Naresh Verma

Classics

4.8  

Naresh Verma

Classics

पूजा -घर

पूजा -घर

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डाक्टर सुशांत थक कर चूर हो चुके थे। आपरेशन थियेटर से निकल कर डा॰सुशांत सीधे अपने कक्ष में गये और कुर्सी परनिढाल से बैठ गए। वार्ड-ब्याय को पता है कि आपरेशन से निवृत्त होने के बाद डाक्टर को तुरंत काली कॉफी चाहिए होतीहै। पाँच मिनट बाद वार्ड ब्याय उनकी मेज़ पर कॉफी रख गया।

रह-रह कर डा॰सुशांत के मानस पटल पर गनपत की दहशत और पीड़ा से याचना करती आँखें कौंध जाती हैं 

-“ डाक्टर मैं जीना नहीं चाहता ……मुझे मर जाने दो ……मुझे मर जाने दो। ”मृत्यु की याचना करता उसका ह्रदयबिलापी प्रलाप एनेस्थीसिया के इंजेक्शन के बाद शनैः-शनैः शांत हो गया था। गनपत प्रतिदिन की दिहाड़ी पर काम करनेवाला एक मज़दूर था। निर्माणाधीन हाउसिंग कांप्लेक्स बिल्डिंग के सातवें माले से वह गिरा था। इतनी ऊँचाई से गिरने परजीवित रहने की संभावना शून्य ही है। वह रेत के एक ढेर पर गिरा था एवं आश्चर्यजनक रूप से जीवित बच गया था। उसकी कमर का पिछला हिस्सा पूर्ण रूप से कुचला जा चुका था ,किंतु टाँगों में जीवन था।डाक्टर जानता है कि यदिउसका जीवन बच भी गया तब भी वह जीवन भर अपनी टाँगों से चल नहीं सकेगा। एक अपाहिज का जीवन जीना हीउसकी नियति होगी।उसकी मृत्यु की चाहत उसे जीवन भर पराश्रित होने के अभिशाप से मुक्त कर सकती है। किन्तु डाक्टरका धर्म तो जीवन बचाना है, मृत्यु देना नहीं।

डाक्टर सुशांत एक सर्जन हैं। मानव शरीर उनके लिए मात्र एक मशीन है ,जिसके क्षत-विक्षत पुर्ज़ों को नियंत्रित एवंव्यवस्थित करना उनका पेशा है। आपरेशन थियेटर की मेज़ पर गनपत का शरीर डा॰ सुशांत की सर्जनीय प्रतिभा के लिएएक चुनौती था। तीन नर्सों के साथ चार घंटे तक डाक्टर उस भग्न शरीर से जूझते रहे थे। अंत में एक राहत भरा अहसासउन्हें संतुष्ट कर गया जब उन्होंने अपने खून से सने रबर के दस्ताने उतार कर डस्ट बिन में डाले।मृत्यु की चाहना करने वालेगनपत को वह मृत्यु के शिकंजे से बाहर निकालने में सफल हो चुके थे।

अपने कक्ष में कॉफी पीते हुए सुशांत सोच रहे थे कि इस जटिल आपरेशन की सफलता पर वह अपनी पीठ थपथपायें याउस ग़रीब मज़दूर को जीवन भर के लिए पराश्रय की बैसाखियों में झोंक देने का पश्चाताप करें।किंतु जीवन एवं मृत्यु केउत्तरदायी वह नहीं हैं। न ही वह ईश्वर हैं और न ही वह किसी ईश्वर को मानते हैं। यदि वह ईश्वर होते तो क्या वह अपनीपत्नी रेखा को अपनी आँखों के सामने यों मरने देते ?

कैसी विडंबना है कि एक ओर यह गनपत है, जो जीना नहीं चाहता। अपनी हर साँस से मृत्यु की याचना करता है, किंतुउसे वह बचा लेते हैं। दूसरी ओर वह स्त्री जो जीवन की अदम्य आकांक्षा लिए जीना चाहती थी,किंतु उन साँसों में वहजीवन संचार नहीं कर सके। रह -रह कर मृत्यु के आग़ोश में जाती पत्नी की आँखें उनके मानस में कौंध-कौंध जाती हैं। जीवन के लिए आर्तनाद करती उसकी प्रत्येक साँस कह रही थी कि मैं मरना नहीं चाहती ……सुशांत मुझे बचा लो।क्यावह रेखा को जीवन दे सके ? असहाय से पल-पल वह उसकी जीवन ज्योति को बुझते देखते रहे थे।

यदि कहीं कोई ईश्वर है तो उसने कृष्ण-भक्त रेखा की करूण पुकार को क्यों अनसुना कर दिया ? क्या ईश्वर ही जीवनऔर मृत्यु के खेल का नियंता है ? सुशांत भ्रमित है कि वह कौन सा आधार रहा होगा जिसके अंतर्गत मृत्यु की चाहना कोजीवन दे दिया और जीवन की चाहना को मृत्यु।

शाम का धुँधलका घिरने लगा है।वार्ड-ब्याय कक्ष से कॉफी का ख़ाली कप ले जा चुका है। रात्रि का चौकीदार अपनीड्यूटी पर आकर डाक्टर को सलाम ठोंक चुका है। सलाम का अर्थ है कि डाक्टर घर जाये तो वह कक्ष का ताला लगा उसेबंद कर दे।

घर ? कौन सा घर ! क्या सूनी दीवारों से घिरा मकान घर होता है ! पत्नी विहीन घर में सूनापन जैसे काटने को दौड़ताहै। वह मनहूस सोमवार जिस दिन रेखा अपनी कार से बेटी को लेने उसके स्कूल जा रही थी। मोड़ पर तेज़ी से आ रहीट्रेक्टर-ट्रॉली से कार टकरा गई। भिड़ंत इतनी भयानक थी कि कार का अगला हिस्सा ट्रॉली में घुस गया था। किसी तरहकार का आगे का दरवाज़ा तोड़ कर रेखा को बाहर निकाला गया। जब तक रेखा को अस्पताल लाया गया तब तक बहुतखून बह चुका था। अस्पताल और डाक्टर की बस एक औपचारिकता ही शेष थी।रेखा की जीवन जीने की जिजीविषा हीउसे जीवित रखे थी अन्यथा जीवन-ज्योति हौले-हौले टिमटिमाने लगी थी। अंततः मृत्यु जीत गई और डाक्टर सुशांत हारगया। रेखा ने जीवन हारा तो सुशांत ने जीवन साथी।

कमरे में सूनापन घिर आया था। एक ऐसा सूनापन जैसा बर्फ़ से ढकी पर्वत चोटियों के मध्य किसी एकाकी पर्वतारोही नेमहसूस किया हो।सूनापन एक ऐसी धुँध की तरह होता है जिसमें धुँध बरसती नहीं बस अपने में समेट लेती है। शनै:-शनै: सूनेपन की धुँध से एक चेहरा उभर आता है। कोमल बाल-सुलभ ,कजरारी आँखों वाला चेहरा। वह चेहरा, जो विछोह कीपीड़ा में उनका उतना ही सहभागी है जितने वह स्वयं। यदि उन्होंने पत्नी को खोया है तो उसने अपनी माँ को। अनुष्का उनकीतेरह वर्षीय पुत्री, जिसे स्कूल से लेने रेखा कार से गई थी। स्कूल के गेट पर माँ की प्रतीक्षारत बेटी को जब ज्ञात हुआ होगाकि माँ उसे लेने अब कभी नहीं आयेगी तो उस कोमल ह्रदय पर क्या गुजरी होगी। वह स्वयं भी इस सदमे से उबर नहीं पाएहैं। पत्नी के बाद उनके रिक्त जीवन में अनुष्का के अतिरिक्त शेष क्या है। अनुष्का के लिए उन्हें स्वयं को कमजोर नहीं होनेदेना है। वह डाक्टर हैं कोई दुर्बल ह्रदय नहीं जो मृत्यु से भयभीत हो जाए। किंतु आज पता नहीं क्यों उस मज़दूर की मृत्युमाँगती ह्रदय विदारक चीख़ों ने उन्हें झकझोर दिया था। अन्यथा जीवन-मृत्यु ,आशा-निराशा, प्रार्थना-ईश्वर जैसीशब्दावलियों एवं अनुभूतियों के वह अभ्यस्त हो चुके हैं। प्रार्थना और ईश्वर, दुआएँ और मनौतियाँ दुख में डूबे मनुष्य कीमानसिक दुर्बलता के प्रतीक भर हैं।सुशांत यथार्थ में विश्वास करते हैं किसी आकाशीय शक्ति की परिकल्पना में नहीं।

चौकीदार चाभी का गुच्छा बजाते पुनः उनके कक्ष के बाहर से गुज़रा तो डाक्टर ने अपना बैग उठाया और भारी कदमों सेअपनी कार की ओर चल दिया। बाहर जलती ट्यूब लाइटों ने ढलती शाम के धुँधलके को रोशन कर दिया था। सुशांत कोदेरी तक बैठे रहने पर स्वयं पर क्षोभ हुआ।घर पर अनुष्का उनकी प्रतीक्षा करती होगी।

कार की आवाज़ के साथ ही अनुष्का ने दरवाज़ा खोल दिया। ”पापा आज बहुत देर कर दी। ”- कहते हुए अनुष्का नेउनका बैग ले लिया। पहले उनके आने पर रेखा ही दरवाज़ा खोल उनका बैग आदि सामान उठाती थी। माँ कीं मृत्यु के बादअनुष्का अपनी उम्र के तेरहवें वर्ष में ही जैसे अचानक परिपक्व हो गई हो।कल तक छोटी-छोटी ख़ुशियों के लिये मचलता, रूठता ,ठुनकता बचपन जैसे यथार्थ कीं निर्मम नियति में कहीं गुम हो गया था। वह पता नहीं कब कैसे पुत्री का चोला उतारमाँ की संरक्षक भूमिका में आ गई थी।

अनुष्का ने गीज़र चला दिया था।सुशांत नहा कर हल्का महसूस कर रहे थे।पिता-पुत्री डाइनिंग टेबल पर बैठ चुके थे। ” पापा आप जो स्वीट हार्ट बैरायटी वाला गुलाब का पौधा लाए थे,उसमें आज पहला फूल खिल गया है। ”-अनुष्का नेचहकते हुए कहा।

 “ गुड न्यूज़ ! मैं कई दिनों से गमलों की तरफ़ नहीं गया।कल सुबह उस गुलाब को ज़रूर देखूँगा।”- सुशांत ने मुस्कुराते हुएकहा।

“पापा इन दिनों बहुत से गमले ख़ाली पड़े हैं “-अनुष्का ने कहा। “ कल रविवार है, नाश्ते के बाद हम नर्सरी चलेंगे।कुछपौधे लाकर उन्हें माली से लगवा से देंगे। -सुशांत ने प्रस्ताव रखते हुए कहा।


रविवार का दिन। आज के प्रोग्राम घड़ी के काँटों से नियंत्रित नहीं है। सुबह की चाय पीते हुए सुशांत आज के कार्यों कीलिस्ट पर सोच रहे हैं। सबसे पहले नर्सरी उसके बाद मार्केटिंग।किसी फ़ास्ट फ़ूड रेस्टोरेंट में अनुष्का को पिज़्ज़ा-बर्गरखिलवाना।पहले तो इन सब की प्लानिंग रेखा ही करती थी।किंतु रेखा के बाद पिता-पुत्री ने इन उत्तरदायित्वों को बाँटलिया है। परिस्थितियाँ गुरू समान होती हैं। परिस्थितियाँ सब कुछ सिखला देती हैं। ख़रीदारी की लिस्ट, अनुष्का पहले हीबना चुकी है।

सुशांत नाश्ता समाप्त कर सुबह का अख़बार देख ही रहे थे कि अचानक हॉस्पिटल से किसी इमरजेंसी का फ़ोन आ गया।अनुष्का जानती है इमरजेंसी कॉल का अर्थ है कि आज के समस्त प्रोग्राम का पटाक्षेप।अनुष्का के चेहरे पर निराशाझलक आई थी।जल्दी आने का वायदा कर सुशांत कार से अस्पताल के लिए निकल पड़े।

भाग्य से इमरजेंसी कोई बहुत गंभीर नहीं थी।एक -डेढ़ घंटे में ही सब कुछ निबट गया। घर पहुँचकर वह अनुष्का कोचौंका देना चाहते थे। घर के द्वार से पहले ही उन्होंने कार का इंजन बंद कर दिया। हल्के पदचाप से चुपचाप अंदर घुसे।किंतु उन्हें अनुष्का कहीं नज़र नहीं आई।किचन में बाई काम कर रही थी। बाथ- टॉयलेट में भी अनुष्का नहीं थी।अनुष्काकहाँ चली गई ?

अचानक सुशांत ने देखा कि घर के ऊपरी तल में बना पूजाघर जिसे रेखा की मृत्यु के बाद बंद कर दिया था,के द्वार खुलेहैं। निशब्द, हल्की पदचाप से सुशांत पूजाघर के द्वार तक गए।सूने पूजाघर के फ़र्श पर जहां पहले लकड़ी का मंदिर था, वहाँ मंदिर हटने से एक रिक्त सफ़ेद चौकोर स्थान के सामने अनुष्का नेत्र बंद किए बैठी थी।

कोई व्यवधान डाले बिना सुशांत निशब्द अपनी स्टडी की कुर्सी पर जा बैठे। सामने दीवार पर लगे फ़ोटो से रेखा कीआँखें जैसे उन्हें कुछ कह रही हों —मेरी मृत्यु के बाद तुमने पूजाघर से मंदिर अवश्य हटा दिया किंतु मंदिर के निशान तोनहीं मिटा पाये।

पत्नी की तेरहवीं के दिन पंडित जी का जीवन की नश्वरता पर प्रवचन चल रहा था। पंडित जी कह रहे थे कि जीवन-मृत्यु पर किसी का ज़ोर नहीं,सब कुछ ईश्वर के हाथ है। दुर्घटना स्वरूप पत्नी की आकस्मिक मृत्यु को पंडित जी ईश्वरकी इच्छा बतला रहे थे। सुशांत को समझ नहीं आ रहा था कि मानवीय भूल से घटित दुर्घटना के मध्य ईश्वर कहाँ से आगए ? यदि पत्नी की असामयिक मृत्यु ईश्वर की इच्छा का परिणाम है,तो ऐसा ईश्वर सुशांत को स्वीकार नहीं।अगले हीदिन उन्होंने पूजाघर से लकड़ी का वह मंदिर और उसमें स्थापित कृष्ण मुरारी की प्रतिमा को हटा कर स्टोर रूम में रखवादिया था।

आज पूजाघर में बैठी अनुष्का ने उन्हें विचलित कर दिया। दीवार पर लगी रेखा की तस्वीर के सामने वह स्वयं कोअपराधी सा अनुभव कर रहे थे। उनसे रेखा के फ़ोटो के समक्ष और नहीं बैठा गया।सुशांत उठे और पुनः जाकर पूजाघर कीचौखट की ओट में खड़े हो गए। घर निशब्द एवं शांत है।एक निस्तब्धता सी छाई है।पूजाघर में किसी साध्वी की भाँति,नेत्रबंद किए अनुष्का का भोला चेहरा भी शांत है।उसकी आँखों से गालों तक सूख चुके आंसुओं की धाराओं के निशान स्पष्टनज़र आ रहे हैं। मंदिर के रिक्त चौकोर स्थान पर जहां पहले मंदिर था, एक गुलाब का पुष्प रखा है।

ईश्वर की अस्तित्व हीनता के समस्त विवेक पुत्री की आस्था के समक्ष जैसे बौने होते जा रहे थे। ऐसी कौन सी शक्ति हैजो इस बालिका के ह्रदय में विश्वास की आस्था जगा रही है। सुशांत निशब्द पूजाघर की चौखट छोड़ वापस लौटने लगेकि अनुष्का की आवाज़ ने उन्हें चौंका दिया।

“पापा ! प्लीज़ रुक जाओ। ”

 अनुष्का उठ कर उनके समीप आई।अपराध बोध से झुकी पलकों से उसने कहा-“पापा मुझे माफ़ कर दीजिए, पूजाघर मेंपूजा करके मैंने आपके विश्वास को तोड़ा है। मैं वादा करती हूँ कि आज के बाद से इस पूजाघर में कोई पूजा नहीं होगी।आप इस पूजाघर को मेरा स्टडी-रूम बनाना चाहते थे, तो ऐसा ही कर दीजिए। ”

सुशांत ने पुत्री को सीने से लगा लिया। पिता और पुत्री की आँखों से अश्रु धारा बह निकली। इतने दिनों से आँखों में क़ैदआंसुओं का सैलाब बह निकला।सुशांत ने रूँधे गले से कहा-“नहीं बेटी यह पूजाघर था और पूजाघर ही रहेगा। आज हमबाहर कहीं नहीं जायेंगे।मैंने मंदिर और रेखा के कृष्ण मुरारी को यहाँ से हटाया था। हम कृष्ण मुरारी को फिर से पूजाघर मेंस्थापित करेंगे।

स्टोर में बंद मंदिर और रेखा के आराध्य मुरली बजाते कृष्ण शंख-ध्वनि के साथ पुनः पूजाघर में स्थापित कर दिए गए। सूने पूजाघर में कृष्ण मुरारी क्या स्थापित हुए ,अनुष्का को लगा जैसे पूजाघर में माँ पुनः विराजमान हो गई।

भर आईं आँखों से उस छोटी बालिका ने कृष्ण भक्त माँ को नमन किया …………।


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