। मैंने तुम्हारे पिता को वचन दिया था कि मैं तुम्हारे स्वभाव को बिल्कुल बदल दूंगा और अब तक तुम बिल्कुल बदल भी चुकी हो। इसलिए महारानी अब हम यह वन छोड़कर अपने महल में चलेंगे। तुम्हारी परीक्षा की घड़ियां अब समाप्त हो चुकी है। तभी बहुत सी दासियां मंगल गीत गाती हुई उस राजकुमारी को तैयार करने लगी। राजा ने भी ऋषि का वेश उतार कर राजा का भेष अपना लिया था। कीमती गहनों और कपड़ों में दोनों बहुत सुंदर लग रहे थे। थोड़ी देर में राजकुमारी के पिताश्री और माताश्री भी अपने रथ पर आ गए थे। राजकुमारी सब से मिलकर बहुत खुश हुई। अब वह अपने पुराने व्यवहार को भूल चुकी थी और वह सबसे खूब गले लग कर मिली। उसके बाद उन दोनों ने बहुत समय तक अपने पुत्र पौत्रों के साथ विजय नगर में राज्य किया।
