Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama

2.5  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Drama

पुनर्मिलन की आस ....

पुनर्मिलन की आस ....

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शहर में 19 मार्च से कोरोना को लेकर, मच गई ज्यादा अफरा तफरी में, मैं व्हिस्की ज्यादा नहीं ला पाया था। मेरी कुंठा एवं आत्म ग्लानि को भूलने के लिए इस तरह नशे का सहारा खत्म हो गया था।

दो माह के बेटे को लेकर, नताशा को गए तीन माह हो गए थे। नताशा और नवजात बेटे से वैसे तो मुझे ज्यादा प्यार नहीं था। मगर पिछले पाँच दिनों से घर में छिंके रहने और वह भी नशा विहीनता की फुरसत की दशा ने, मुझे आत्म अवलोकन करने को विवश कर दिया था। मैं मूर्ख जिसे, अपनी ही पहल पर, परिणय सूत्र में बाँध लाया था, तथा भरपूर साथ निभाने के के बावजूद भी, मैं नताशा के प्रति कृतज्ञ न हुआ था। मैंने एक अति कृतघ्न व्यक्ति, होने का परिचय दिया था। 

मालूम नहीं क्यूँ तब, पुरुष सत्ता असंतुलित रूप से मेरे दिलो दिमाग पर छाई थी।

अपनी नई ही ब्याहता पत्नी को, अवस्था अनुरूप सहज प्यार न देकर, मैंने अनेकों बार उसके स्वाभिमान को चोट पहुँचाने वाला व्यवहार किया था।

नताशा के जाने के दिन से अपने, अन्याय पूर्वक किये व्यवहार को, शराब के नशे में डूबे रह कर, मैं स्वयं को न्यायसंगत ठहरा देता रहा था।

नताशा का 498 A के तहत कार्यवाही आरंभ करवाये जाने पर, हम (मेरे माँ-पापा सहित), संबंध विच्छेद की परिस्थिति निर्मित कर देने के लिए दोष नताशा पर डाल देते रहे थे।

आज जब मैं पूर्णतः होशो हवास में पिछले वर्षों के घटनाक्रम पर गौर कर रहा था, तब मुझे यह मानना पड़ा कि हमने ही, नताशा को इस हद तक लाचार किया था।

यह सोचते हुए मैं, पानी पीने के लिए बैडरूम से निकल रसोई के तरफ जा रहा था, तभी कानों में नताशा का नाम सुन ठिठक रूक गया था। मुझे समझ आया था कि बैडरूम में मेरे मम्मी-पापा भी, हमें (नताशा, मुझे और बेटे को) लेकर चर्चारत हैं।

पापा कह रहे हैं, 21 दिनों तक हमें घर में ही बंद रहना है। ऐसे में एरोन (मेरा बेटा) और नताशा घर में होते तो, सबका मन लगा रहता। हमने बेकार ही, एवर्ट (मैं) को शह देकर, इस हद तक संबंध बिगाड़ दिए हैं। 

उत्तर में माँ कह रही हैं - हाँ देखो न! बेटा कैसा उदास रहता है।

पापा कहते हैं ये उम्र प्रेमालाप और प्यार भरी चिहुलबाजी की होती है। यहाँ अकेला एवर्ट वहाँ अकेली नताशा, बेचारे जीवन का यह समय, यूँ ही गवाँ देने को लाचार हैं। 

मम्मी उसमें जोड़ती है - और हम, नन्हें पोते को खिलाने, देखने के सुख से स्वयं को वंचित भी तो कर रहे हैं।

पापा, हामी भरते हैं।

फिर रहस्यमय रूप से, अपने स्वर को धीमा (जिसे सुनने के लिए मुझे अपने कान खड़े करने के साथ ही उनके बैडरूम के दरवाजे से ज्यादा सटना पड़ता है) करते हुए कहते हैं - देखो, सेरेना (माँ का नाम) अपवाद छोड़ें तमनुष्य के दो जेंडर होते हैं, जब तक रूह को शरीर मिलता है, प्रवृत्ति विपरीत लिंगीय के प्रति सहज आसक्ति की होती है।

एवर्ट एक पुरुष है, अपने फ्रेंड्स की संगत में खुश नहीं रह सकता उसे नताशा की संगत तो चाहिए ही पड़ेगी।

यह सुन कर मालूम नहीं कैसे! माँ को इस गंभीर चर्चा में भी चुहल सूझती है वे हँस कर पापा से कहती हैं, देखो आप इस प्रवृत्ति की दुहाई देकर किसी पड़ोसन पर डोरे न डालने लगना!

पापा साथ ही हँसते हैं, फिर कहते हैं - अरे नहीं सेरेना, अब हम पुरुष कहाँ रह गए हैं, शरीर में अटकी एक रूह ही बस तो रह गए हैंतुम्हीं बताओ! रूह का कोई जेंडर होता है? अब हमारे लिए तो पुरुष स्त्री, सब एक महत्व के हो गए हैं।  

माँ फिर गंभीर हो कहती हैं - आप एवर्ट से बात कीजिये और उसे सुलह को समझाइये।

पापा कहते हैं - आज शाम बात करता हूँ।

फिर अंदर की आहट से मुझे समझ पड़ता है, कि कोई अपनी जगह से उठा है। मैं तुरंत पीछे को चलते हुए, अपने कमरे में वापिस आ जाता हूँ।

बिस्तर पर लेटते हुए सोचने लगता हूँ,कोरोना खतरा भी कुछ अच्छाईयों का निमित्त हो रहा है। उसने हमारा सोया विवेक जगाया है हमें न्यायप्रिय होने के लिए प्रेरित कर रहा है। शाम को पापा, मम्मी और मै, लिविंग रूम में एकसाथ हैं। मेरी तरफ देखते हुए, पापा कहते हैं - एवर्ट, अब हमें नताशा और एरोन को वापिस लाने की युक्ति ढूँढ़नी चाहिए। 

मैं बिना ऐतराज दिखाए, सहमति में सिर हिलाता हूँ।

तब पापा अधिवक्ता को मोबाइल कॉल करते हैं, दूसरी तरफ से उत्तर मिलने पर पूछते हैं- जेटली साहब क्या 498 A के नताशा के दिए नोटिस की स्थिति में भी, न्यायालय के बाहर कोई सुलह हो सकती है?

वहाँ से जो जबाब मिलता है, उससे उत्साहित हो, तेज स्वर में कहते हैं, तो वकील साहब बिना समय लिए अभी ही कोशिश कीजिये ना।


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