पतिता
पतिता
कल एक अनजान नंबर से फ़ोन आया और मैं हड़बड़ा गयी। आवाज़ कुछ जानी - पहचानी सी थी पर ठीक से याद ना आता था। आवाज अपने ही उम्र की किसी महिला की थी, "मैं आपकी पाठिका बोल रही हूँ। औरत के प्रेमिका और माँ के रूप को तो बखूबी उभारा आपने, पर औरत को औरत के रूप में उभार ना पायीं।"
"माफ़ कीजिये मैंने पहचाना नहीं आपको?”
"पत्नी हूँ, पर पत्नी ना बन सकी, आपसे मिलना चाहती हूँ।" आवाज़ में दर्द था।
"हाँ - हाँ! क्यों नहीं! जहाँ बोलो!" मैंने कहा। शिखा यही नाम था उसका, मैं मिलते ही पहचान गयी कि वो तो कॉलेज में मेरी जूनियर थी। शिखा को भी मैं याद थी पर उसे इल्म ना था कि, "ब्लॉगर आर्या झा"उसके कॉलेज वाली आर्या दी है।
फिर तो तमाम इधर - उधर की बातों के बाद हम मुद्दे पर आये। उसने जो कुछ बताया और जो मैंने महसूस किया, ये दर्द की वो दास्तान थी जिसने मेरी आँखों में आंसू ला दिए थे और वो गाना कानों में गूंजने लगा था...
"सखी री कासे कहुँ अपने जिया की...” तो मैं कहानी बताती हूँ। उसके घरवालों ने शादी तय की और ब्याह कर ससुराल आयी। हर लड़की के शादी के लिए हज़ारों अरमान होते है। उन्हें नैनों में समाये, पति के साथ गठबंधन कर घर में कदम रखा। व्यापारियों का परिवार था। आलीशान भव्य कोठी, ढेरों नौकर-चाकर, विधवा रोबीली सास और हर वक्त पैसों के जोड - तंगड में जुटा पति! लोगों को पति में प्रेमी, मित्र सबकुछ मिल जाता है पर उसे तो पति भी ना मिला। आगे की कहानी शिखा के जुबानी...
"विवाह के रात ही विघ्नेश (पति) ने यही कहा कि यह घर माँ का है, और उनके खिलाफ एक शब्द नहीं सुनूंगा! अब मेरे पास कहने के लिए कुछ ना था। अभी तो घर में मेहमान थे। उनके विदा लेते ही मुझे पता लग गया था कि उन्हें पत्नी नहीं सेविका चाहिए थी वो भी माँ की। मेरे सोने का कमरा अलग था। सासु कहती, खाकर सो जा! विघ्नेश को मेरे पास ही नींद आती है। मैं क्या कहती और किससे कहती? जब उनका दिल करता वो मेरे पास आते। फिर वापस अपनी माँ के पास चले जाते। खैर! इन्हीं आने -जाने के क्रम में दो बच्चों की माँ बनी। कहते है गर्भवती महिला जिसका चेहरा ज्यादा देखती है बच्चे की शक्ल वैसी ही हो जाती है। मेरे दोनों बच्चे मुझ जैसे है। अंधेरों में ही पति को देखा, उनकी दुनिया तो माँ से रौशन थी। मुझे किसी तरह की कोई कमी ना थी। रूपये - पैसे -आजादी सब था। बस वो ना था जिनके अरमान पलकों में सजाये, चौखट में प्रवेश किया था। बाजुओं का सहारा, सांसों की गर्मी, एक -दूसरे में खो जाने की तड़प, स्वेच्छा से पति पर न्योछावर होने का अहसास, सारे कौमार्य सपने कुंवारे ही थे जबतक महेश ने प्रवेश ना किया था।”
"अब ये महेश कौन है?” मैंने पूछा?
"पति के साथ ही काम करता था। उसका मेरे घर आना - जाना था। पहले - पहल तो प्रशंसक बना। फिर मित्र और फिर..."
"फिर क्या... बोल !"
"मेरे बंजर मन को अपने प्यार से सींचने वाला प्रेमी! वही मेरे जीवन में प्रेम रूपी सावन बन बरसता रहा और मैं दग्ध तप्त धरा बस भीगती चली गई !"
"ओह! विघ्नेश जानता है ये सब?"
"शायद! पर उन्होंने कुछ कहा नहीं!"
"कैसी शादी है ये? और कैसा पति? मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा।” मैंने कहा।
"बस! यही सुनना था आपसे। बस यही कहना था। पत्नी, पत्नी होती है दी, पतिता नहीं! और पति ही उसे पतिता बनाता है! मैं वर्षों दो मीठे बोल के लिए तरसी। काश! मुझसे विघ्नेश ने कभी युहीं हाथों में हाथ डालकर कुछ प्यार भरी बातें की होती। कुछ व्यक्तिगत पल होते जिनकी यादों में मेरी सुबहें व शामें हसीन हो उठती। पर उसके पास मेरे लिए वक़्त नहीं था। युहीं तनहा भटकती हुयी, एक अकेली को कोई साथी मिला तो उसने अपने सुख -दुःख बाँट लिए तो क्या बुरा किया?”
उसके दृढ़ आवाज में सहनशक्ति और सत्यता की ताक़त थी। मुझे भी उसकी बातें ठीक लगीं कि स्त्री, पत्नी बनने में ही, अपनी पूर्णता ढूंढती है। पतिता, तो उसके पति का उसके प्रति, ठंडा व्यवहार ही बनाता है। "चलो दुखी ना हो, आगे कहो, फिर क्या हुआ?”
"फिर महेश की सच्चाई सामने आयी कि वह कोई प्रेमी नहीं बल्कि अय्याश किस्म का इंसान था उसने मेरी हालातों का फायदा उठाना चाहा था। यह समझते ही मैंने उससे दरकिनार कर लिया। मुड़कर देखती हूँ तो सोचती हूँ कि अगर पति का प्रेम मिलता तो क्या होता? सास को मेरे दुखों की समझ होती तो क्या होता? अगर घर में सबकुछ सामान्य होता तो आज ये मन ऊसर ना होता, इसे किसी बाहरी बारिश का सहारा ना लेना पड़ता! मुझे पता नहीं इसमें किसका दोष था लेकिन मैंने विवाह पूर्व कभी किसी की कल्पना तक ना की थी, ना हीं किसी से प्यार किया था! और एक बात आपसे बतानी है कि दो वर्ष पूर्व ही सास का देहांत हुआ। मृत्यु शैया पर उन्हें, मेरे प्रति किये गए अपराधों का भान हुआ। उन्होंने हाथ जोड़कर मुझसे माफ़ी माँगी। अब दो वर्षों से अकेली अपने मन पर ये बोझ लिए थी। पर पति की अब भी वही बेरुखी है। मेरे बच्चे बड़े हो गए है और मेरे अभिन्न मित्र बन गए है! पर अब मेरे दिल का दरवाज़ा सालों से बंद है। इसे किसी के आहट या दस्तक का कोई इंतज़ार नहीं !!"
उसके दर्द से मेरी आंखें नम थी। कहने को कुछ ना था। मेरी लेखनी को खुली चुनौती थी। उसके दुखों को आप तक पहुँचाना था। मुझे पता नहीं! मैं कितना उभार सकी और कितने दर्द अब भी उसके दामन में लिपटे है, पर उसकी बातों से सहमत थी कि औरत को पत्नी या पतिता उसका पति बनाता है।
इस सन्दर्भ में मेरे विचार हैं कि पुरुष प्रेम करे या न करे। घरवाली से करे या बाहर वाली से करे। हर हाल में पत्नी दोषी मानी जाती है। तब सास भी कड़क कर कहती है कि पति का पत्नी के तन - मन पर अधिकार है और उसे पति को खुश करना ही होगा! यही अधिकार पत्नी का पति पर क्यों नहीं? जब पत्नी को सुख चाहिए तब पति को उसे खुश करना ही होगा! क्या कभी कोई माँ अपने बेटे को ये कह सकेगी? जिस दिन यह संभव हो जायेगा, बहु 'बेटी'बन जाएगी!!