Rita Gupta

Inspirational Romance Drama

3.0  

Rita Gupta

Inspirational Romance Drama

थोड़ी सी जमीन सारा आकाश

थोड़ी सी जमीन सारा आकाश

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फरहा पाँच सालों के अन्तराल के बाद अपने शहर वापस लौट रही थी। प्लेन से बाहर निकलते ही उसने एक लम्बी सांस ली, मानों बीते हुए पाँचों साल को इस एक सांस में जीना चाह रही हो। गोद में बेटे को लिए वह बैगेज लेने बेल्ट की तरफ बढ़ी। हवाई अड्डा पूरी तरह से बदला हुआ दिख रहा था। बाहर निकल उसने टैक्सी को अपने पुश्तैनी घर की तरफ चलने को कहा, जो हिन्दपीढ़ी मोहल्ले में था। पिछले पाँच सालों में शहर में काफी तरक्की हो चुकी थी। ये देख फरहा खुश हो रही थी। रास्ते में कुछ मॉल्स और मल्टीप्लेक्स भी दिखे। सड़कें पहले से साफ़ और चौड़ी दिख रहीं थी। जीन्स और आधुनिक पाश्चात्य कपड़ों में लड़कियों को देख उसे सुखद अनुभूति होने लगी। कितना बदल गया है उसका शहर, यह सोच उसे रोमांच हो आया।

रेहान सो चुका था, उसने भी पीठ सीट पर टिका टांगों को थोड़ा फैला लिया। लम्बी हवाई यात्रा की थकावट महसूस जो हो रही थी। आज सुबह ही वह सिडनी से अपने बेटे के साथ दिल्ली पहुंची थी। फिर वहां से यहाँ के लिए फ्लाइट ली थी। आना भी ज़रूरी था, एक हफ्ते पहले ही अब्बू रिटायर होकर, अपने घर में वापस लौटे थे। अब सब कुछ एक नए सिरे से शुरू करना था। भले ही शहर अपना नहीं था पर लोग तो वही थे। इसलिए फरहा कुछ दिनों के लिए मम्मा-अब्बू के पास रहने चली आई थी ताकि घर-गृहस्थी को नए सिरे से जमाने में उनकी मदद कर सकें।

तभी टैक्सी वाले ने ज़ोर से ब्रेक लगाया तो उसकी तन्द्रा भंग हुई। उसने देखा कि टैक्सी हिन्दपीढ़ी मोहल्ले में प्रवेश कर चुकी है। बुरी तरह से टूटी-फूटी सड़कों पर अब टैक्सी हिचकोले खा रही थी। उसने खिड़की के कांच को नीचे किया, एक अजीब-सी बू टैक्सी के अंदर पसरने लगी। किसी तरह अपनी उबकाई को रोकते हुए उसने झट से कांच चढा दिया। शहर की तरक्की ने अभी इस मोहल्ले को छुआ भी नहीं है। सड़के और संकरी लग रहीं थीं। इन पाँच सालों में कुक्कुरमुत्ते से उग आये आपस में सटे हुए, छोटे-छोटे, एक दुसरे पर गिरते-पड़ते घर, मानो भूलभुलैया बना दिया था मोहल्ले को। उसके अब्बा का दो मंज़िला मकान सबसे अलग दिख रहा था। अब्बा और मम्मा बाहर ही खड़े थे।

"तुमने अपना फोन अभी तक बंद ही कर रखा है, राकेश तबसे परेशान है कि तुम पहुंची या नहीं?" मिलते ही अब्बू ने पहले अपने दामाद की ही बातें की।

अचानक महसूस हुआ बंद खिड़कियों की दरारों से कई जोड़ी आँखे झाँकने लगीं हों।

सब छोड़, फरहा फ्रेश होकर, आराम से हाथ में चाय का कप लेकर घर, मोहल्ले, और रिश्तेदारों का मुआयना करने लगी।

एक २२-२३ साल की लड़की, सलमा फुर्ती से सारे काम निपटा रही थी।

"कैसा लग रहा है अब्बू अपने घर में आ कर? मम्मा पहले से कमज़ोर दिख रहीं हैं। पिछले साल सिडनी आई थीं तो बेहतर थीं" फरहा ने पूछा।

एक लम्बी सांस लेते हुए अब्बू ने कहा, "कुछ भी नहीं बदला यहाँ। पर एक-एक घर में बच्चें जाने कितने बढ़ गए हैं। गलियों में लोफर कुछ ज़्यादा दिखने लगे हैं। लडकियां आज भी उन्हीं बेड़ियों में कैद हैं, जिसमें उनकी माएं या नानी रहीं होंगी। तुम्हारी शादी की बात अलबत्ता लोग अब शायद भूल ही चुके हैं"

फरहा ने कमरे में झाँका, नानी-नाती आपस में व्यस्त दिखे।

"अब्बू! मुझे लग रहा था जाने रिश्तेदार और मोहल्ले वाले आपसे कैसा व्यवहार करें। मुझे फ़िक्र हो रही थी आपकी, सो मैं चली आई। अगले हफ्ते राकेश भी आ रहें हैं"

"फूफी के क्या हाल हैं?" कहती हुई फरहा, अब्बू के पास आ कर बैठ गयी।

"अब छोड़ो भी बेटा, जो बीत गयी सो बात गयी, जाओ आराम करो, सफ़र में थक गयी होगी", कहते हुए अब्बू उठने लगे।

फरहा जा कर मम्मा के पास लेट गयी, बीच में नन्हा रेहान नींद में मुस्कुरा रहा था।

पर जाने क्यों आज नींद नहीं आ रही थी, कमरे में चारों तरफ यादों के फूल और शूल मानों उग आये हों। जहां मीठी यादें दिल को सहलाने लगी वहीं कड़वी यादें शूल बन नस-नस को बेचैन करने लगे।

अब्बा सरकारी नौकरी में उच्च पदस्त थें। जहां हर कुछ साल में तबादला निश्चित था। काफी छोटी उम्र से ही फरहा को हॉस्टल में रख दिया गया था ताकि उसकी पढ़ाई निर्बाध्य चले। मम्मा हमेशा से बीमार रहती थी पर अब्बू-मम्मा में मुहब्बत गहरी थी। अब्बू उस वक़्त पटना में थे, उन्हीं दिनों फूफी उनके पास गयी थीं। अब्बू के रुतबे और इज्ज़त देख उनके दिल पर सांप लोट गए। और फिर उन्होंने शुरू किया अब्बू के दूसरे निकाह का ज़िक्र। अपनी किसी रिश्ते की ननद के संग। मम्मा की बीमारी का हवाला दे, पूरे परिवार ने तब खूब अपनापन दिखाकर रज़ामंदी के लिए दबाव डाला था। अब्बू ने बड़ी मुश्किल से इन ज़िक्रों से पीछा छुड़ाया था। भला पढ़ा-लिखा आदमी ऐसा सोच भी कैसे सकता है। ये सारी बातें मम्मा ने फरहा को बड़ी होने पर बताई थीं। उसके बाद से उसे फूफी और घरवालों से नफ़रत हो गयी थी कि कैसे वो उसके वालिद और वालिदा का घर उजाड़ने को थे।

फरहा के घर का माहौल उसके रिश्तेदारों की तुलना में बहुत भिन्न था। उसकी अब्बू की सोच प्रगतिशील थी। वह अकेली संतान थी और उसके अब्बू उसके उच्च तालीम के ज़बरदस्त हिमायती थे। वहीं दूसरी तरफ़ उस से छोटी उसकी चचेरी और मौसेरी बहनों का निकाह उससे पहले ही हो गया था। जब भी कोई पारिवारिक आयोजन होता तो उसके निकाह का ही चर्चा केंद्र में होता। ये तो अब्बू की ही ज़िद थी कि उसे इन्जिनीरिंग के बाद नौकरी नहीं करने के बजाय मैनेजमेंट की पढ़ाई के के लिए प्रोत्साहित किया।

देश लौटने के बाद से ही फरहा यादों के दरिया में गोते खा रही थी। उसे याद आया कि जब वह इन्जिनीरिंग के अंतिम वर्ष में थी, तो उस वक़्त फूफी फिर से घर आई थीं। आते ही अम्मा से फरहा की बढ़ती उम्र का ज़िक्र शुरू कर दिया था:

"भाभी जान मैं कहे देती हूँ ,फरहा की उम्र इतनी हो गयी है कि अब जान-पहचान में उसके लायक कोई कुंवारा लड़का नहीं मिलेगा। भाईजान की तो अक्ल ही मारी गयी है। भला लड़कियों को इतनी तालीम की क्या ज़रूरत है? असल मकसद उनकी शादी है। अब देखो मेरा बेटा फ़िरोज़। कितना खूबसूरत और गोरा चिट्टा है। जब से दुबई गया है माशा अल्लाह खूब कमा भी रहा है, दोनों की जोड़ी खूब जचेगी।

बेचारी अम्मा रिश्तेदारो की बातों से यूं ही हलकान रहती थीं। फूफी की बातों ने उनके रक्तचाप को और बढ़ा दिया। वो तो अब्बू जी ने जब सुना तो फूफी को अच्छा सुनाया,

"क्यूँ रज़िया तुमने क्या मैरेज ब्यूरों खोल रखा है? कभी मेरी तो कभी मेरी बेटी की चिंता करती रहती हो, इतनी चिंता अपने बड़े लाडले की होती तो उसे दुबई में पेट्रोल पंप पर नौकरी नहीं करनी होती। अभी फरहा की तालीम अधूरी है। मेरी प्राथमिकता उसकी शादी नहीं तालीम है"

फूफी उसके बाद रुक नहीं पायी थी, हफ्तों रहने की सोच कर आने वाली शाम की बस से वापस लौट गयीं।

यह सोचते-सोचते वह कब सो गयी उसे खुद पता नहीं चला।

सुबह रेहान की आवाज़ों से उसकी नींद खुली,

"फरहा बाज़ी, आप उठ गयीं, चाय लाऊं?", मुस्कुराती हुई सलमा ने पूछा। चाय का कप पकड़ा सलमा उसके पास ही बैठ गयी। फरहा ने महसूस किया कि वह उसे बड़ी ध्यान से देख रही है।

"बाज़ी अब तो आप सिन्दूर लगाने लगी होंगी और बिंदिया भी? क्या आप अभी भी रोज़े रखती हैं? क्या आपने अपने नाम को भी बदल लिया है? आपा अब तो आप बुतों को सलाम करतीं होंगी?" सलमा की इन बातों पर फरहा हँस पड़ी।

"नहीं मैं तो बिलकुल वैसी ही हूँ जैसी थी, वही करती हूँ जो बचपन से करती आ रही। तुम्हे ऐसा क्यूँ लगा?"

"जी कल मैं जब काम कर लौटी तो मोहल्ले में सब पूछ रहे थे। आपने काफ़िर से शादी कि है ना?" सलमा ने मासूमियत से पूछा।

फरहा के अब्बू ने फूफी को तो लौटा दिया था पर विवाद थमा नहीं था। आये दिन उसकी तालीम, बढ़ती उम्र और निकाह पर चर्चे होने लगे। धीरे-धीरे अब्बू ने अपने पुश्तैनी घर आना कम कर दिया। फरहा अपनी मैनेजमेंट की पढ़ाई के लिए देश की सर्वश्रेष्ठ कॉलेज के लिए चुनी गयी। अब्बू के चेहरे का सुकून ही उसका सबसे बड़ा पारितोषिक था। कॉलेज में वैसे ही काफी कम लड़कियां थीं, उस पर मुस्लिम लड़की वो अकेली थी अपने बैच में। फरहा काफी होनहार थी, कॉलेज में बहुत सारी गतिविधियाँ होती रहती थी और वह सब में काफी बढ़-चढ़ हिस्सा लेती। सब उसके कायल थे। इसी दौरान राकेश के साथ उसे कई प्रोजेक्ट पर काम करने को मिला। उसकी बुद्धिमानी और शालीनता धीरे-धीरे फरहा को अपनी ओर आकर्षित भी करने लगी। संयोग से दोनों साथ ही समर-इंटर्नशिप के लिए एक ही कंपनी के लिए चुने भी गए। नए शहर में उन दो महीनो में दिल की बातें ज़ुबान पर आ ही गयी। दुनिया इतनी हसीं पहले कभी ना लगी थी।

इंटर्नशिप के बाद फरहा एक हफ्ते के लिए अब्बू -मम्मा से मिलने दिल्ली चली गयी। अब्बू की पोस्टिंग उस वक़्त वहीं थीं। अब्बू काफी खुश दिख रहे थे,"फरहा कुछ महीनों में तुम्हारी पढ़ाई पूरी हो जाएगी। मेरे मित्र रहमान अपने सुपुत्र के लिए तुम्हारा हाथ मांग रहें हैं। मुझे तो उनका बेटा और परिवार सब बहुत ही पसंद है। पर मैंने कह रखा है कि फैसला मेरी बेटी ही लेगी।"

उस एक पल में फरहा के नस-नस में एक तूफ़ान सा गुज़र गया, फिर खुद को संयत करते हुए उसने कहा "आप जो फैसला लेंगे वो सही होगा अब्बुजी"

"शाबाश बेटा तुमने मेरी लाज रख दी। सब कहतें थें कि इतना पढ़ लिख कर तुम भला मेरी बात क्यूँ मानोगी। मैं जानता था कि मेरी बेटी मुझ से अलग नहीं है। मैं कल ही रहमान को परिवार को खाने पर बुलाता हूँ।"

सपना देखना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि नींद खुल गयी। फरहा रात भर रोती रही, बहतें अश्कों ने बहुत सारे संशय को सुलझा लिया। राकेश और वो नदी के दो किनारे हैं। विचारों और बौद्धिकता का मेल शायद हकीकत में अस्तित्व ही नहीं रखते हैं। फरहा ने सोचा कि ये तो अच्छा हुआ कि उसने अब्बुजी को अपनी भावनाओं के बारे में नहीं बताया। वैसे ही वो घर-समाज से लड़ मुझे उच्च तालीम दिला रहें हैं। अगर मैंने एक हिन्दू-काफ़िर से ब्याह की बात भी की, तो शायद आने वाले वक़्त में अपनी बेटी-बहन को मेरी मिसाल देने के बजाय उनसे शिक्षा का हक भी छीना जायेगा। उसे सिर्फ अपने लिए नहीं सोचना चाहिए, फरहा मन को समझाने लगी।

दूसरे दिन ही रहमान साहब अपने सुपुत्र और बीवी के साथ तशरीफ़ लायें। ऐसा लग रहा था मानो सिर्फ औपचारिकता ही पूरी हो रही थी, सारी बातें पहले से तय थीं। उसने जब अब्बू-मम्मा के हँसते चेहरों को देखा तो उसने बड़ी सफाई से अपने आंसुओं को आँखों में ही रोक लिया

"समीना आज मुझे लग रहा है कि मैंने फरहा के प्रति अपनी सारी ज़िम्मेदारियों को लगभग पूरा कर लिया है। आज मैं बेहद खुश हूँ। निकाह फरहा की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही करेंगे। तभी सारे रिश्तेदारों को बताएँगे" अब्बू ने अम्मा से बोला।

दो दिनों के बाद वह अपने कॉलेज अहमदाबाद लौट गयी। लग रहा था राकेश मिले तो उसके कंधे पर सर रख खूब रोये। पर राकेश सामने आया तो वह भी बेहद उदास और उलझा हुआ सा दिखा। फरहा अपना गम भुला राकेश के उतरे चेहरे के लिए परेशान हो गयी।

"फरहा, मैंने घर पर तुम्हारे बारे में बात की। पर तुम्हारा नाम सुनते ही घर में बवाल मच गया। मैंने भी कह दिया है कि मैं तुम्हारे आलावा किसी और से शादी नहीं करूँगा। इस बार सब से लड़ कर आया हूँ।" राकेश की बात सुनने के बाद फरहा ने भी कहा कि उसकी हालत भी बकरीद पर हलाल होने वाले बकरें से बेहतर नहीं। दोनों मित्र तो थें ही फिर हर प्रोजेक्ट, हर असाईंनमेंट अभी तक दोनों ने साथ ही किया था सो अभी भी करतें रहें पर हाँ एक रेखा तो खिंच ही गयी थी दोनों के बीच।

वक़्त गुज़रा, फरहा और राकेश दोनों की नौकरी दिल्ली में ही लगी। दोनों अब तक मानकर चलें थे कि एक हिन्दू लड़का और मुस्लिम लड़की की शादी मुकम्मल हो ही नहीं सकती। पर नियति के खेल को कौन जानता है? फरहा के निकाह की तारीख कुछ महीनों बाद की ही थी। एक दिन फरहा अपने अब्बू और मम्मा के साथ कार से गुडगाँव की तरफ जा रही थी कि सामने से आते एक बेकाबू ट्रक ने ज़ोर से धक्का दे दिया। तीनो को गम्भीर चोटें आयीं। बेहोश होने के पहले फरहा ने राकेश को फोन कर दिया था। अब्बू और मम्मा को तो हलकी चोटें आयीं पर फरहा के चेहरे पर काफी चोटें आयीं थीं, नाक और ठुड्डी की तो हड्डी ही टूट गयी थी, पूरे चेहरे पर पट्टियां थीं। रहमान साहब और उनका परिवार भी आया हॉस्पिटल में और सबने बेहद अफ़सोस ज़ाहिर किया।

उसका होने वाला शौहर सबके सामने ही डॉक्टर से पूछ बैठा कि क्या फरहा पहले की तरह ठीक हो जाएगी तो डॉक्टर ने कहा कि इसकी उम्मीद बहुत कम है कि वह पहले वाला चेहरा वापस पा सके, हाँ शरीर का बाकी हिस्सा बिलकुल स्वस्थ हो जायेगा। शायद प्लास्टिक सर्जरी के बाद कुछ बदलावों के साथ वह एक नया चेहरा पा सके। जिसमें बहुत वक़्त लगेगा।

वह दिन और आज का दिन, रहमान परिवार फिर मिलने भी नहीं आया, अलबत्ता निकाह तोड़ने की खबर ज़रूर फोन पर दे दी गई। दुःख की घड़ी में उनका यूं रिश्ता तोड़ देना बेहद पीड़ादायक था। अब्बू मम्मा जितना दुर्घटना से आहत नहीं हुए थे उतना उनके व्यवहार से हुए। ये तो अच्छा था कि किसी रिश्तेदार को खबर नहीं हुई थी वरना और बात बिगड़ती। फिलहाल सवाल फरहा के ठीक होने का था। इस बीच राकेश उनका संबल बना रहा। हॉस्पिटल, घर, ऑफिस और फरहा के अब्बू मम्मा सबको संभालता। वह उनके घर का एक सदस्य ही हो गया हो जैसे।

उस दिन अब्बू ने हॉस्पिटल के कमरे के बाहर सुना,

"फरहा प्लीज़ रो मत। तुम्हारी पट्टियाँ कल खुल जाएँगी। मैं हूँ ना, मैं तुम्हारे लिए ज़मीन आसमान एक कर दूंगा। जल्द ही तुम ऑफिस जाने लगोगी।

"मुझसे कौन शादी करेगा?" ये फरहा की आवाज़ थी। "बन्दा सालों से इन्तज़ार कर रहा है। अब तो माँ भी हार कर बोलने लगी हैं कि कुंवारा रहने से बेहतर है जिस से मन हो कर लो शादी। पट्टियाँ खुलने दो एक दिन माँ को ले कर आता हूँ"

राह के कांटें धीरे-धीरे दूर होते गए। राकेश के घरवाले, इतनी होनहार और उच्च शिक्षित बहु पा कर निहाल थे। उसके गुणों ने उसकी दुर्घटना ग्रस्त चेहरे को ढक दिया था। निकाह की नियत तारीख पर ही दोनों की कोर्ट मैरिज हुई और फिर हुआ एक भव्य रिसेप्शन जिसमें दोनों तरफ के रिश्तेदारों को खबर कर दिया गया था। दोनों ही तरफ से परिवार के लोग न के ही बराबर शामिल हुए, हाँ दोस्त-कुलीग शामिल हुए थे। कुछ ही दिनों के बाद राकेश की कंपनी ने उसे सिडनी भेज दिया। दोनों वहीं चले गए और खूब तरक्की करने लगें।

फरहा की शादी के बाद अब्बू एक बार अपने शहर, अपने घर गए थें। पर मोहल्ले के लोगों ने उन की खूब खबर ली थी। कुछ बुज़ुर्ग लोगों ने आ कर उन्हें डांटा भी पिलाया। रात को घर पर पथराव भी किया। किसी तरह पुलिस बुला अब्बू और मम्मा घर से निकल पायें थें।

"अब्बुजी आप किस से बातें कर रहें थें?" फरहा ने पूछा।

"अरे! तुम्हारी फूफी जान थीं। बेचारी आती रहती हैं, मुझसे मदद लेने। बेटे तो उनके सारे नालायक हैं, कोई जेल में तो कोई लापता। बेचारी के भूखों मरने वाले दिन आ गए हैं" अब्बुजी ने कहा।

"फरहा उस रात हमारे घर पर इन्होनें ही ने पथराव करवाया था अपने नालायक बेटों से। हमने तुम्हारी शादी इनके बेटे से जो नहीं कराई थी, सारे मोहल्ले वालों को भी इन्होनें ही उकसाया था। बहुत साजिश की इन्होनें हिन्दू-लड़के से तुम्हारी शादी करने के हमारे फैसले को बदलने की"

मम्मा ने हँसते हुए कहा।"ये जो सलमा हैं ना, इस वर्ष वो दसवीं की परीक्षा दे रही है। वो भी तुम्हारी तरह तालीमयाफ्ता होने की चाहत रखती है"।

"सिर्फ मैं ही क्यूँ, मोहल्ले की हर लड़की आपके जैसी ही होनी चाहती है" ये सलमा थी।

"काश कि सबके अब्बू आपके ही जितने समझदार होतें" कहते फरहा उनके गले लग गयी।

अब्बा ने बेटी को बस थोड़ी सी ज़मीन दी थी जिसकी बदौलत उसने पूरे आकाश को पा लिया था...


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