पुरसुकून की बारिश

पुरसुकून की बारिश

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आज पूरे दो वर्षों के बाद उसे देखा, सरे राह भीड़ भरे बाज़ार में। रोम-रोम से मानों आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा था। बमुश्किल नयनों के कोरों पर उन्हें सहेजा। पिछली बार जब, आखिरी बार मिली थी उसे दो बोल धन्यवाद के फूल भी अर्पित नहीं कर पाई थी।  कितना एहसान था इसका मुझ पर।  कॉलेज से लौट रही थी, जैसे ही गली की  नुक्कड़ पर सहेली के अपने घर मुड़ने  पर अकेली हुई थी कि इंसानों की  छाल ओढ़े कुछ पिशाचों ने हमला किया था।  इस से पहले कि उनके नाख़ून मेरी अस्मिता को क्षत-विक्षत करतें जाने कहाँ से ये देवदूत स-दृश्य प्रकट हुआ था। जहाँ अकेली नारी का बल कौड़ियों का मोल होता है वहीँ एक पुरुष की उपस्थिति ही उसे दस हाथियों का बल दे जाती है. हुआ भी वही, इसके आते ही सभी नर-पिशाच अपने पंजें समेट अदृशय होगए। जब दुप्पट्टा खींचा गया किसी ने नहीं देखा पर जब उसे ओढाया गया लोगो ने देख लिया। उसके नाम से मैं अपनी दकियानूसी परिवार में बदनाम हो गए।  जिसकी  हिम्मत और नेकदिली की ढाल ने परिवार की बेटी के स्वाभिमान की रक्षा की थी, उसी ढाल को गलत समझा गया। 

 बड़ी मुश्किल से माँ को सारा हाल बताया था,  माँ  ने होठों पर चुप की ताला टांग ताकीद किया कि यदि गली वाली बात का जिक्र घर में किया तो कल से ही पढाई रोक दी जाएगी। बिना किसी गुनाह के  अगले दिन से गुनाहगारों सरीखी सर झुकाए कॉलेज जाना अनवरत चलता रहा।  कभी सात वर्षीय भाई मेरा अंग रक्षक बनता तो कभी अस्सी वर्षीय दादी।
हां, एक साया था जो बिला नागा, मेरा हमसाया बना चलता था। कभी नजरें भी नहीं मिलती थीं पर मालूम रहता था कि वह हैं।  उसके होने की हिम्मत ने मुझे अगले कुछ महीने कॉलेज जाने और परीक्षा देने की हिम्मत देती रही।  नहीं जानती कि उसके लिए मेरा क्या महत्व था पर वह तो मेरे लिए देवता सदृश्य ही था, जिसकी उपस्थिति मात्र की परिकल्पना भी मुझे उन भेड़ियों व् नर पिशाचों के बीच से गुजरने का हौसला देती थी। 

बहरहाल, येन केन प्रकारेण सेशन पूरा करा, आती  गर्मियों में मेरी शादी करा दी गयी.अब गाय-बकरियों -भेड़ों से राय तो ली नहीं जाती है सो मुझसे पूछने  का तो कोई औचित्य ही नहीं था।  सुन रही थी बड़ा ही भरा-पूरा परिवार हैं।  पति का बहुत बड़ा कारोबार है और काफी सम्पन्न लोग हैं।  रोका के वक़्त एक बड़े भारी जरी-दार दुप्पटे से लम्बा घूंघट कर एक वजनी सतलडे हार को गले  में डाल दिया गया।  इसी पगहे को पकड़ मायके के  खूँटें से  खोल ससुराल के  खूंटे में बाँध दी गयी।  यूं  कहा जाये जेल की शिफ्टिंग हो गयी,मायके में भी सर झुका जमीन ताकती ही चलती थी यहाँ भी घूंघट से बस उतनी ही  धरती दिखती थी जहाँ अगला पग रखना होता था।  सुना था आसमान का रंग नीला होता है पर आज तक कभी देखा ही नहीं था। 

 नए परिवार में सामंजस्य बैठाने में कोई ख़ास समस्या नहीं आई क्यूंकि बचपन से बस यही तो सिखाया गया था कि जब शादी हो अपने घर जाउंगी तो कैसे तालमेल बैठाना है, बस एक बात खटकती थी, घर के पुरुषों की नीयत। मुझे हर वक़्त लगता जैसे आज भी मायके की उन्ही गलियों से कॉलेज जा रहीं हूँ।  हर वक़्त देवर  जी का स्पर्श गलत जगह हो जाना अनायास तो नहीं था। मानसिक रूप से अविकसित कुंवारे जेठ जी, की लोलुपता से बचना दिनों दिन दूभर हो रहा था. फिर सासु माँ का बार बार मुझे गाहे-बे गाहे बिना मतलब जेठजी के पास भेजना  अब मुझे खटकने लगा था. घर में  हर वक़्त लगता मैं किसी दोधारी तलवार पर चल रहीं हूँ, आज बच गयी जाने कल क्या होगा। 

 मेरे पति का घर में बड़ा रोब था, उनके आते सब पलक पांवड़े बिछा शालीनता की प्रतिमूर्ति  बन जाते,पर उनके रोंब तले मेरा दम घुटता था।  हमारा आपसी सम्बन्ध मित्रवत ना हो कर दासी और मालिक का होता था।  मैंने कई बार बताना चाहा कि आज देवर की दृष्टता सीमा लांग गयी या सासु माँ ने उसी वक़्त मुझे जेठजी के पास जाने को मजबूर किया जब वो नहा रहें थे।  पर मेरे अतिसफल समृद्ध कारोबारी पति के लिए ये सारी बातें मेरी कपोल कल्पना थी।  मैं हर दिन उन गन्दी कामुक निगाहों से दो-चार होती, बचती-बचाती एक एक दिन काटती। इतने सफल समृद्ध पतिदेव के होते हुए भी मुझे पुरसुकून मयस्सर नहीं थी। 

उनदिनों दो बातें हुईं, एक अच्छी और एक बुरी। मैं माँ बनने वाली हूँ, ये मेरे लिए एक बड़ी ख़ुशी की बात थी। नन्हे की आहट ने मुझे फिर से उसी  बल से समृद्ध कर दिया जो मुझे कॉलेज जाते वक़्त उस अनजान हमसाये से मिलती थी। एक नवीन उर्जा और बल से संचारित मैं, अनचाहे स्पर्शों को झटकने और कामुक नज़रों को आँखे दिखाने का साहस करने लगी।  मेरे बदलते अंदाज़ जाने किन-किन लांछनों का नमक मिर्च  छिड़क मेरे पति को परोसा जाने लगा।  पति नाम का वह महान बलशाली व्यक्तित्व न पहले मेरा था न अब,उसके समक्ष मेरी हैसियत तुच्छ थी। 

दूसरी बुरी बात ये हुई कि मेरे मायके में विभिन्न कारणों से द्वेष और कलह की अग्नि भड़क गयी। उसके आंच से मैं भी अछूती नहीं रह पाई। ये उन्ही दिनों की बात थी, जब मेरे बेटे के  जन्म को अभी दो महीने ही हुए थे और उसदिन मैं अपने को एक अर्धविकसित मानसिक पुरुष के पाशविक पंजों से आज़ाद नहीं कर पाई थी।  

पर गोद के बालक के बल से संचारित उर्जावान मैंने इस बात पर बहुत कुहराम किया। मूक गुडिया की जबान देख सभी चकित थे. दुःख इसी बात का था कि मेरे तथाकथित भगवान मेरे देव मेरे पतिदेव ने भी एक रहस्यमय चुप्पी लगा लिया था। 

इसबीच   मायके में रिश्तों के बीच घमासान हुआ और आग लग गयी मेरी गृहस्थी में। ताऊ के बेटे ने मेरे पति के  जाने क्या कान भरा कि बीच आँगन में मेरे  बेटे की वैधता को फिर उसके नाम से कलंकित किया गया, उसी के नाम से जिसे दो सालों से देखा भी नहीं था। 

सीता, अहिल्या के बाद अब मेरी बारी थी। मेरे प्रभु ने मुझे  गृह निष्कासन की सजा सुनाई थी।  आज फिर इज्जत की चीथड़ों में लिपटी मैं  जीवन की मुहानी पर खड़ी थी कि वह दिख गया।  अपने आंसुओं को तो मैंने  जज्ब कर लिया पर उसी वक़्त कुदरत  मुसलाधार बारीश के रूप में बिलख पड़ी।  दीवार की ओट में बेटे को गोद में लिए बारिश से बचने का असफल प्रयास विफल साबित हो रहा था कि अचानक भींगना बंद हो गया।  वह छतरी थामे खुद भींगता मुझे  बचा रहा था। उसके एहसानों की बारिश तले मैं  सुकूनमंद हो नयनों से मोती लुटाने लगी। 

 


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